केहू दिवंगत हो जाला त आमतौर पर कहल जाला कि भगवान उनुका आत्मा के शांति देसु। हमार एगो कवि-मित्र कहेले कि बाकी लोग के त पता ना, बाकिर कवनो रचनाकार खातिर अइसन बात ना कहे के चाहीं। शान्त आत्मा से कवनो रचना त हो ना पाई आ ना हो पाई त बेचारा दुबारा मर जाई। कहे के अतने बा कि रचना अपना आपे में एगो उदबेग ह, आन्दोलन ह, कुछ उदबेगेला त ऊ आवेला आ आवेला त उदबेगेला। रचनात्मकता, चाहीं त कह लीं, कि आन्दोलित भइले-कइला के एगो आउर नाँव ह। चाहीं त रउरा गोरखनाथ से ले के गोरख पाण्डे तक आ आजतक भोजपुरी इलाका में रचनात्मक आन्दोलनन के जवन अनवरत सिलसिला रहल बा, तवनो प एह बहाने बतिया सकेलीं।
बाकिर, इहाँ भोजपुरी के रचनात्मक आन्दोलन के जवन जिकिर बा तवन ओकरा से कुछ हट-बढ़ के बा। साहित्य के दुनिया में प्रवृत्तियन के लेके क्लासीसिज्म, रोमैण्टीसिज्म, नियो क्लासीसिज्म भा छायावादी, प्रगति-प्रयोगवादी जइसन जवन आन्दोलन चलल करेला ओहू से कुछ हट-बढ़ के बा। भोजपुरी के रचनात्मक आन्दोलन से ईहो माने-मतलब मत लगावल जाय कि एह भोजपुरी भाषा-भूगोल में रचनात्मकता के कवनो कमी बा, जवना के पुरावे खातिर भा भरपुरावे खातिर भा एह भाषा-भूगोल के रचनात्मकता कहीं ओठँघल-अंउघाइल बा जवना के झोर-झकझोर के जगावे खातिर भोजपुरी के रचनात्मक आन्दोलन बा, भा ओकर जरूरत बा। ईहे रहित त गोरख, कबीर, धरमदास, धरनीदास से लेके भारतेन्दु, प्रेमचंद, प्रसाद से होत आजतक, साहित्य के एह इलाका में बरहो मास वाला बाढ़ के नजारा ना लउकित।
तब, भोजपुरी के रचनात्मक आन्दोलन तवन जवन रउरा से खलिसा ‘रचे’ के ना, ‘भोजपुरी में रचे’ के आ ओहू से बढ़ के, भोजपुरी में रचवावे के आ रचलका के सँचे से ले के सभत्तर पहुँचावे तक के निहोरा करेला आ मोका-मोनासिब निहोरा से बढ़ के जवन होला, कुछ-कुछ दरेरा देला लेखा, तवनो करेला।
ढेर दिन ना भइल, भारतेन्दु से ले के महावीर प्रसाद द्विवेदी तक आ बाद तक हिन्दी खातिर अइसन एगो रचनात्मक आन्दोलन के जरूरत महसूस कइला, कई माने में ऊ जरूरत आजतक बनल बा। ओह आन्दोलन के साथे तब्बो एगो गौरव के भाव जुड़ल रहे, अब्बो जुड़ल बा। ओह में भारतेन्दु लागल रहन त कवनो अपना सवारथ से ना, महावीर प्रसाद द्विवेदी लागल रहन त अपना सवारथ से ना, ना भारतेन्दु जी के लड़ाई अपना भोजपुरी खातिर रहे, ना द्विवेदी जी के लड़ाई अपना बैसवाड़ी खातिर रहे। अउरियो जे-जे लागल रहे एह आन्दोलन में, भा लगल बा, केहू प केहू ई तोहमत ना लगा सके कि ऊ अपना भाषा खातिर लागल रहे भा लागल बा। एकर एगो गौरव हिन्दी के रचनात्मक आन्दोलन के साथे रहलो रहे, बड़लो बा, रहहूँ के चाहीं।
भोजपुरी के रचनात्मक आन्दोलन के ई गौरव नइखे हासिल। हमन के बेधड़क स्वारथी कहल जा सकेला। अपने भाषा में रचे-रचवावे के बात एह आन्दोलन में कहल जाता। एकरा चलते तनी-मनी दयनीय मतिन भइल एह आन्दोलन के किस्मते में बा बुला। मुश्किल ई बा कि एह आन्दोलन के मकसद खलिसा ईहे नइखे कि भोजपुरी वाला लोग भोजपुरी में लिखो, ईहो बा कि अवधी वाला लोग अवधी में लिखो, मगही वाला लोग मगही में लिखो। स्वार्थी भइले के साथे स्वार्थी कइले के ई प्रयास हो सकेला कि हमन के कुछ आउर दयनीय बना देत होखे। कुछ भोजपुरिए लोग के, एह, हमन के दयनीय भइला के बात पर अतना भरोसा, आ अपना, भोजपुरी के छूट गइला आ छोड़ दिहला प अतना गुमान, एह छूट गइला आ छोड़ दिहला के ‘हिन्दी-हित’ में मान के अपना के परमार्थी पवला के अइसन अकड़ कि मोका मिलते ऊ लोग भोजपुरी ओजपुरी खातिर छिंकलो-खँखरला के हींक भ हँकड़ के हिन्दी-हित आ हिन्द-हित के खिलाफ, सी.आई.ए-ओ.आइ.ए के, के.जी.बी-ओ.जी.बी. के साजिश तक करार देत देर नइखे लगावत।
हमरा, साँच पूछीं त अइसन लोगन में से अधिकांश लोग के भोजपुरिया भइला प घमण्डे घनघनात रहे के मन करेला। एह लोग में से कुछ लोग त सचहूँ एह सोच से सप्तिसान रहेला कि सभे अपने-अपने भाषा के बतियाई त हिन्दी के का होई? हिन्दुस्तान के का होई! उन्हन लोग के सचहूँ ई डर सतावेला कि एसे हिन्दुस्तान बँटा जाई, सभे अपना-अपना मातृभाषा के आपन-आपन मातृभाषा कहे लागी, अपना-अपना निजभाषा के आपन-आपन निजभाषा कहे लागी त हिन्दी के, के रह जाई, हिन्दी कहाँ के रह जाई! ओह लोग के लागेला कि अंग्रेजी के मोर्चा प त हिन्दी लड़ते बा, ओकरा भोजपुरियो के मोर्चा प लड़े के परी, कन्नौजियो के मोर्चा प लड़े पड़ी त बडा भारी भितरघात हो जाई!
हम ना कहब कि ऊ लोग अइसन कवनो भोजपुरी-विरोधी साजिश के तहत कहेला, कन्नौजी-मेवाड़ी-मैथिली विरोधी कवनो साजिश के तहत कहेला। बात खाली अतने बा कि ऊ लोग समय के साथे नइखे रह गइल। एगो समय रहे जब अंग्रेजन के खिलाफ लड़ाई में सँउसे भारत के एगो आपन भाषाशस्त्र से लैस करे के रहे आ तवना खातिर सभे हिन्दी के एकरा लायक आ काबिल पा के ओकरा के साजे-सजावे में लागल रहे। एह काम में गुजराती के जवन गांधी जी रहन सेहू लागल रहन, बंगला के जवन सुभाष बाबू रहन सेहू लागल रहन। असहीं एह काज के कर्ता लोग में केहू भोजपुरी वाला रहे, केहू बघेली के रहे, केहू तमिल के रहे, केहू मलयालम के रहे। अइसना में आजादी मिलला के बाद अगर चाहल गइल कि हिन्दी एह राष्ट्र के राष्ट्रभाषा बने त ई वाजिब रहे, एह से जे हिन्दी में आ हिन्दिए में एह सँउसे देश के एके में बान्ह के राखे के बल रहलो रहे आ बड़लो बा। अपना एही कबिलाँव के बल प हिन्दी एह सँउसे देश के अंग्रेजन के खिलाफ खड़ा क देले रहे। बाकिर हिन्दी एह देश के राजभाषा बन के रह गइल, ऊ हो आधे-अधूरा आ राष्ट्रभाषा त तब ना बनल, अब ले ना बनल। काहे? काहे कि हिन्दी के जवन कबिलाँव रहे, सँउसे देश के एक में बान्हे के, तवना के भुला के लोग ई तर्क देबे लागल कि हिन्दी हिन्दुस्तान के सबसे जादे जन आ जमीन के भाषा ह, एह से एकरा के राष्ट्रभाषा बना हेल जाय। उत्तर प्रदेश, बिहार, मघ्यप्रदेश, राजस्थान वगैरह के मिला के हिन्दी के एगो बड़हन जमीन बतावल गइल आ एह इलाका के लोग अदबदा-अदबदा के हिन्दी के आपन मातृभाषा बतावे लागल। एकर फल मिलल। मान लेल गइल कि हिन्दी के आपन एगो बड़हन इलाका बा आ एगो बडा भारी जनसंख्या के ई आपन भाषा ह। त का भइल? बाकी भारत एह बड़ इलाका आ बडा भारी जनसंख्या के रोब में आ गइल? ना आइल, ना आई। कम-से-कम अब त ई समझ लेबे के चाहीं कि जवना हिन्दी में सँउसे राष्ट्र के भाषा बने के कबिलाँव बा तवना के रउरा प्रदेश के साथे बान्ह के – भले राउर प्रदेश उत्तर प्रदेश-बिहार-मध्यप्रदेश-राजस्थान के मिला के हतहत गो प्रदेश होखे – एह भाषा के साथे बड़ा भारी अत्याचार कइले बानी। अपना एह अत्याचार से हिन्दी के बचाईं। एह तरीका से रउरा हिन्दी के त भठइबे कइनी, हिन्दी प्रदेश के नाम पर एह प्रदेशन के कतने-कतने आपन भाषा सब के माटी में मिला देनी। अब बाज आईं सभे। एह बात के बूझीं कि हिन्दी एह देश के राष्ट्रभाषा बनी त अपना एक मात्र एह योग्यता से कि ऊ देश के दोसर कवनो भाषा लेखा कवनो एगो, एगो-दूगो प्रदेश के भाषा ना ह, एगो-दूगो जनपद के भाषा ना ह, सँउसे देश के भाषा ह। रउरा बाकी भारत के बतावे के परी कि हमनी के हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनावल चाहत बानीं त एह से ना कि ऊ हमार भाषा ह। हमार भाषा त भोजपुरी ह, मैथिली ह, अवधी ह, छतीसगढ़ी ह – ओसहीं जइसे राउर भाषा गुजराती ह, पंजाबी ह, तमिल ह, तेलुगु ह। हमनी के अपना भाषा के ना एगो दोसर भाषा के,
हिन्दी के, राष्ट्रभाषा बनावल चाहत बानी, रउरो अपना भाषा के ना एगो दोसर भाषा के, हिन्दी के, राष्ट्रभाषा बनावे के राह में मत आईं। अंग्रेजन के बाद के जवन ओकरो से बड़ल-बढ़ल भितरी गुलामी बा, अंग्रेजी के
गुलामी, तवना से तबे लड़ल जा सकेला जब राष्ट्रीय स्तर पर हमनी के अपना-अपना भाषा के बजाय एगो दोसर भाषा के, आगे ले आइब जा। ऊ कवन भाषा होई? हिन्दी के छोड़ के एह देश के दोसर कवन भाषा
बा, जवन एह देश के भाषा त ह बाकिर कवनो प्रदेश के भाषा ना ह? कवनो ना, बस हिन्दी आ हिन्दी आ हिन्दी। एकमात्र ऊहे एगो अइसन भाषा जवन एह देश में कहीं के पहिलकी भाषा ना हऽ आ एसे दुसरकी
भाषा हर कहीं के हइलो हऽ आ होखँहूँ लायक हऽ।
बाकिर एकरा खातिर पहिले ई बतावे के परी कि हमनी के अपना प्रदेश के भाषा ‘हिन्दी’ ना, कुछ आउर बा। हमनी के अपना कपार प लागल एह तोहमत के, एह दाग के, एह धब्बा के धोए के बा कि हमनी के अपना भाषा के राष्ट्रभाषा के रूप में देश पर थोपल चाहत बानी जा। एकरा खातिर हमनी के आपन-आपन भाषा के लउकावे के परी। आपन भाषा, ‘निजभाषा’ लउकी तब, जब बोलल-व्यवहारल जाई, ओकरा में लिखल-पढ़ल जाई – अतना जादे से अधिका से बहुतो-बहूत कि तह-पर-तह बइठल ई तोहमत जरी से छूट जाए। निज भाषा उन्नति खातिर भारतेन्दु बाबू के चेतवला के सैकड़न साल बादे सही, चेतल त जाय! एही चेतला के प्रमाण आ परिणाम के रूप में बा भोजपुरी के ई रचनात्मक आन्दोलन। रचीं, भोजपुरी में रचीं, रचवाईं, पढ़ीं आ पढ़वाई, रउरा हिन्दियो में रचीं, भगवान करस कि रउरा दुनिया भर के दोसरो-दोसरो भाषा सब में रचे पाईं, बाकिर भुला के ना कि रउरा हईं भोजपुरी के आ रउरा भले भोजपुरी ‘में’ नइखीं रचत, रचत बानी अपना भोजपुरिए ‘से’। भगवान करस, ऊ होखस चाहे मत होखस, हो सकेला कि ऊ होखबो करस आ नाहिंयो होखस, बाकिर अतना जरूर करस कि भोजपुरी के ई रचनात्मक आन्दोलन, कहीं मगही के रचनात्मक आन्दोलन के, कहीं मेवाड़ी के रचनात्मक आन्दोलन के अलख जगा देबे। केहू के कहियो-ना-कहियो त ई बुझइबे करी कि कवनो ‘अशोक द्विवेदी’ जइसन भोजपुरिया अपने रचला से जादे, अवरू-अवरू लोगन से रचवावे खातिर जवन जीव-जान-जाँगर जरावल करेला तवनो के कवनो माने-मतलब होला…।
- डॉ प्रकाश उदय