भोजपुरी के साहित्यिक इतिहास मोटामोटी डेढ़ सौ साल के पूरा होखे जा रहल बा. एह में सब विधा के रचना भइल, बाकिर समीक्षा के लेके कुछ विचार हमरा सामने उठ रहल बा. किताबन के समीक्षा के नांव पर ओकर परिचय लिखे आ छापे के काम भोजपुरी आ हिंदी के अखबारन के संगे-संगे पत्रिकन में भी लगभग आठ-दस दशक से चल रहल बा. बाकिर भोजपुरी में समीक्षा के विधात्मक स्वरुप अबे साफ नइखे भइल.
समीक्षा आ आलोचना के एके मान के चलल ठीक नइखे. दुनो के भेद जानल जरुरी बा. किताबन खातिर कवना के जरुरत बा ई समुझल भी जरुरी बा. इहो जाने के परी कि किताब के परिचय लिखाता कि समीक्षा. आलोचना के शास्त्र कहल गइल बा . शास्त्र माने जवना में शास्त्रीय विधान होखे. किताबन के समीक्षा होखे भा आलोचना दुनो में शास्त्रीयता जरुरी बा. समीक्षा खाली किताब के होखे के चाही. बाकिर जब आलोचना के भाव होखे तब रचनाकार के रचनाधर्म के उटकेरे के परी. एकरा खातिर जरुरी होइ कि रचनाकार के बारे में गंभीरता से पढ़ल जाव. डॉ. नगेंदर एक जगे लिखले बाड़न कि उत्तम रचाना खातिर रचनाकार के उत्तम भइल जरुरी होला . बाकिर हमनी के व्यव्हार में देखले बानिजा कि आदिमी के आपन निजी जीवन भले कइसनो होखे, ओकर साहित्यिक दुनिया बहुते उत्तम रहल बा. कहनाम ई बा कि आलोचना खातिर रचनाकार के निजी जीवन पर गइल जरुरी नइखे. बाकिर लोग कहेला कि ऊ का लिखीहें जी! खीसा ह कि -देखले धिया समधिन!
‘भोजपुरी जंक्शन’ के पिछिला कइगो अंक देख के नया विचार आइल ह कि समीक्षा पर कुछ लिखल जाव. बड़ी संकट बा भोजपुरिया समीक्षा में
भोजपुरी किताबन के समीक्षा के मानक ऊहे ना होखे के चाही जवन संस्कीरित आ विदेशी साहित्य के संगे चलल आ रहल बा. भोजपुरी किताबन के आधार भोजपुरिया संस्कृति में बा. रचनाकार भले कतहुँ बस जाव, जब अपना मातृभाषा में लिखे बइठी त ओकर संस्कार खिंचबे करी. ना खींची त कथानक डगमगाए लागी. बाकिर इहो साँच बा कि रचनाकार हरमेशा एकरसे लिखी त ओकर कलमकारी घसेटाये लागी. एहसे जरुरी होइ कि ऊ नया विषय खोजो. अब जब ऊ नया विषय पर रचना करी तब ओकर कलेवर बदल जाई. एह विचार से जब समीक्षा होइ तब रचना के नीरछीर न्याय होइ.
दोसर बात विधा के लेके बा. हर साहित्यिक विधा के एगो पारम्परिक नक्शा चलत आ रहल बा. जब केहू ओकरा से विलग होके लिखे ला तब कहाला कि मानक आधार के रचना नइखे. बाकिर विचारे के बात बा कि जब नया लिखाला तब बेहतरी के कुछ पारम्परिक मानक पीछे छूट जाला. उदाहरण खातिर हिंदी में निराला जी आ फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के रचनाकर्म देखल जा सकेला. मतलब ई बा कि जब कवनो किताब के समीक्षा होखे तब ईहे विचारे के चाही कि एहमे नया के नयापन का बा आ कइसे बा. नइखे तबो कवनो चिंता के बात नइखे बाकिर हर रचना में कुछ ना कुछ नयापन जरुरे रहेला. ऊहे नयापन खोजल समीक्षक के काम ह.
कवनो साहित्य कवनो ना कवनो भाषा में ही लिखाला. भोजपुरी के रचना जगत में भोजपुरी शब्दन के बहुते महिमा बा. बाकिर भाव आ सन्दर्भ के अनुसार भाषा ना होइ तब रचना के कायाकल्प कमजोर होइए जाई. एहसे समीक्षक के नजर एह पर जरूर होखे के चाही कि किताबन के भाषा कइसन बा. भाषा के सरूप चाहे तत्सम, तद्भव, देशज भा विदेशज होखो, हमार कहनाम बा कि भोजपुरिया किताबन में भोजपुरिया संस्कार कवना रूप में आइल बा, ऊ खोजे के चाही.
किताबन के विधात्मक रूप देबे में रचनाकार लोगन के बहुते दउरकिया मारे के परेला, बाकिर पहुंचे के परेला अपना ठेहे पर. एह दउरकिया में रचनाकार के का दशा भइल बा, ऊ समीक्षक समझ सकेला. कवनो किताब के खाली नीमन लागला भर से ओकरा के बढ़िया रचना कह दिहल बढ़िया समीक्षा ना होइ, काहे कि नीमन आ जबून के आपन-आपन नजरिया होला. बाकिर समीक्षक के नजरिया आपन ना होके पाठक लॉगिन के होखे के चाही. काहें कि किताब कवनो एगो पाठक खातिर ना लिखल जाला. ऊ कवनो ना कवनो समूह खातिर लिखा .
रचना के उपयोगिता के आधार पर मार्क्स के कहनाम ह कि रचना चाहे शोषक लोग के पक्ष में होला भा शोषित लोग के पक्ष में. ध्यान देबे के विचार एहिजा ई बा कि अइसन नजरिया भोजपुरिया समीक्षा खातिर बहुत उचित ना कहाई. काहे कि अइसन मानक भोजपुरी परिवेश से अलगे बा. हमनी के शास्त्रीय समीक्षा में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, गीत, गवनई से लेके संस्मरण, यात्रा, डायरी, चिठ्ठी आदि सब के अलगे-अलगे भितरिया संस्कार बा. भोजपुरिया रचना संसार में गांव-घर के मोहमाया बा त रोज़ीरोटी खातिर परदेसिया बने के बहुते रंग-रूप बा. ओह में बिछोह बा त बहरी दुनिया के संस्कार से लडे-भिड़े के जोर-जुलुम भी बा. बड़ी आसान नइखे एह सब से उबरल.
एने दू-तीन दशक से नया टेक्नोलॉजी के प्रभाव से बहुते बदलाव आईल बा. दुनिया के सब भाषा के रचनाकार लोग अपना के नया ढंग से परोस रहल बा. बाकिर ध्यान देबे के बात ई बा कि जवना रफ़्तार से टेक्नोलॉजी बदलेला ओहि रफ़्तार से पाठक लोग के मन-मुख ना बदलेला. जबतक नया पढ़े-गढ़े के विचार बनेला तबले रचना पुरान हो जाले, इहे कारण ह कि बढ़िया-बढ़िया रचनाकार लोग के समुझे में युग-यग लाग जाला.
भोजपुरी में बहुते विधा के माँजल रचनाकार लोग बा. एक से एक बेजोड़. बाकिर कवनो जरुरी ना कि सब केहू बढ़िया समीक्षकों होखे. काव्य रचना एगो प्रतिभा ह, बाकिर समीक्षा एगो ईमानदार नजरिया ह. एकरा खातिर अध्ययन-चिंतन आ निर्णायक विवेक होखल जरुरी बा. किताब क़े परिचय लिखल आ समीक्षा लिखल दूनो एके बात ना ह. अख़बार भा पत्रिकन में छप गइला भर से कवनो रचनाकार क़े बढ़िया मान लिहल साहित्यिक विवेक ना कहाई, काहें कि बहुते बेरी सम्पादक लोग बिना चहते छापे खातिर मजबूर हो जाला, इहे कारन होला कि लोग लिख देला कि ‘ई लेखक क़े आपन विचार ह.’ बात साफ़ बा कि लेखक क़े आपन विचार ह त रउआ काहें छापतानी! मतलब साफ़ बा कि पत्रकारिता आ साहित्य दुनो एके चीज ना ह, दुनो अलग-अलग विधा ह आ दुनो क़े मानक अलगे होला. एही तरे क्षेत्रीय भाषा के रचना के समीक्षा के मानक क्षेत्रीयता पर आधारित बा. एकरा खातिर जमीनी संस्कार से जुड़ल बहुते जरुरी बा.
अंत में भोजपुरी समीक्षा खातिर सबसे बड़ संकट बा एकरा भाषा के मानक रूप के लेके. मानक वर्तनी के सवाल के लेके बड़ी झंझट बा. बाकिर ई समस्या खाली भोजपिरिये खातिर नइखे. दुनिया में सबसे जयादा बोले जाये वाली अंग्रेजी के भी एके सरूप नइखे. ब्रिटेन के अंग्रेजी, अमेरिका के अंग्रेजी आ अपना देश के अंग्रेजी के मानक रूप तीनो अलगे बा. एही तरे हिंदी के भी बहुते रूप बा. एक बात जरूर बा कि दुनिया में संस्किरीते एगो अइसन भाषा बा जवना के मानक रूप सब जगे एके बा. त एहिजा हमार कहनाम बा कि भोजपुरी समीक्षा में भाषा के सवाल खाली सन्दर्भ के रूप में ही विचारे के चाही.
- शंकर मुनि राय