भोजपुरी के किसानी कविता

भोजपुरी के  किसानी कविता पर लिखे के शुरुआत कहाँ से होखी-ई तय कइल बहुत कठिन नइखे।भोजपुरी के आदिकवि जब कबीर के मान लिहल गइल बा त उनकर सबसे प्रचलित पाँति के धेयान राखलो जरूरी बा ।ऊ लिखले बाड़ें-“मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ।” मतलब भोजपुरी के आदिकवि कलमजीवी ना रहलें।ऊ कुदालजीवी रहलें।हसुआ-हथौड़ाजीवी रहलें।झीनी-झीनी  चदरिया बीनेवाला बुनकर रहलें।मेहनत आ श्रमे उनकर पूँजी रहे जेकरा जरिये ऊ आपन जीवन-बसर करत रहलें। भोजपुरी में रोपनी-सोहनी के लोकगीतन से लेके आउरो सब संस्कार गीतन में श्रम के महिमा के बखान बा।रोपनी गीतन में जवना लोक संस्कृति के बखान बा ओह में जीवन रस के साथे -साथे एकरा संघर्ष आ उद्वेलनो के कम चित्रण नइखे।एगो उदाहरण देखे लायेक बा-

“बाबा लाये मोर गवनवा बलम लरिका

सोने के थारी में जेवना परोसलो

जेवनो ना जेवे बहरि खरिका।”

बेमेल बिबाह के चित्रण मैथिल -कोकिल विद्यापतियो जी के लेखनी से मिलेला-“पिया मोरे बालक मैं तरुनी”।दोसरका तरफ भोजपुरी कवि भिखारी ठाकुर के त मशहूर गीते बा जवना में बर के बदरूपई के चित्रण खुल के भइल बा-

“चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे

दियका के लागल बर दुआरे बाजा बाजल हे।”

भोजपुरी रोपनी गीत बेमेल बिआह के एह समस्या के बहुत पहिले अपना पाट में भरि लेले रहे जवन एकरा किसानी जीवन से जुड़ल रहे।

‘कवितावली’ में जब किसानी जीवन के हलकानि के चित्र तुलसी बाबा रखलें तs ओमें उत्तरभारत खास करके भोजपुरी-अवधी -ब्रजी क्षेत्र के गाँवने के मनई के सामाजिक-आर्थिक स्थितियन के बात सामने आइल-

“खेती न किसान को भिखारी को न भीख बलि

बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी

जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच -बस

कहैं एक एकन सों’ “कहाँ जाई का करी?”

किसानी ऊहू बेरा जीवन जीये के अइसन माध्यम ना रहे जवना से सुख-शान्ति आ हर तरे के सुविधा भेंटा जात होखे।बेकारी ,बेबसी,बेरोजगारी ऊहू बेरा के जन-जीवन के तबाह कर देले रहे।

भोजपुरी क्षेत्र के संतकवि रैदास,पलटू साहब,गरीब दास,दरिया साहब आदि के रचनन में किसानी जीवन के महिमा के साथे-साथे एकरा  सिकस्ती, तंगी आ तबाही के उरेहाई आँख खोले वाली बिया-

“साधो ऐसी खेती करी,जासे काल अकाल न मरई।

रसना का हल बैल मन पवना बिरह भोम तहँ बाई।”

(दरिया साहब)

अन्न ही माता अन्न ही पिता अन्न ही मेटत है सब बिथा

अन्न ही प्राण- पुरुष आधारा अन्न से खुले ब्रह्म-द्वारा।”

(संत गरीब दास )

संत पलटू साहब पाँच-पचीस लगवला के बादो खेती के पीड़ा से भली-भाँति परिचित रहलें।राजा-पटवारी के मार से खेतिहर पर कइसन-कइसन आफत-बिपत आ गिरत रहे ओसे पलटू साहब पूरा तरे वाकिफ रहलें-

“आग लगो वाहि देस में जहँवाँ राजा चोर

जहँवाँ राजा चोर प्रजा कैसे सुख पावै

पाँच पचीस लगाय रैन-दिन सदा मुसावै  ।”

(पलटू साहब)

लोकभाषा पंजाबी के प्रसिद्ध कवि गुरु नानक देव जेकर भोजपुरी जन-मानस पर अमिट छाप बा, उहाँ के किसानी पद बा-

“इहु तनु धरती कर्मा करो

सलिल आपउ सारिंगपाणी

मनुष्य किरसाणु हरि रिदै जंमाइलै

इस पावसि पदक निरबाणी ।”

(गुरु नानक देव)

-यानी  अपना मन के किसान बनाके शरीर रूपी खेत में  बीज रूपी कर्म बोके भक्तिभाव के जल से सींचला पर हियरा के भूमि में हरि-भाव के फसल उगी। किसानी के एह रूपक के जरिए गुरु नानक देव ज्ञान के बातन के आम जन मानस पइठावे में कामयाब भइल रहनीं।

रैदास के बेगमपुरो में श्रम आधारित व्यवस्था के प्रधानता रहे-

“स्रम को ईसर जानि के जउ पूजै दिन -रैन

रविदास तिन्हहिं संसार मंह ,सदा मिलै सुख-चैन।।”

भोजपुरी के किसानी कविता पर बात करत  1753 संवत  के जनमल कवि घाघ के त कृषक जीवन के महाकविये मानल जाला।कन्नौज के एह कवि के कहावतन में खेती-किसानी के पूरा विज्ञान भरल बा।भोजपुरी क्षेत्र में घाघ के महान कृषि वैज्ञानिक मानल जाला।उनकर कविताई जवन कुछ संग्रहन में मिलेला भा ‘घाघ आ भड्डरी’ में संकलित बा  ओह से कृषि विद्या प घाघ के मजबूत पकड़ परखल जा सकत बा-

1- ” उत्तम खेती जो हर गहा।मध्यम खेती जो संग रहा।।

जो पूछेसि हरवाहा कहाँ । बीज बूड़िगे तिनके तहाँ ।।

-मतलब साफ कि जे खुदे हरवाही करी ओकरे खेती उत्तम होई।

2- “माघ  मघारे  जेठ  में  जारे

भादो सारे सेकर मेहरी डेहरी पारे।

-यानी गेहूँ के खेत माघ में हर जोताये के चाहीं जेठ में तपे देबे के चाहीं ताकि घास जर जाव आ भादो में जोत के सड़ावे के चाहीं, तब जाके मेहरी का डेहरी भरे के मौका हाथ लागी।

3-“सावन मास बहे पुरवाई,बैला बेच कीनीं धेनुगाई।”

-माने सावन में पुरवाई सजोर बही त बरखा ना होई आ बैल बेच के गाये खरीद लेबे के पड़ी।

-एह तरे के अनगिनत कहावत भोजपुरी क्षेत्र के आजो थाती बा।

एगो किसान कवि डाक नाँव के रहल बाड़ें।’डाक-वचनावली’ में उनकर रचना संकलित बाड़ी सन।एगो उदाहरण बा-

“तीतिर पंख मेघा उड़े ओ विधवा मुसुकाय।

कहे डाक सुनु डाकिनी ऊ बरसे ई जाय।।”

माने कि तीतिर के चितकबरा पंख लेखाँ मेघ उड़त आसमान में दिखे त ऊ बे बरिसले ना रही आ कवनो विधवा मुस्कुरात दिखे त बिना कवनो दोसरा मरद संगे फँसले आ भगले ऊ ना मानी।

आजादी के लड़ाई आ किसानी कविता

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किसानी कविता पर विचार करत अब हम स्वतंत्रताकालीन ओह  रचनन पर विचार करे के चाहब जवनन में किसानन के सीधा भूमिका रहे।किसानन के वीरता, त्याग ,साहस ,संघर्ष आ संकल्प के भोजपुरी कविता में बड़ी गंभीरता आ व्यापक रूप से उकेरल गइल बा।बलिया के चितबड़ा गाँव के क्रांतिकारी कवि प्रसिद्ध नारायण सिंह के कविता में 1857 के विद्रोह में किसानन के उबाल के चित्रण बा –

“जब संतावनि के रारि भइलि

बीरन के बीर पुकार भइलि

बलिया के मंगल पांडेय के

बलिबेदी से ललकार भइलि

खउलल तब खून किसानन के

जागल जब जोश जवानन के

छक्का छूटल अंग्रेजन के

गोरे गोरे कप्तानन के।”

आजादी के  आन्दोलन के दौरान ओह किसान -संघर्ष के नइखे भुलाइल जा सकत  जवना में मोहनदास करमचंद गाँधी के नाँव सीधे जुड़ल रहे आ ओके इतिहास में ‘चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन’ नाम मिलल। 1917 के एह ‘ चंपारण आन्दोलन’ में एगो निपट भोजपुरिहा किसान राजकुमार शुक्ल जी आपन पाती भेज के गाँधी जी के बोलावे में सफल रहनीं-

” किस्सा सुनते हो रोज औरों के/आज मेरी भी दास्तान सुनो।” एक बिगहा जमीन में तीन कट्ठा  में नील के खेती करे के मजबूरी वाला ‘तीनकठिया कानून’ के खिलाफ भोजपुरी कवि शिवशरण पाठक के कविता(सन 1900के आसपास) के  आधुनिक भोजपुरी के पहिल किसानी कविता मानल जा सकत बा-

“राम नाम भइल भोर गाँव लिलहा के भइले

चँवर दहल सब धान गोंएड़े लील बोअइले ।

भइ भैल आमील के राज प्रजा सब भइले दुखी

मिल-जुल लूटे गाँव गुमस्ता हो पटवारी सुखी ।

असामी नाँव पटवारी लिखे गुमस्ता बतलावे

सुजावल जी जपत करसु, साहेब मारन धावे ।

थोरका जोते बहुत हेंगयावे तेपर ढेला थुरवावे

कातिक में तइयार करावे फागुन में बोअवावे ।

जइसे लील दुपत्ता होखे वैसे लगावे सोहनी

मोरहन काटत थोर दुख पावे दोषी के दुख दोबरी।”

-कुल 22पंक्तियन के एह भोजपुरी कविता में किसानी जीवन के पीड़ा के  बड़ा बारीकी से अभिव्यंजित कइल गइल बा।

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के संपादन में निकले वाली सरस्वती पत्रिका के सितम्बर 1914 के अंक में छपल भोजपुरी कवि हीरा डोम के कविता ‘अछूत की शिकायत”में किसानी जीवन के तकलीफ के अभिव्यक्ति काफी मार्मिक बा-

“हमनीं के रात दिन मेहनत करीलेजा

दूइगो रुपयवा दरमाहा में पाइबि ।

ठाकुरे के सुखसेत घर में सुतल बानीं

हमनीं के जोति- जोति खेतिया कमाइबि।”

हीरा डोम के एही कविता से भोजपुरी -हिन्दी दलित कविता के शुरुआत मानल जाला।एह कविता में किसानी जीवन के जवन रूप उभरल बा ऊ देख के ई कहल जा सकत बा  कि ओही बेरा सामाजिक बराबरी आ शोषण के प्रतिकार के स्वर भोजपुरी गरीब-गुरबा में जाग उठल रहे।1917 से 1947 के बीच भोजपुरी आ हिन्दी पट्टी  में चलल ‘चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन’,’बिजोलिया किसान सत्याग्रह’,’खेड़ा किसान संघर्ष’आदि आन्दोलनन के  किसानी कविता पर व्यापक प्रभाव रहल बा।

बिहार किसान आन्दोलन के दौरान किसान नेता यदुनंदन शर्मा के संपादन में गया जिला किसान सभा द्वारा 1938में ‘चिनगारी’ नाम के एगो कविता- पुस्तिका छपल रहे जवना से ओह बेरा के प्रतिबंधित किसान कविता के प्रतिरोधी चरित्र के झलक मिलत बा।’धनमा तोहर लूटे लूटेरा’,’गाँवे -गाँवे करs भैया करsसंगठनवा’,’कुरीतिया कैलख हैरान रे’ जइसन प्रचलित प्रतिनिधि गीत आम जनता के बीच धूम मचवले रहले सन।

जौनपुर जिला के इजरी गाँव के  जनकवि  राजकुमार वैद्य जी बहुते किसान कविता लिखले रहलें जवन जब्त कर लिहल गइल रहे।वैद्य जी का अपना मारक काव्य-रचना खातिर जेलो जाये के पड़ल रहे।उनकरा कविता के बानगी देखल जा सकत बा-

“सबसे किसान हो अभागा हमरा देसवा में

दिन भर बेगारी रहै  लाखन ठै गारी सहैं

तबहूँ ना लागै इन्हें खाये के ठेकान हो

अभागा हमरे देसवा में।”

भोजपुरी कविता के इतिहास में दू गो कवितन  के कालजयी रचना कहाये के गौरव हासिल बा।कालजयी रचना ऊहे हो सकेले जवन कालजीवी होखे।भोजपुरी के दू गो कविता ‘बटोहिया'(1911,रघुवीर नारायण) आ  ‘फिरंगिया’ (1921,प्रिंसिपल मनोरंजन प्रसाद  सिंह)अइसन रचना बाड़ी सन जवनन में आजादी के लड़ाई के स्पष्ट पदचाप सुनल जा सकत बा। ई दूनू रचना दूगो अलगा-अलगा भावभूमि पर ठाढ़ बाड़ी सन ।’बटोहिया’ में भारत-भूमि के गौरव के गुनगान बा तs ‘फिरंगिया’ में भारत-दुर्दशा के ग्लानिपरक आ पराभव से जुड़ल चित्र देखे के मिल रहल बा।भारत के सांस्कृतिक विभव ‘बटोहिया’ में प्रभावकारी बा त दोसरा ओर भारत के ऐतिहासिक समृद्धि के विगलित रूप ‘फिरंगिया’ में वर्णित बा। एह दूनू गीतन में क्रमशः किसानी जीवन के सामर्थ्य आ लाचारी दूनू के उकेराई भइल बा-

1-“सुन्दर सुभूमि भइया भारत के देसवा से

मोर प्रान बसे हिमखोह रे बटोहिया!

××          ××           ××          ××

जाउ- जाउ  भइया रे बटोही हिन्द देखि आऊ

जहाँ सुख झूले धान खेत रे बटोहिया!

2-सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा

आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया

अन्न धन जन बल बुद्धि सब नास भइल

कवनो के ना रहल निसान रे फिरंगिया

जहँवाँ थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे

लाखो मन गल्ला आउर धान रे फिरंगिया

उहें आज हाय रामा!माथवा पर हाथ धरे

बिलख के रोवेला किसान रे फिरंगिया।”

– ‘फिरंगिया’ कविता 56 पाँतिन में रचल मनोरंजन बाबू के अइसन यथार्थपरक रचना  बिया जवन भारत के दुर्दिन का ओर इशारा करत स्थितियन में बदलाव खातिर हर संभव प्रयास करत दृढ़संकल्पित हो जाए के आह्वान करत बिया।

मास्टर अजीज (कर्णपुरा अमनौर सारण,बिहार)अइसे त एगो कीर्तनिहा गायक कवि रहलें बाकिर उनकरो रचनन में 1942 में आजादी के लड़ाई के दौर में किसानन के सहयोग आ सक्रिय भूमिका के सजीव वर्णन मिलत बा-

“ओने अंगरेजन के गोली

एने किसानन के टोली

गूँजे जय हिन्द के बोली

ओ मढ़ौरा में।”

स्वामी सहजानंद सरस्वती भोजपुरी क्षेत्र के एगो अइसन संत  रहनीं जेकर किसानन पर व्यापक प्रभाव रहे।1936 के अप्रैल में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ के स्थापना करिके किसान हितन के सामाजिक-आर्थिक विकास खातिर महत्वपूर्ण बतावत उहाँ के भोजपुरी के बृहत्तर क्षेत्र में आपन व्यापक प्रभाव छोड़नीं।भोजपुरी आ हिन्दी कवियन पर एह आन्दोलन आ संगठन के व्यापक असर देखे के मिलल।

1938-39 में तत्कालीन सारण आ वर्तमान सीवान जिला के अमवारी गाँव में जमींदार लोग के अत्याचार के विरोध में एगो किसान महापंचायत राहुल सांकृत्यायन जी का नेतृत्व में भइल रहे।  एकरा के  ‘हरबेगारी विरोधी किसान आन्दोलन’कहल गइल जवन आखिरी में हिंसक रूप पकड़ लेले रहे।जमींदार लोग के खेती करत हरचलाई  बेगारी के तौर पर ना करे के पड़े- एही खातिर राहुल बाबा के नेतृत्व में किसान सभे एकवटल रहे। एह आन्दोलन के दौरान किसान लोग पर लाठीचार्ज भइल आ राहुल बाबा के कपार फाट गइल। घटना के वर्णन एगो भोजपुरी कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह के  हिन्दी कविता-‘ राहुल का खून पुकार रहा” में मिलत बा-

“राहुल के सर से खून गिरे फिर क्यों यह खून उबल न उठे

साधु के शोणित से फिर क्यों सोने की लंका जल न उठे?”

1942 ई.में राहुल सांकृत्यायन जी भोजपुरी में एगो नाटक -‘जोंक’ लिखले रहनीं, जवना में शोसक वर्ग के तानाशाही  से भरल  आ वंचक रवैया के बखिया उधेड़ल गइल रहे।एह नाटक के एगो गीत के कुछ पंक्तियन के देखल जा सकत बा-

” साँझ बिहान के खरची नइखे,मेहरी मारै तान

अन्न बिना मोर लड़िका रोवै,का करीं हे भगवान!

करजा काढ़ि-काढ़ि खेती कइलीं,खेतवै सूखल धान

बैल बेंचि जमींदरवे के दिहलीं,सहुआ कहै बेईमान।”

-एजवा किसान के वास्तविक हालत के पूरा सच्चाई के साथ वर्णन कइल गइल बा।

बिहार किसान आन्दोलन के किसान गीतन में स्वतंत्रता के बाद के किसान-मजदूर राज्य के स्थापना के वैकल्पिक यूटोपिया बाटे।खडगधारी मिश्र उर्फ तुरिया बाबा तुम्मा बजावत मध्य बिहार के गाँवे-गाँव जाके किसान-जागरण करत रहलें-

“फिरंगिया के राज जब देसवा से मिट जाई

जमींदारी परथा खत्म जब होई जाई

खेतवा के मालिक किसान सब होई जाई

एकरे के कहे हे सुराज हो बुधन भाई!”

वर्तमान सीवान जिला के दुरौंधा प्रखंड के कोड़ारी गाँव के निवासी गोस्वामी चंद्रेश्वर भारती के किसान कवितो में आजादी मिलला के बाद किसान- राज कायम करे के कामना बा।अइसन किसान-राज जेमें गैरबराबरी ना होखे,सामाजिक-धार्मिक सद्भावना होखे-

“हम राज किसान बनइतीं हो

भरपेट भोजन सबके दीतीं दुखी न कहवइतीं हो

छुआछूत के भूत भगइतीं सरिता प्रेम बहइतीं हो

हिन्दू -मुस्लिम भाई के हम एके मंत्र पढ़इतीं हो ।”

डुमराँव (बक्सर जिला) निवासी भोजपुरी कवि विश्वनाथ प्रसाद ‘शैदा’ भारत के विकास में किसानन के महती भूमिका के समुझत लिखले बाड़ें-

“भइया ! दुनिया कायम बा किसान से

साँचे किसान हवन तपसी तियागी

मेहनत करेले जीव-जान से ।

जेठ में जेकरा के खेते में पइबs

जब बरसेले आगि आसमान से ।

झमकेला भादो जब चमकी बिजुरिया

हटिहें ना तनिको मचान से ।

दुनिया के दाता किसाने हवन

जा पूछs नू पंडित महान से ।

गरीब किसान आज भूखे मरत बा

करजा गुलामी लगान से ।

होई सुराज तs किसान सुख पइहें

असरा रहे ई जुबान से ।

भारत के ‘शैदा’ किसान सुख पावसु

बिनत बानीं भगवान से ।”

भारत के स्वतंत्रता-संघर्ष-काल से जुड़ल भोजपुरी  कवितन के देखला-पढ़ला के बाद ई कहल जा सकत बा कि एह में किसान -चेतना भूमि से मातृभूमि, धरती माता से भारतमाता आ वर्गमुक्ति से राष्ट्रमुक्ति के ओर अभिमुख बिया।अभिजन राष्ट्रवाद से उबरे खातिर ई किसान कविता कबो भाग-भरोसे हो जात बिया तs कबो बेचैनी में झंडा आ लाठी- डंडा उठा लेत बिया-

“ललका झंडवा आउर मोटका डंडवा लेके ललकारs हो!

उनकर साँस बंद हो जाय ।

बहुत दिन से निचले खसोटलन

इन सबका बदला लेहु चुकाय

बिना क्रांति के विजय न होई

चाहे करिहौं कोटि उपाय।”

(किसान नेता राघवशरण शर्मा  से मिलल किसान कविता)

आजादी हासिल भइला के बाद ‘जय जवान जय किसान’ के नारा त खूब लागल बाकिर किसानन के माली हालत में कवनो सुधार ना भइल।खेती -किसानी दिन -पर- दिन काफी मँहगा धंधा होत गइल।कृषि- उत्पादन के वाजिब दाम मिलो ,समुचित बाजार मिलो,किसान के सस्ता दर पर सिंचाई-सुविधा मिलो, ओकरा सस्ता दर पर सब्सिडी के साथे बढ़िया खाद-बीया मिलो-एह बात के खेयाल शासन-तंत्र ना रखलस ।नतीजा भइल कि बड़का खेतिहर तक आपन जमीन बेचि-बेचि शहर पराये लगलें।जेकरा लाचारी रहल उहो ढेर दिन ले थुथुर पर लाठी ना आड़ सकल।किसान आजिज आके आत्महत्या करे लगलें।भोजपुरी के स्वातंत्र्योत्तर किसान कवितन के एही पृष्ठभूमि में पढ़ल -समझल वाजिब होई।

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(क्रमशः अगिला अंक में जारी)

  •           डॉ. सुनील कुमार पाठक

[पता-क्वार्टर नंबर-जी/3,आफिसर्स फ्लैट,

भारतीय स्टेट बैंक के समीप,

न्यू पुनाईचक ,पटना-800023]

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