भारतीय सभ्यता में जीव के उत्पत्ति, बढ़वार आ विलयके सिलसिला में अन्न के अहमियत के पहचान असलियत के अनुभव के आधार प बा । तैत्तिरीयोपनिषद्(आनन्दवल्ली, दूसरा अनुवाक्) के कथन ह कि पृथिवी के आसरे जतिना जीव बाड़न ऊ अन्ने से पैदा होले, जीएले आ अंत में ओही में बिला जाले- “अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवीं श्रिताः । अथो अन्नेनैव जीवन्ति । अथैनदपि यन्त्यन्ततः ।”अन्नके उपज में बढ़ोतरी खेती के बेहतर प्रबंध के जरियहीं संभव ह ए से भारतीय सभ्यता में खेती के बहुत अधिक प्रमुखता दीहल गइल ।…
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बूड़ल बंस कबीर
1 तीन तिरिखा- देह, मन के, तत्त्व के। रूप-रस-धुनि-गंध-परसन तीर रहलन सत्त्व सारा देह के, आदिम समय से। भटक जाला बेबसी में अनवरत मन, भाव के फैलाव-घन में। चिर तरासा अस बयापल तत्त्व के बुनियाद में, कन परस्पर डूब रहलन तिश्नगी में। के कही कि के पियासल- नदी-जल कि माछरी? बेअरथ जनि हँस कबीरा। 2 छोटीमुटी गुड़ुही में बुलुकेला पनिया, छलछल गुड़ुही के कोर। पनिए से उपजलि नन्हींचुकी जीरिया, जीरिया भइल सहजोर। सातहूँ समुन्दर के सोखेली मछरिया मछरी में छुपल अकास। अँखिया में मचलेली नन्हीं-सी बुँदनिया, बुँदनि के मिटे न…
Read Moreदुरजन पंथ
(1) अकरुणत्वमकारणविग्रहः,परधने परयोषिति च स्पृहा। सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता, प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्।। – भर्तृहरि गसल निठुरता हद गहिरोर पोरे-पोर। पोंछ उठवले हरदम सगरी, सींघ लड़ावे के तत्पर। सकल उधामत चाहे करि लऽ जीति ना पइब कबो समर। अनकर माल-मवेसी, धनि पऽ निरलज आँखि उठावे, सुजन बंधु सन इरिखा पारे, दुरजन जान सुभावे। (2) दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङकृतोऽपि सन्। मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः।। – भर्तृहरि पढ़ल-लिखल भल सुकराचारी, ताने रहे। कतो बिछंछल मनियारा के कवन गहे? (3) जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं शूरे निर्घृनता मुनौ विमतिता दैन्यं…
Read Moreगिरगिट
सोझ हराई में साजिश के बुनत रहल बिखबेली जे, काहे दुन कुछ दिन ले भइया, बाँट रहल गुर भेली से। ढलल बयस तबहूँ ना जानसि अंतर मुरई गाजर के, रँहचट में सोना के सपना आन्हर काढ़सि काजर के। जेकर बगली फाटल रहुवे हाथे रखल अधेली से। जे बघरी में फेंकत रहुवे सँझहीं से कंकर पत्थल, अन्हियारे के मत्थे काने सबद पसारल अनकत्थल। आजु-काल्हु ना जाने काहे उलुटे बाँस बरेली से। जुर्जोधन के मत भरमइलसि ठकुरसुहतियन के टोली, जरल जुबाँ कइसे कस माने भनत फिरस माहुर बोली। गांधारी के आँखे झोंपा…
Read Moreनीति
तिन्हकर घर सुख चैन रहे जहँ धी सुधिया, तिअई सुमुखी। भृत्य भरोसी, इच्छित वित्त, धनी अपनी सबरंग सखी। अतिथि सेव, देव पूजन नित, मधुर अन्न-रस की जिवनारी, बितत नित्य साध के संगति जीवन धन्य उहे घरुआरी। जवनि हाथ दान नहिं जाने स्रवन सहे नहिं सुक्ति उदेसा। दरस साध आँखि अनजानल, पैर भ्रमे ना तीरिथ देसा। धन अकूत अरजे अनरीत, भरल पेट सिर तुंग गुमाना रे नर लोमड़ सहसा त्याग नीच देह अघ के पैमाना। करइल गाछ न लागे पात दोखी का मधुमास रामजी! दिन चढ़ते उरुआ चुँधियाय का सूरज उपहास…
Read Moreभोर के गद
मूठरी घाम गुलेट खोंस गइल ह जंगला के फाँक में अखबारी टेल्हा सूरुज कुछ अगिते। एगो चिड़ा ओरी त झूलत नसेनी प पसार रहल बा प्रेम। अनमुन्हे के फींचल गँड़तर हरकऽता। पाँख छितनार मूरुख चिड़ी खोज रहली ह गूलर के फूल। फिजूल। सकल कपट अघखानि सकल पँड़या सरबजनिक नल प बलटियन पानी छछरावत गावऽता बेहया अस- “रधिका औगुन चित न धरऽ।” “ढकरचाँय-ढकरचाँय, कील खिआ गइल साइद, तेल डाल, खोंट बा का काने? कवन एकटंगे ठाड़ बिया होने घूघ तान, बहरे से आके? उजबक अस। गड़ही का पानी सूख गइल का?…
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