गाछि ना बिरिछ आ सुझेला हरियरी

पहिले चलीं जा गाँव घूम आईंजा।खेत – बधार के छोड़ीं महाराज घरे – दुआरे, आरे – पगारे, नदी – नाला के किनारे, मंदिर के अंगनइया, ताल – तलैया – नहर के पीड़ प,सड़कि के दूनों ओरि, कहे के माने जेने नजर दउराईं गाछि – बिरिछ, बाग – बगइचा लउकत रहे गँउवा में, धान- गेहूं- बूंट- खेसारी से भरल हरियर खेतन के त छोडीं। हरियरी के माने ई होला।गाँव से सटलको टोला ना लउकत रहे बगइचन के कारण।गँउवा आजुवो ओहिजे बा बाकिर गाछि – बिरिछ – बगइचा गायब। रसोइयो में साग – पात के बाति छोड़ीं, तीयन – तरकारी माने अपना खेत – खड़ी में उपजल हरियर तरकारी होत रहे।जहँवा देखीं तहँवा हरियरी। घर के उपजावल बिना खाद – पानी के हरियर फल – फूल – तीयन – तरकारी खाये के मिलत रहे,आँखि के सोझा हरियरी रहत रहे त मनई के मनो हरियर रहत रहे,पियरी रोग त दूर रहते रहे बाचा।आजु हरियरी गायब तब नू पियरी – सुगर – बी पी – हृदय रोग आके हमनी के देहिया में घर बना लेलस। जेकरा छप्पर पर हरियय लत्तर ना बूझीं कि ऊ घर गाँव छोड़ि के पलायन कर गइल बा,गाँव ऊ रहे बबुओ। हरियरी भागल त मनइयो के पलायन बढ़ि गइल, गँउवो सून होत जात बा। हरिहर बाबा कहले कि गाछि – बिरिछ काटल पाप ह ओहनी के सराप भगवानो से बढ़ के होला, कहीं के ना छोड़े। भगवान के नाम आइल त बता दीं वनस्पति के रक्षा आ महता के बात वेद – पुराण – कुरान के नइखे कइले बाकिर मतिसुन्न मनई भौतिकता के दउड़ में अपना आगे कहाँ केहू के लगावेला। हमहूं पगलाइल नू बानीं गाँव में हरियरी खोजत बानीं।अब त बोले – बतिआवे वाला लोग भेंटाते नइखे,कतना घर में दिया बाती,सँझवत होते नइखे।गाँव आजु बिना केयर टेकर के वृद्धा आश्रम के रूप ले लेले बा,बाबा – दादी, बाबू – माई के आश्रय दाता के रूप में।अब आपन जांगर ढोअल मुसकिल बा त ऊ लोग खेत – बधार हरियरी के चक्कर में का रहो।

अब आईं तनी जंगल – पहाड़ घूम आवल जाव। काश्मीर से कन्याकुमारी आ राजस्थान से अरूणाचल तक के पठारी इलाका जंगल से भरल रहे। सघन पेड़ – पौधा से भरल ओह भू भाग में सूरज के रोशनी के जमीन खोजे में बड़ी मेहनत मशक्कत करे के पड़त रहे। पेड़ पौधा से भरल जंगल के हरियरी देखत बनत रहे। फ़ुरसत मिलते शहरिया कंक्रीट के जंगल में रहे वाला लोग जंगल पठार के ओरि भाग आवत रहे। जंगल के खूबसूरती के जाल में फँसि कतने लोग शुद्ध हवा – पानी आ प्राकृतिक सौंदर्य के आनंद के फेरा में ओहिजे बस जात रहे।साधु संन्यासी शांति के खोज में जंगल पहाड़ के आश्रय लेत रहे। जंगल माटी – पानी के संरक्षक ह भाई। जंगल खाली हरियरी के खान ना बन जीव आ आदिवासी के मकान ह। आदिम जनजाति के पहचान ह। मनई के सांस के बथान ह। बाकिर आजु मनई खुद अपना हाथे कुदरती हरियर जंगल के उजाड़ अपना के मौत के खाई के नजदीक ले जा रहल बा तेजी से। मनई के सह-अस्तित्व के पाठ पढ़ावे वाला जंगल अपने अस्तित्व के बचावे में फेल हो गइल मनई के मनमानी के आगा। होश आइल तब जंगल बिला गइल, पहाड़ उधिया गइल।अब रउवा कहब कि बड़ बुड़बक बनावत बा बात बनाके कहीं पहाड़ उधियाला? झारखंड हाईकोर्ट गोवाह बा भाई। एगो पीआईएल भइल रहे झारखंड के गायब भइल पहाड़ पर। अब त मानब हमार बतिया। आजुवो ईडी लागल बा ढेर जगहा गायब भइल पहाड़ के खोज में। रउवा कहब कि पत्थर पहाड़ के हरियरी से का लेना – देना बा? लेन – देन बा हरियरी से काहे कि पहड़वन सभ हरियरी से तोपाइल रहन स बाकिर हमनी का ओकरा के नंगा कर देनी जा।अतनो पर अत कहाँ रूकल पहड़वो के तुड़ के कंक्रीट के जंगल खड़ा कर देलस मनई। विकास बाबू के रोड – रलवई – डैम खा गइल पहाड़न के। हिमालय दरक रहल बा। पहाड़ – जंगल ना रहल त नदियन कहाँ रहिहें स। पहाड़ लूटा गइल अब बालू लूटात बा, सभे चुप्पी धइले बा।ई चुप्पी घातक बा भाई। हमनी का आपन अनुभवो से ना सीख लीं जा।देखल ह कि जंगल उजड़ल त जंगली जानवर गाँव से घुस आइल।मनई – बन जीव में रोज ठन जात बा।दोष बन जीव के ना हमनी मनई के बा जे ओहनी के घर जंगल उजाड़ देलस।

गाछि – बिरिछ के आपन दुख केकरा से कहो? के ओकर बात समझी? ओकर बतिया समझे खातिर हरियरी के भाषा सीखे के होला, ई हम नइखीं कहत कह रहल बाड़े कुमार बृजेन्द्र ‘पेड़ से संवाद ‘ करत एह कविता में।

“आप किसी पेड़ से

संवाद नहीं कर सकते

कुमार बृजेन्द्र।”

काट सकते हैं उसे/ तोड़ सकते हैं फूल, फल/ तने से बनवा सकते हैं – कुर्सी/ मेज/ दरवाजे और खिड़कियां! ” पर पेड़ से संवाद नहीं कर सकते।‌ क्योंकि,

गंध और सृजन का पताका है पेड़/ पोस्टमैन की चिट्ठी बांटता/ पोस्टमैन की ठहरी सायकल है पेड़। ” पेड़ से आप संवाद नहीं कर सकते क्योंकि ” पेड़ ज़मीन से जुड़ा है/ आप से भी गहरा/ वह न गूंगा है न बहरा। ” संवाद तब कर सकते हैं जब ” आप उसकी हरी-भरी गंधवाली भाषा सीखें ।

हमनी का चलीं जा हरियरी के भाषा सीखे तब जाके गाछि – बिरिछ से बात कर ओकर दुख समझ जाइब जा। ओकर दुख आपन दुख ह।गछियन से संवाद स्थापित कइल जाव।

जंगल लूट के छूट आ गायब हरियरी के कहानी अबहीं अधूरा बा। जंगल लूट के खुला छूट प रोक खातिर कानून बनल ‘ बन संरक्षण अधिनियम १९८०’। लूट प रोक का लागी विकास बाबू वैश्वीकरण बाजारवादी चुंगल में फँस उदार हृदय से जंगल के कागजी मालिकाना रख के छूट दे देले कि पहिले आव पहिले पाव, जंगल काटि उद्योग लगाव। पहिले त गाछि – बिरिछ गायब भइल,अब जमीनवो गायब हो रहल बा।रक्षक भक्षक हो जाला त बांची का बबुओ ई जानल ह। एगो जंगलात विभाग बा बन बचावे खातिर।कहला के बन हइये नइखे त जमीन रह के का करी। उद्योग लागी त रोजगार मिली स्थानीय के।पढ़नी ह नू कि आकाशे में छेद हो गइल। मौसम गरमाता।अब रउवे बताईं कि ओजोन लेयर अतना ऊंच बा त नीचे से केहू लग्गी से खोदि के त ना छेद कर दी। भाई जंगलवा कट गइल,हरियरिया गायब हो गइल, करखनवा दिन रात धुंआ उगलत बा त कहाँ से पर्यावरण बांची। ओजोन लेयर में छेद के कारण करखनवन से निकलत धुआं आ बिगड़त परिवेश बा। हरियरी रहल ना तब त आजु बाति हो रहल बा ग्रीनरी के चारू ओरि – ग्रीन गैस, ग्रीन एक्सप्रेस वे, ग्रीन कारीडोर, ग्रीन पाली हाउस, ग्रीन टायलेट, ग्रीन बिल्डिंग, ग्रीन पार्क, ग्रीन स्टेशन, ग्रीन व्हेकिल….। हमरा ना बुझाइल कि सब कुछ हरियर आ हरियरी कतहूं ना,ई कइसन हरियर। हमरा ना बुझाला त मोराबादी स्वध्याय में बइठल चेतन बाबा किहां चल जाइना समाधान के आस में। हमार सवाल सुनते उखड़ गइले आ कहले बाचा हो जवन कुदरती चीज चल जाला ऊ जल्दी ना भेंटाय। ई सरवा सब सावन के आन्हर हवन स, एहनी के आँखि प हरियर पट्टी लागल बा,कलर ब्लाइंडनेस के शिकार बाड़न स एह से सब हरियर लउकत बा।सब हरियरी खा गइलन स आ अब कागजी ग्रीन सर्टिफिकेट बांटत बाड़न स।का रहे राँची के मौसम,का हो गइल।ई सब हरियरी गायब भइला के फल ह।हइसे जंगल लूटाला।सब खेल हमार आँखि के देखल ह।।हरियरी बढ़ावे के चक्कर में जमीन पर हरियरी नइखे बढ़त, कागज प के बात हम कइसे बताईं।ई ग्रीन आ इको शब्द आजु फैशन हो गइल बा। साहित्यो में इको पोयट्री के फैसन बा। जमीन पर जंगल खतम हो गइल त कागजे पर नू रह जाई।इको टूरिज्म के चलन आइल ह बचलको जंगल के उजाड़े खातिर। हमरा से मुँह जनि खोलवाव ना त सब उघट देब।चलल बा लोग विश्व वानिकी दिवस, विश्व पृथ्वी दिवस, विश्व पर्यावरण दिवस, बन महोत्सव, बन जीव सप्ताह मनावे।उहो सब जमीन पर कम कागजी बेसी।अब त कागजो पर ना बबुओ आभासी पटल प, डिजिटल जुग नू ह। एलिवेटेड जंगल लगावत बा लोग,रूफ टॉप प्लांट लागत बा। जमीन पर त कंक्रीट जंगल उग आइल अब दूसर कवनो उपाय नइखे।इहे नू कहाला गाछि ना बिरिछ आ लोग के सुझत बा हरियरी। तोहार लिखलका हमरा इयाद पड़ जाला धधकत सुरुज पियासल धरती,दरकत हिमालय, जंगल के हतेया, बाकिर हतेयारा सुनऽ स तब नू,चेतऽ स तब नू।ठीके कहले बाड़ कि अइसे काम ना चली ‘ हरित उलगुलान ‘ ले आवे के होई, बिरसा के फेर पैदा होखे के होई, जंगल के अधिकार आदिवासी,आदिम जनजाति के देवे के होई। प्रकृति के ओतना नजदीक से ओहनिये के देखले बाड़न स, जंगल के रहवइया जंगल के दरद बुझेला, जंगल के पूजेला। हरियरी ओकर जिनिगी ह, हरियरी के मोल बुझेला।

बतिया त चेतन बाबा ठीके कहत रहन।हमरो बाबा, अब एह दुनिया में नइखन,कहत रहन कि हरियरी धरती के सिंगार ह आ हमनी के धरती के बेटा। धरती माई हियऽ, धरती धन ह। हरियरी विहीन धरती बिधवा के मांग जस लागेला। हरियरी के मोल जेह दिन मनई ना बूझी धरती मू जाई,मनई अनाथ हो जाई।हरि भइयो ना रहले बाकिर आजु उनकर कहलका इयाद पड़त बा।जल, जंगल , पहाड़ आ धरती के आपसी संबंध पर उहां के कहले बानीं कि –

 

धरती के देहियाँ कै गहना पहड़वा

पेड़ परिधान  करैं  धरती सिंगरवा

पनियाँ से सबही कै चले जिनगानी

कइसौं बचायला पहाड़ -पेड़  – पानी ।

बाजारवाद आ वैश्वीकरण के अँगनइया में खड़ा कंक्रीट बन में नाचऽ,उडऽ मर्सिडीज पर खूब ।ऊ दिन दूर नइखे पीठ पर आक्सीजन के सिलिंडर होई आ नाचत – नाचत गिर पड़ब धरती पर, फड़फड़ा के मर जइब। हरियरी सुझत बा बिना गाछि – बिरिछ के ई ढेर दिन ना रही।अत केकरो रहल बा? बाप – दादा तोहरा जस अंग्रेजी मीडियम में ना पढ़ल रहन, स्कूल के मुँह ना देखले रहन बाकिर लोक के पढ़ले रहन,वेद के सुनले रहन आ का कहलऽ तू लोगिन ‘ सस्टेनेबल उपयोग ‘ ओ घरी कहात रहे ‘कामे भ दोहन, करीहऽ हो मोहन ‘ के बतिया दिमाग में रखत रहे, वनस्पति के अनमोल खजाना लूटत ना रहे सदुपयोग करत रहे लोग। विकास बाबू सुनत होखीं त बूझीं अबहूं आ ‘ सस्टेनेबल विकास ‘ के नीति अपनाई। बुद्धि ढेर जनि लगाई, हरियरी संगे जिनिगी बिताईं। हमनियो के समझीं – बूझीं जा एह बतिया के धरती के धूर माथे लगावत किरिया खाईं जा कि हर साल एगो गाछि लगाइब जा, हरियरी के बीच जिनिगी बिताइब जा आ हरियर गाछि के काटे के हाथ ना लगाइब जा। ढेर लमहर होत जा रहल बा जंगल, गाछि – बिरिछ, हरियरी के बात।अब ना बढ़ाइब, जंगल गाथा पढ़ लीं हरियरी गायब भइला के सार भेंटा जाई।पढ़ि के मनन करब, दूसरो के बताइब आ भेंटा जास गाछि कटवा तब दउड़ाइब।

 

जंगल गाथा

 

चलऽ सुनावे जंगल गाथा

गावे जे के वेद – पुरान

बाबा कहले गाँछि सहोदर

जेकर करऽ आजु गुनगान

 

काटि रहल बा गति से जंगल

भागि रहल देखऽ बरसात

हवा – पानी प्रदूषित भइल ह

खतरा में पड़ल कायनात

 

धरती आज वृक्ष विहीन भइल

माटी क्षरण भइल गतिमान

गायब भइल पहाड़ धरा से

गायब जंगल के पहचान

 

वन्य जीव के आश्रय जंगल

जंगल निगल गइल सब खान

खड़ा आजु बा कल – करखाना

वन के बीचे छाती तान

 

अतिक्रमण दिन – राति बा होता

जंगल बनल मनई मकान

नदी – नाला मर गइल सूखि क’

पानी बिनु जीवन हलकान

 

बढ़ल जंग मानव- वन प्राणी

त्राहि – त्राहि बा भइल जहान

मौसम के मिजाज बा बदलल

कबो अजार, कबो अम्फान

 

 

लक्ष्य विहीन बा वन संरक्षण

कागजी वनरोपन दुकान

एन जी ओ घरे – घर खुलल बा

वन के नाम प बनल महान

 

सभे बजावत आपन बाजा

आपन डफली, आपन राग

हरियर धरती पियर हो गइल

सूरज उगिलत बा अब आग

 

जैवविविधता  नष्ट  हो  रहल

बिगड़ गइल प्रकृति के चाल

अबहूं चेतऽ सुनऽ तू भइया

ना त बड़का होखी बवाल

 

पानी अबहीं बिकी रहल बा

हवा बिकी अब कहे किशोर

आफत माथे नाच रहल बा

मअउत आँगन खाड़ किशोर

 

इयाद कर अब घाघ क’ वाणी

छोड़ि द तू कइल मनमानी

खेती करऽ संग बागवानी

साथ करऽ संचय तू पानी  ‌

 

जल, जंगल, जमीन तू सँचबऽ

बाची जग के जीवन – जान

वेद – पुराण के कहल सुनऽ तू

एगो वृक्ष दस पूत समान

 

  • कनक किशोर

राँची झारखंड

चलभाष -9102246536

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