भुकभुकवा के राग भैरवी

का जमाना आ गयो भाया, लोग-बाग बेगर सोचले-समझले कुछो नाँव राख़ लेत बा आ फेर अपढ़-कुपढ़ लेखा गल थेथरई करे में लाग जात बा।फेर त अइसन-अइसन विद्वान लोग जाम जात बाड़ें कि पुछीं मति। अरथ के अनरथ आ अनरथ के अरथ के घालमेल में असली बतिये बिला जात बिया। अबरी त साँचों में असली मकसदे बिला गइल। रोज नया-नया लोग आवत बाड़ें आ गाल बजा के, राग भैरवी कढ़ा के अपना-अपना खोली में ओलर जात बाड़ें। फेर त ढेर लोग चौपाल सजा-सजा के नून-मरिचा लगा-लगा के परोसे में जीव-जाँगर से लाग जात बाड़ें।ई एगो अलगे मिजाज के चंडाल चौकड़ी होले, जवन सगरों बेगर मोल के बिकात रहेले। अब जब चंडाल चौकड़ी के बात चलिये रहल बा, त एहू चंडाल चौकड़ी के जानल जरूरी ह।

ई नवकी चंडाल चौकड़ी अपने राग भैरवी के संगे मय साज-बाज के जुटल बिया। चार दिन से अनथकले गाल बजावत चंडाल चौकड़ी के चौपाल देखिके ओकरो सरम आ गइल होई, जे सरम के घोर के पी गइल बाटे। फेसबुक पर लमहर-लमहर छोड़े वाला लो खूब पैरब्बी लगावल, बाकि ओह लोगन से गम्हीराह काम जेकर रहल, ओकरे के सम्मान भेंटाइल। जवना संस्था के जातिवादी आ दूका दूका बोलत ना थकलें, ओह संस्था के लोगन से अपने खातिर फोन करावत बेरा लाजो ना लागल। बोल-बोल आ निहोरा क क के जे समारोहन के हिस्सा बने खातिर बेकलाइल रहेला,ओकर ई कहल कि हम चिमटा से अइसन सम्मान के ना छुएम,पढ़ि-सुनि के सरमों के सरम आ गइल होई। बाकि बेसरमी के मुगलई घुट्टी बेजोड़ बा। ‘घुमची के एथी जर गइल आ सान ओतने बा’ के कहाउत चरितार्थ करत लो इस्थिपा भेजत रहल, बुझता इस्थिपवा समाजवाद लेखा हाथी से आई कि घोड़ा से अबही पते नइखे। अइबो करी कि फुस्स हो जाई, कुछो कहल ना जा सकेला।

पछिला कई बरीस के मन में बनल तसवीर दरक गइल। कहाँ त सोचल ई जात रहे कि लो उदार मन से साहित्य के सेवा में लागल बा बाकि ई कुल्हि देखला का बाद असली चेहरा उजागिर हो गइल।

 

गाल बजावत चकर चकर

चंडाल चौकड़ी डगर डगर

सभका के मुँह बिरावत बा

देखS सोझही भरमावत  बा।

 

मान-ज्ञान कतनों होखे

संस्कार कहाँ उनुका रोके

सब घोर घार के पी गइलें

साचों में राहू जी गइलें।

जे एने-ओने से टीप के लिखलेस भा लिख रहल बा भा गा रहल बा, जेकरा मगज में जात-पात के किरौना पइस गइल होखे, ओकरा के दोसरा के कइल काम कबों ना बुझाई, अभियो नइखे बुझात। हम त अतने कहेम ‘हाथी चले बजार, कुकुर भोंके हजार’। बात त इहे बा कि कतनों पुचकरला का बादो कुकुरा के भोंकल छूटत नइखे,अब नइखे छूटत त मति छूटो। ओकर एह आदत से ढेर लोग वाकिफ बा। एक जाने त क़हत रहलें ह कि कुकुर के भोंकल ओकर दरज होत हाजिरी ह। अब हाजिरी के बात बा, त हाजिरी बनही के चाही। हाजिरी ना बनी, त दरमाहा पर बन आई। रोटी-पानी पर बन आई।

सोझही दोसरा के लिखलका के नकारे वाला लोग, दोसरे के लिखलके उल्था क के बड़का साहित्यकार बने में लागल बा। ढ़ोल पीट-पीट के मजमा जुटा रहल बा, मजमा में लोग जुटियो रहल बा। आन के सतुआ, आन के घीव वाली बात में अइसने होला। भुकभुकवा के राग भैरवी अनथकले आपन सुर लहरी बिखेर रहल बा।ओह सुर-लहरी के सुन-सुन के कुछ लोग मगन होके अतिरा रहल बा। कुछ लोगन के बिन मंगले मुराद भेंटा गइल बा। का कहबा महाराज ! ई देसवे अइसन ह, जहवाँ सभे के दाल गल जाले। कबों-कबों भुकभुकवो के दाल पथराये से बाच जात होई। मने दाल गल जात होई। ओतने से खुस होखे के बा त बा। कादों एक-दू बून खून के बढ़न्ति भेंटा जात होई। साफ-सोझ लिखलका कुछ लोग पढ़ियो ना पावेला, तबो कादों प्रकाशक के तमगा गला लँगोट लेखा लगवले डोलत फिर रहल बा। तमगा त तमगा ह, जहवाँ टांगेम ,टँगिए जाई। टँगल बा त टँगल रहे दीहीं, ढेर कुछ टँगल रहेला, एगो इहो सही। कुछ लोगन के ओह टँगल तमगा के देखे में कुछ समय बीती, ढेर लोग समय बितावे खातिर इहाँ अइबो करेला। कम से कम समय बितावे वाले लोगन के भला हो जाई।

पता ना भुकभुकवा के राग भैरवी के भला होखी कि ना होखी बाक़िर रउवा लोगन के ई त बुझाइए गइल होखी कि कब कवन राग छेड़े के चाही आ कब कवन राग अलापे के चाही। अगर अभियो ले नइखे बुझात, त बूझे के परयास करत रहीं। फेर भेंट होई।

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

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