आइल चइत उतपतिया हो रामा!

चइत के उतपाती महीना मस्ती के आलम लेले आ धमकल बा। कली-फूल के खिलावे के बहाना से बसंत अपना जोबन के गमक फइलावत चलल जा रहल बा। आम के मोजर में टिकोढ़ा लागि गइल बा आ सउंसे अमराई में टप-टप मधुरस टपकि रहल बा।

कोइलरि के कुहू-कुहू के कूक माहौल में एगो अनूठा मोहक रस घोरत बा। अइसना मदमस्त महीना में जदी मन के सपनन के सजीला राजकुमार परदेस के रोटी कमाए चलि गइल होखे, त बिरहिन हमजोली के वेदना पराकाष्ठा पर जा पहुंचेले। अंगइठी लेत रस से भरल देह, आलस से मदमातल सपनात आंखि। ख्वाब, खयाल आउर सपनन के इंद्रधनुष। अपना परदेसी के बाट जोहत बेकरार हो उठत बाड़ी प्रियतमा। बाकिर ऊ बेदरदा भला का जाने बिरहिन के आंतर के पीर! आइल त दूर, ऊ एगो पातिओ पठावल जरूरी ना बुझलस। बसंत बीति गइला का बाद ओकरा आवे भा पाती पठावे के का माने- मतलब!

नाहिं भेजे पतिया,

आइल चइत उतपतिया हो रामा

नाहिं भेजे पतिया

विरही कोयलिया सबद सुनावे

कल ना पड़त अब रतिया हो रामा

नाहिं भेजे पतिया

बेली-चमेली फूले बगिया में

जोबना फुलल मोरा अंगिया हो रामा

नाहिं भेजे पतिया

चैताः प्रेम के रसगर लोकगीतन के मस्ती

चइत महीना में गावल जाए वाला चैता सांच प्रेम के रसीला लोकगीत ह। फगुआ का बाद ‘बुढ़वा मंगर'(पहिला मंगर) से चैता गावे के समहुत हो जाला।भोजपुरी में एकरा के चैता भा चइता, मगही में चैती आ मैथिली मे चैतावर कहल जाला। जब कवनो गायक ढोलक बजाके अकेलहीं चैता गावेला, त ओकरा के साधारन चैता कहाला। झलकुटिया चइता भा घांटो समूह में गवाला। झाल, ढोलक, झांझ वगैरह बजावत गायक दू दल में बंटा जालन। जब पहिला दल गीत के पहिल पांती गावेला, त दोसरका दल ओकरा तुरंत बाद टेक पद के ऊंच सुर में अलापेला। गते-गते सुर तेज, अउर तेज होत जाला आ गवैया गीत के चरम बिंदु प पहुंचावे के सिलसिला में उच्चतम सुर के इस्तेमाल कऽके सुननिहारन के जोश, हुलास आउर मस्ती के पराकाष्ठा पर पहुंचा देले। कतहीं-कतहीं गवनिहार अलगा-अलगा गोल बनाके चैता प्रतियोगिता के आयोजनो करेलन। ओइसे त लोकगीतन में आम तौर पर रचयिता के नांव ना पावल जाला, बाकिर चैता के पारम्परिक गीतन में कवि बुलाकी दास के नांव मिलेला-

दास बुलाकी चइत घांटो गावे हो रामा

गाइ-गाइ विरहिन समुझावे हो रामा।

चइता गीत के शुरुआत ए रामा से होला।

ओइसे ई कवनो जरूरी शर्त ना होला।हरेक पांती के अंत में ‘हो रामा ‘ के प्रयोग होखेला। दोसरकी पांती के पहिल दू पद टेक पद का रूप में ‘हो रामा ‘ के बाद जोड़ि दिहल जाला। चैता गावेवाला चइता के सिरीगनेस सुमिरन से करेला आ ओमें धरती माई (मातृभूमि)के इयाद करेला-

ए रामा, सुमिरींले ठुइयां

सुमिरि माता भुइयां हो रामा

एही ठहिएं

आजु चइत हम गाइब हो रामा

एही ठहिएं।

चैत बीति जाई हो रामा

चैता में प्रेम के किसिम-किसिम के सतरंगी भावन के व्यंजना मिलेला। अधिकतर गीतन में संजोग सिंगार के रोमानी कथा रागन में रचाइल बा। कतहीं नायिका के नख से शिख तक के सुघरता के बरनन मिलेला, त कतहीं मरद-मेहरारू के प्रनय-नोकझोंक के झांकी। कतहीं दाम्पत्य-प्रेम के रोमानियत, त कतहीं विरह-बिछोह के मार्मिकता। रामजी के जनम, शिवजी के बियाह, सीता-स्वयंवर, राधा-किसन के रासलीला-जइसन अनेकानेक लघुकथानकन के जियतार भाव व्यंजना चैता गीतन में देखे के मिलेला।

अगर प्रेयसी के गोर-सुकवार कलाई में हरिअर-हरिअर खनखनात चूड़ी होखे आ लिलार पर हरिअर रंग के बिंदी होखे, त का गजब के निखार आ जाई उन्हुका रूप-लावण्य में!

ए रामा गोरी-गोरी बहियां में

हरी-हरी चूड़िया हो रामा

लिलरा पर,

लिलरा पर हरी रंग की बिंदिया हो रामा

लिलरा पर-

प्रिया सपना के सतरंगी दुनिया में गोता लगावत अपना परदेसी बालम के बांहि में समाइल बाड़ी। तलहीं ननद उन्हुका के झकझोरिके नींन से जगा देत बाड़ी। मीठ सपना के तार-तार हो जाए से ऊ झुंझुवात कहत बाड़ी-

सुतला में काहेला जगैलू हो रामा

भोरेहि भोरे

रस के सपनवा में हलइ अंखिया डूबत

हो रामा भोरेहि भोरे

अंगहि अंग अलसाए हो रामा

भोरेहि भोरे

पिया बिना हिया मोरा कुहुंकइ हो रामा

भोरेहि भोरे

चंपा के फुलवा मुरझाए हो रामा

भोरेहि भोरे

सैंया, कतना नीमन होइत, अगर हमार चुनरी आ तहार पगरी एके रंग में रंगा दिहल जाइत! तन-मन के एकरूपता का संगहीं बहतरो के एकरूपता के कइसन नायाब स्थापना हो जाई तब!

मोर चुनरिया सैंया तोर पगड़िया

एकहिं रंगे रंगाइब हो रामा

एकहिं रंगे एहि ठइयां झुलनी हेरानी हो रामा!

अगर प्यारी-प्यारी झुलनी कतहीं गुम हो जाउ, त कहवां-कहवां जोहल जाउ ओकरा के? घर में, दुआर पर आकि ओह सेज पर, जवना प सउंसे रात बीतल बिया-

एहि ठइयां झुलनी हेरानी हो रामा

एहि ठइयां,

घरवा में खोजलीं, दुआरवा में खोजलीं

खोजि अइलीं सैंया के सेजरिया हो रामा

एहि ठइयां!

 

 

कलवा ना पड़त

आ जदी पियऊ भुला जासु, त कहवां-कहवां ढूंढ़त-ढूंढ़त छिछिआत फिरसु घरवाली? आम के टिकोढ़ा गदरा गइल, बाकिर डाढ़-पात मदमस्त भइला का बावजूद बीतत चइतो में ओह निठुर परदेसिया के कवनो अता-पता ना। चैत के बाद ओकर आइल भला कवना काम के!

जब ई चइत बीति जाई हो रामा

तब पिया का करे आई!

अमवा मोजरि गेल, फरि गेल टिकोरवा

डारे-पाते भेल मतवलवा हो रामा

जब ई चइत बीति जाई हो रामा

तब पिया का करे आई?

चैता के गीतन में सरलता का संगहीं जवन सरसता, कोमलता आउर मिठास अंतर्निहित बा, ऊ दोसरा जगहा दुलम बा। चाहे ननद-भौजाई के छेड़छाड़ होखे भा पति-पत्नी के प्रणयलीला के मनमोहक छटा। चाहे राधा-किसुन आ गोपियन के रासलीला के गाथा होखे, चाहे कवनो बिरहिन के विरह-बिछोह के मरम बेधेवाला

दिल दहलाऊ दास्तान। चइता के गीत आ गायकी के रसमयता, मादकता आ एकर सौन्दर्यबोध आ गीतन में चार चान लगावत लौंडन के नाच सुननिहारन-देखनिहारन के झूमे खातिर अलचार कऽ देला।

जब रस से लबालब भरल गगरी चैता के गीतन के मार्फत छलकत होखे, जब अंग-प्रत्यंग के गदरइला आ कसमसइला का संगहीं मन के सतरंगी भावना आउर आस-हुलास-उछाह गदरा उठल होखे, त फेरु कइसे धनिया अपना होरी के बिना चैन से अकसरुआ रहि सकेले? चइत के ई उतपाती महीना का ओकरा के कबो चैन से बइठे दी?

जोबना फुलल मोरा अंगिया हो रामा

चैतहिं मासे,

कलवा ना पड़त सैंया बिनु रामा

चैतहिं मासे!

***

 

 

  • भगवती प्रसाद द्विवेदी

(साभार- जइसे अमवा के मोजरा से रस चुवेला )

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