आदत से लचार आ मानसिक बेमार

का जमाना आ गयो भाया,साँच के साँच कहे भा माने में नटई से ना त बोलS फूटता, आ ना त बुद्धिये संग-साथ देत देखात बा। ऐरा-गैरा,नथ्थू-खैरा सभे गियान बघारे में लाग गइल बा।गियान के सोता चहुंओर से फूट-फूट के बहि रहल बा।अजब-गज़ब गियान, न ओर ना छोर बस बहि रहल फ़फा-फ़फा के। मने कतों आ कुछो। लागता कि सगरे जहान के गियानी लोग मय गियान के संगे इहवें कवनों सुनामी में बहत-बिलात आ गइल बा आ ओह लोगन के गियानों में एह घरी सुनामी आ गइल बा। खाली गियाने तक के बाति रहत तबो एगो बाति होत, रामलला के दरसन खातिर नेवतो चाहत बा आ उहो ठुकरावे खातिर । अब देखल जाव त उहो नेवता माँगत देखाइल, जे अपना भर जिनगी रामलला के काल्पनिक मानत रहल ह। रामलला के काल्पनिक सिद्ध करे खातिर करियवा कोट के फउज जुटवले रहल। भलही ओह फउज के दुरगति हो गइल होखे घुमची लेखा। रउवा सभे घुमची के त जनते होखब । ना जानत बानी त हमही बता देत बानी।पहिले जंगल में एगो टह टह लाल छोटी चुकी फर होत रहे। अपना ललाई के आगे केहु के कुछो ना बूझस, ई अकड़ उपरो वाला से ना देख गइल। एक दिन जंगल में आग लाग गइल आ जब आग बुझल त घुमची के पिछवाड़ा आगि में झंउसा के करिया हो गइल रहे। तबे से आजु ले पिछवाड़ा करिया के करिए रहि गइल। तबों कबो-कबो घुमची अपना ललाई के सान बघारिये देले। बेचारी घुमची आदत से लचार बिया। हम बाति करत रहनी ह नेवता के। कुछ लोग त अइसनो भेंटाइल, जे नेवता देवे वाला लोगन के चीन्हे से मना कर देलस। कुछ लोग त नेवता मिले के पहिले से मन बना के बइठल रहल ह, कि जाये के त नइखे तबो बिचार कइल जाई। अइसनका लोग बिचारे करत रह गइल, तले रामलला के प्राण-प्रतिष्ठों हो गइल आ रामलला अपने भक्तन के दरसनो देवे लगलें। उ लोग अब ई कहे लागल बा कि जब रामलला बोलइहें त हमनियों के जाइले जाई। ई उहे लोग ह, जे ई क़हत ना थाकत रहे कि –

“रामलला हम आयेंगे

मंदिर वहीं बनायेंगे

पर तारीख नहीं बतायेंगे।’’

लोग आइयो गइल, मंदिरो बन गइल आ प्राण प्रतिष्ठों हो गइल। उहे लोग अब खिसियाइल बिलार लेखा अलगे रट लगवले बा। ओह लोगन के अब ई क़हत-क़हत मुँह फेफरिया जात बा कि ‘ राम हमनियों के हउवन’ आ ‘राम कन-कन में हउवन’ । अब ई सुनी –

“हमनियों दरसन करे जाइब

बाक़िर तारीख ना बताइब ।’’

बुझाता गरवे में मछरी के मोटहन काँट अटक गइल बा भा कउनों अउर जीवा-जंत के हाड़ फँस गइल बा, का कहल जाव।

जहवाँ के लोगन के सांस-सांस में आ कन-कन में राम बसल होखें, उहवें कुछ टिनहिया लोग अपना दोकान-दउरी का फेरा में कुछो अकबकाई त जनता जनार्दन के कतना ले सोहाई। ई त राम जानै। जब कवनों बाति भा केहुओ के चाल-चरित्तर जनता जनार्दन के ना सोहाला, फेर जनता सोर उपार देवेले। अबरियो बुझाता कुछ लोगन के सोर उपरे के महुरत नगीचा गइल बा।

प्राण प्रतिष्ठा भइले अबहिन दुइयों-चार दिन ना बीतल कि अपनही में लोगन के भूभुन फोरउवल चालू हो गइल। जेतने डफली ओतने राग। ढेर लोग दिनही सपनाये लागल बा मुंगेरीलाल लेखा। सुने में त इहो आवता कि सूत्रधारे मयदान छोड़ के परा गइल। बेगर सूत्रधार के नौटंकी कइसे होखी, ई त समये बताई।

एही में भुंवरी काकी के बेटहना मने मनराखन पांडे नवा-नवा आविस्कार कर रहल बा। ओकर एगो अविस्कार ‘आलू से सोना बनावे वाला’ पहिलहीं से बजार में रहबे कइल ह। एह घरी भुंवरी काकी के बेटहना कवनों न्याय जतरा करता, एही जतरा में एगो नया अविस्कारो क  देले बा, कोइला से स्टोप  जरावे के। सगरे वैज्ञानिक लोग आपन-आपन बार नोचे लागल बा। एक जाने त इहो क़हत भेटइलें ह कि भुंवरी काकी के बेटहना पर कवनो ऊपरी चापरी के चक्कर बुझाता। अब ओझा-सोखा लोग के दिन लउटे वाला बा। ई सुनते तिवारी बाबा कहलें कि दिन लउटी कि अन्हरिया रात होखी, ई त बाद में बुझाई। रउरा सभे के तिवारी बाबा इयादे होखिहें, उहे पान के दोकान वाला, जवन अक्सरहाँ चूना लगावत रहेलन बड़-बड़ लोगन के।

एह घरी बुद्धू बकसवा में लेवरन पोत-पोत के बोकरत-चोकरत ढेर लोग लउकत बाटें। गियान के सुनामी चलता नु। ओहने में से एक मिला कतने गो राम के गनावत रहे आ पूछत रहे कि ई मंदिरवा कवना राम के बनल ह। ओकरा संगही एक जना ओकरा कुल्हि राम के तरक का संगे एक्के गो बता देलन। ओह चरचा के सुनते तिवारी बाबा चहक के बोललें, कि जेतने हेहर–थेथर बाड़ें सन, ओहनी के ओतने रंग के बकवासो बा। नीके अयना देख लेलन राम के परकार गिनावे वाला लोग। तिवारी बाबा कहलें कि इहो बुझाता मनराखने पांडे के चेला ह। अरे उहे मनराखन पांडे अपने भुंवरी काकी क बेटहना।अरे भइया, अबहिन कुछ दिन पहिला कादो मोहब्बत के दोकान खोलले रहल ह। एह घरी कवनो नवी दोकान खोले के फेरा में लागल हवे मनरखना। दोकान खोलल आ ओकर लुटिया डूबावल मनराखन पांडे के बेरासत में भेंटल बा। रउवा सभे त जनते बानी, आपन बेरासत भला केहु छोड़ेला। ई कुल्हि देख-सुन के अब त ढेर लोग मनराखन पांडे के आदत से लचार आ मानसिक बेमार कहे लागल बा। रउरा सभे क जवन मरजी होखे क़हत रहीं , हम त एह घरी मौन बरत रखले बानी।

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

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