चन्द्रेश्वर के ‘हमार गाँव’: हमरो गाँव

भोजपुरिया माटी उहो गंगा के किनार के पलल बढ़ल हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.चन्द्रेश्वर के भोजपुरी के कथेतर गद्य ‘हमार गाँव’ पढ़ के लागल कि रोजी- रोटी के तलाश में शौक भा मजबूरी में भले गाँव छूट जाला ,देह से भले दूर चल जाला बाकिर मन में गाँव मुए ना,मन से ऊ गाँवे के रहेला। माटी से जुड़ल साहित्यकार चाहे भा ना चाहे ओकर साहित्य गाँव, माटी आ खेत के सौंध महक से सनाईल रहेला। एगो विशेष बात ‘हमार गाँव’ में चन्द्रेश्वर जी खाली गाँव -घर , टोला- परोसा,खेत – बधार,परब- त्योहार,लोक रंग- लोक संस्कृतिये के बात नइखीं कइले जहाँ मौका मिलल बा राजनीति, सियासत, जनवाद, वैश्वीकरण, बाजारवाद,मशीनीकरण, जातिवाद, राम मंदिर, भ्रुण हत्या, साम्प्रदायिकता, संपूर्ण क्रांति, विकास बनाम विनाश,जल समस्या, वर्तमान स्थिति में  सामाजिक मूल्य में आइल गिरावट के बात करत पावल जात बानीं, जे एह किताब के इयाद कथा/ संस्मरण के एगो नया रूप त प्रदान करते बा साथ ही पाठक के आज के आधुनिक परिवेश में पुरान गँवई पहचान से अवगत करावत गाँवन में आइल गिरावट के ओर ध्यान आकृष्ट करे में सफल साबित हो रहल बा।कल्लुहाड़ चलेला त संउसे बधार सोन्ह-सोन्ह महकेला ओसही ‘हमार गाँव ‘ के पन्ना – पन्ना में गँवई गंध बिखरल पड़ल बा साथही गँवई संस्कृति ,रीत- रिवाज के इयाद ताजा करा जाता।साँच पूछीं त आज ऊ गाँव खोजलो पर ना मिली जवन गाँव लेखक के जेहन में बा,’हमार गाँव’ में बा,जवन गाँव देश के आत्मा रहे,लेखको एह बात के स्वीकारे नइखन करत अनचिहार हो जा ताड़े अपने गाँव के गलियन में। नइखे भेंटात उहां के गाँव के भाई- गोतिया,सुख – दुख बतियावे वाली भऊजाई,नेह दुलार करे वाली आजी – नानी,लइकाई के संधतिया ना पतसहिया आम आज गाँवे गइला पर। गाँव के बदलल परिस्थिति में लेखक के तथाकथित विकास गाँव में लउकत बा बाकिर गाँव नइखे लउकत जे गाँव ऊ  देखले रहन।एह किताब में कुल  एकावन गो संस्मरण शामिल बा विषय वस्तु अलग -अलग बाकिर सुवास उहे आज से तीस – चालीस बरिस पहिले के भोजपुरिया संस्कृति के निठाह गंगा किनार हेठार के गाँव के। कवनो लोक भाषा केे स्थल विशेष  आंचलिक स्वरूप होला एही से कहल गइल बा एक कोस पर पानी बदले चार कोस पर बाणी। ‘ हमार गाँव ‘ में चन्द्रेश्वर जी ठेंठ हेठार के भाषा के उपयोग कइले बानी आ स्वीकार कइले बानी कि एह किताब के लिखे में बरतनी के मामला में उच्चारण आ ध्वनियन के पकड़े के प्रयास कइले बानी, जेकर आधार बनल बा पुरनका भोजपुर के नीचे के आ दियर के गंगा किनार के इलाका।ई एह किताब के मिठास बढ़ा देता बाकिर कुछ शब्द पाठक खातिर बिल्कुल नया सामने आ जाता,लेखक ओकरो अर्थ बड़ा ढ़ग से बतावत बढ़ जात बाड़न ।सब से बड़ खूबी एह किताब के बा कि रोजमर्रा के छोट – मोट घटनन के बड़ा रोचक ढंग से खाली प्रस्तुत नइखे कइल गइल बलुक ओकर सामयिक सामाजिक महत्व आ वर्तमान में हो रहल क्षय के ओर ध्यान आकृष्ट कइल गइल बा।लेखक जीयल बा गँवई संस्कृति में, पठन पाठन के अधिकांश समय भोजपुरिया परिवेश में परंतु जनवाद,वामधारा,समता के आगोश में आपन साहित्य सृजन से जुड़ल रहल बा एह से ओकरो स्पष्ट प्रभाव जगह – जगह लउकता। अगर चार लाइन में किताब के बारे में कहे के रहित त नवही भोजपुरी कवि श्री बिमल कुमार के नीचे लिखल चार लाइन कहतीं :

 

चइत सावनी कोहबर फाग

गोतिया घोरे हिया में राग।

नाचे  पाँव  ना रोके रूके

बान्हे जब छागल भोजपुरी।

 

अब किताब में उद्धृत कुछ घटनन आ लेखक के परोसल संस्मरण में राजनीति, सियासत, सामंती प्रथा, जातिवाद आ साम्प्रदायिकता के चर्चा पर चर्चा कइल चाहब जे आलेख के समसामयिक के साथ गाँव के वर्तमान स्वरूप सामने रखे में सफल रहल बा।

रीत रिवाज आ परब त्यौहार गँवई जीवन के जान होला। सांच कहल जाव त गाँव के रीत रिवाज एगो परिवार के ना संउसे गाँव के, हित नात के जोड़ के रखबे ना करे गाँव के गँवई स्वरूप बिगड़े ना देवेला । लेखक किताब के शुरुआत समहुत से कइले बाड़े जे किसान के शुभ मुहूर्त में खेती – बारी शुभारंभ के विधान ह।पनढकउवा,काली पुजाई,बहुरा,तीज,जीउतिया,छठ, खिचड़ी,गाय डाढ़,गोधन,जलुआ, बियाह,बारात,बरनेत,गुरहथी के लेखक खाली बतवले नइखन की का ह,ओकर विधि विधान के साथ महत्ता पर बड़ा सुक्ष्म विश्लेषण कइले बाड़न जे पाठक के रूचीगर लागी हमरा पूरा विसवास बा। आपन बिसनाथ बाबा के बहाने ‘ मरद भोजपुरिया ‘ के लक्षण, गाँव में ओह घड़ी मरद मेहरारू के खान पान के तरीका आ आपसी रूसे फूले,मनावे के तरीका के ओर ध्यान आकृष्ट कइल चहले बाड़न। पतसहिया आम के पेड़ गाँव के आदमी के गाछ वृक्ष से लगाव बतावत बा ,जेकरा गिरला के बाद ओह सीवान में लेखक जाइल छोड़ दे ताड़न काहे कि ओकरा ना रहला पर बाधार उदास लागत रहे।गाँव के आस्था से जुड़ल परब त्यौहार के सामाजिक समरसता के ध्यान राखत ओकर कुछ गलत ताना बाना खातिर विरोध प्रकट जरूर लेखक कर रहल बा बाकिर ढकोसला नइखे कहत परंतु काँवर प्रथा के एगो नया धार्मिक फिनोमेना के संज्ञा दे रहल बा जे सचमुच दिखावा जादे बा।

गाँव के ताजिया के वर्णन गाँव के साम्प्रदायिक माहौल के स्थिति आँख के सामने रख देले बा जे बता रहल बा गाँव के आपन माहौल होला ओह में जात धरम के बचावत आपन पहचान बरकरार रखल जाला काहे कि रहे के त साथ ही बा। आज प्रेम सद्भाव में आइल कमी देख लेखक कहे खातिर बाध्य हो गइल कि अबकी पता ना काहे गँउवा खाँखर लागल।गांव के पंच पढ़ के लागल कि गाँव में अब अलगू चौधरी ना रहलन ओकरे नतीजा बा घरे घर दूगो चार गो केस फऊदारी।

लेखक के गाँव एगो बड़ गाँव ह,जहवाँ आ ओकरा अड़ोस-पड़ोस के गाँव में सब जात के धरम के लोग रहत रहे।इलाका राजनीतिक रूप से सजग रहे। शिक्षा के गाँव में सुविधा भले कम रहे बाकिर पढ़े लिखे के माहौल रहे। असहूं गाँव छोट होखे भा बड़ ऊ अपना आपके राजधानी पटना से कम ना बुझे विकास के नाम पर ना राजनीतिक रूप में जहाँ गाँधी, पटेल, अम्बेडकर,जे पी, जिन्ना, फारूक,लेलिन, मार्क्स, इंद्रा के कहो समाजवाद, वैश्वीकरण, बाजारवाद, निजीकरण पर चौक चौराहे पर ना महुआ आ बर त सुबह शाम चर्चा चलेला।पढ़ल होखस भा ना डिप्टी,कलटर, वकील, बड़ा बाबू, प्रेसिडेंटवा गाँव में भेंटा जाला। ढ़ेर पढ़लका जे गाँवे रहता भले कोई मत पूछो बाकिर अपना के सदन के अध्यक्ष मानेला जरूरत पड़ला पर साथी संघतिया के मार्शल के रूप में प्रयोग करेला।आशा पड़री में एह तरह के पात्र जगह जगह आपन उपस्थिति दर्ज कइले ही नइखन आपन रोल के बड़ी करीना से निर्वाह कइले बाड़न।मनसाइन खातिर ई जरूरीयो होला आखिर समय काटे के बा गाँवे में।चउल ना होई, बोली ना बोलाई,माला ना उठी,मनसहक बरात पर कवाछ ना फेंकी, बुढ़वा बाबा के कउचाई ना बोका आ भैंसा के लड़वाई ना,बाई जी के रात भर नाच ना देखी त समय कइसे कटी।इहे ऊ माटी ह जहवाँ बोली पर गोली चलेला।सब तरह के लोग चन्द्रेश्वर जी के गाँव के  इयाद कथा में भरल पुरल बा।इहे गाँव होला,इहे गँवई जीवन ह। आपसी तालमेल बा त उठा पटको ,बधारी में लड़ाई बाकिर गाँव में सबहर भोज में एके पांत पर बइठ लुचुई तुरता इहो गाँव के इयाद कथा में लउकता।

बात बदल गइल, लहुलुहान बा आदमी,गाँव खाँखर लागल मू गाँव के बदलत स्वरूप का ओर इशारा बा।ई हालात देख लेखक कहत बा आज इयादे में के गाँव ठीक लागत बा।

पनिया के पनिया,चिचुही ताल, बाढ़ में गाँव पढ़ के पता चलत बा कि पनरोह,अहरा,ताल तलैया जवन जल संचयन खातिर रहे धीरे धीरे ओरा गइल। ओकरेे प्रतिफल गाँव जे हाथ से चापानल गाड़ लेत रहे ऊ समरसेबुल पंप आ टंकी के पानी पर निर्भर बा। पत साल बाढ झेले वाला गाँव पानी खातिर पानी पानी हो रहल बा। पानी में बसल गाँव में पानी के त्रासदी देख लेखक के दिल रो देलस। गंगा किनार के माटी में जामल मनई के चेहरा पर एगो अलग पानी होत रहे जे भागम भाग के जिनगी छिनलस आ गाँव के बदलल स्वरूप पीये के पानी,ई त्रासदी झेल रहल बा गाँव आज के।

जाति प्रथा आ मेहरारू के दुर्दशा भोजपुरिया गाँवन में गहिरा पैठ शुरू से बनवले रहे,आज समय के साथे बदलाव आइल बा बाकिर अइठन बरकरार बा।ई बड़ा बेवाकी से लेखक उकेरेले बाड़न बिना तोप झांप के।

एह इयाद कथन के खुबसूरती बा कि कहानी रीत रिवाज, हास्य प्रसंग,परब त्यौहार से भले शुरू होखो लेखक बिना गेयर बदलले टर्न कर जा ताड़े कभी वैश्वीकरण बाजारवाद,त कबो राजनीति के वर्तमान गिरावट,कबो जे पी के संपूर्ण क्रांति,कबो सुशासन आ जुमला सुना स्वप्नदर्शी बनावे पर,उहो जोर के झटका धीरे से देत।

‘ हमार गाँव ‘ हमरे ना रउवो गाँव ह,ई पढ़ब तब बुझाई। हमरा इहे बुझाईल ह। रउवो पढ़ी।

 

रश्मि प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित  169 पृष्ट के ई किताब के मूल्य 200रू मात्र बा। भोजपुरी साहित्य के अनमोल धरोहर बा ई ‘ हमार गाँव ‘ ।

 

कनक किशोर

राँची , झारखंड।

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