आन्हर बहिर गरहो से गहिर पोतले चन्नन उजरे पहिर। ओढ़ले कमरी लिहले गगरी बिष से भरल चललें डहरी। कुछहू बोलत सगरों डोलत सरम छोड़िके गठरी खोलत। कुछ के बटलें सभके कहलें मुँह पर ढकनी बन्हले रहलें। कउड़ा तपलें उलटा जपलें बाउर माहुर सोझहीं नपलें। करमें भगलें धउरे लगलें हाथ जोरिके मफ़ियो मगलें। राखीं दूरी मिलें त थूरीं जिनके मुँह राम बगल में छुरी॥ डॉ जे पी द्विवेदी संपादक भोजपुरी साहित्य सरिता
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