हमार भउजी !

हमार भउजी शहर से आइल रही, गांव के रीत-रिवाज ना जानत रही. सब कुछ उनका खातिर नया रहे. एक से एक सवाल करटी रही. गांव के लइकी उनका के पटनहिया भउजी कहत रही सन. भउजी खाये-पीये के बड़ी सवखीन रही. भोजपुरी में अइसन अदिमी के खबूचड कहल जाला. भउजी ना जानत रही कि अनाज कइसे उपजे ला.

फागुन के महीना रहे, होरहा-कचरी के दिन. आजी कहली की कनेऊआं के कचरी खियाव लोग, का जाने खइले बिया कि ना ! बनिहार एक पंजा कचरी लेया के अंगना में पटक देलस . भउजी देखली त चिहा के कहली कि के त चना के फेंड उखाड़ के ले आइल बा! आजी सुनली त हंसे लगली आ कहली कि बऊराहिन हउ का ? ई कचरी न ह! फेंड काहें कह्ताड़ू ? कुछ दिन बाद खरिहान में दंउरी शुरू भइल आ अनाज के ढेरी लागे लागल. बूंट ढोवात रहे, अंगना में रहिला, केराय, गेहूँ, मटर, तीसी आवे लागल.

भउजी खदोना में चार आना के चना किन के खइले रही, एक बेरी बूंट के ढेरी देख के चिहा गइली आ पुछलि कि एह गांव में चना के कारखाना बा का? बुढ़िया आजी सुनली त कहली कि ई बऊराहिन कनियाँ कहाँ से ले अइल सन रे ! तले काकी कहली कि दुल्हिन पटनी पर झरना बा ले आव त झार दीं, तोरिया में तीसी बुझाता! भउजी पटनी ना सुनले रही, आ झरना जनली कि नदी-पहाड़ पर बहे वाला झरना ह! भकुहाइल रही सुन के! हम झरना लेआ के दे देनी . काकी अनाज झारे लगली, तीसी अलगे आ तोरी अलगे! भउजी अचरज में परल रही ई सब देख के! कहली कि ई त बड़ी निमन मशीन बा जी!

गांव में दूकान रहे ना, एह से हित-नाता के अइला-गइला पर पानी पियावे खातिर मिसिरी , बतासा, संच के धरात रहे. एक दिन भउजी चाची के घर में देखली कि बरनी में मिसिरी आ बतासा भर के धईल बा. मिसिरी, बतासा के अइसन सजावट ऊ दुकाने में देखले रही. उनका खाये के मन करत रहे. एक दिन मुट्ठी बन्हले चाची भिरी गइली आ उनका के एगो एक रोपेया के नोट देखा के कहली कि चाची हमरा के आठ आना के मिसिरी आ आठ आना के बतासा दे दिहीं त, बहुते दिन हो गइल, मीठा खाये के मन करता! ई सुन के चाची कपार पीटे लगली आ कहनी कि ई कनियाँ घर में अलगई करा के रही…. आरे! तूँ हमरा के सहुआइन बुझले बाड़ी का रे? बिपती ! तोरा जतना खाये के बा ओतना भकोस, ई कवनो दोकान ना, तोर घर ह! ओह दिन से भउजी खाये शुरू कइली आ तीन दिन में दूनो बरनी साफ़!

हमनी के मिठाई खाये के तब मिलत रहे जब केहू हित-गन आवत रहे. एगो मिठाई में टुकी-टुकी कर के सब लइकन के दियात रहे आ बचल मिठाई मेहमान लोग खातिर धरा जात रहे. एक दिन भउजी के बाबूजी अइलन त एक डिब्बा मिठाई ले आइल रहन. आजी सबका के बांटत रही –टुकी-टुकी! भउजी के एगो सँउसे दे दिहली ई सोच के कि उनका मीठा ज्यादा पसन ह! बाकिर भउजी के नजर रहे पूरा डिब्बा पर. जब आजी डिब्बा के बचल मिठाई ले के अपना घर ओरी चलली त भउजी के ना रहाइल…बोलिये दिहली..अतना मिठाई रउआ अकेले खाइब! हमार पापा हमरा खातिर ले आइल बाड़न! अतना सुन के आजी सँउसे डिब्बा उनका के थम्हा डेली आ कहली कि ले अपना बाप के तिजोरी ! सब केहू हंसे लागल आ भउजी डिब्बा लेके अपना घर में!

होली के दिन रहे. गांव के लइकी होली खेले आइल रही सन. आ कहली सन कि नयेकी भउजी से होली खेले के बा, केने लुकाइल बाड़ी, बोलाव जा! भउजी कल घर पर नेहात रही. लइकिन के आवाज सुनली त ओहिजे से कहली कि— नेहा कर आ रही हूँ, आप लोग बैठिये! नउनियाँ आइल रहे गोड़ रंगे, सुनलस त हंसे लागल आ कहलस कि एहिजा नेहा के ना होली खेलल जाला, होली खेल के नहाइल जाला! जल्दी करीं, बहरी निकलीं ना त लइकी लोग लसार दिहन जा! भउजी परदा हटा के अबे झांकते रही कि लइकिन के झुण्ड भीतर घुसल आ ओहिजे लसार-पसार के लुगा-झूला फार के ठहाका लगावत बहरी ! सब केहू हँसत- हँसत लोटपोट भइल रहे. गांव के एगो लइकी गावे लागल—‘अंगना में आइल बहार भउजी!’

ओने भउजी कल पर (नहान घर में ) सुसुकत रही, बहरियो निकले के साउन्ज ना रहे उनका! मगहिनियाँ चाची टोन मारत कहली, बहरी निकल कनियाँ, सब केहू पुआ खाता, लूगा-फाटा पहिरले बाड़ू कि ना? भउजी खिसिन बुत्त रही, खिरकी से झांक के कहली–”एह लंगटा-लंगटिन के गांव में लूगा-फाटा के अब का जरुरत बा!”

बाबा अंगना में अइलन तब आजी सब खिलकट सुनवली, तब बाबा मुसकाते-मुसकाते कहलन कि होली में त ईहे कुल न होला! तले भउजी टुभूक डेली–”कवनो जानी के हम अपना गांव में बियाह ना होखे देब!”

 

  • शंकर मुनि राय ‘गड़बड़’

 

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