सुहराई रवै रव

सुहराई रवै रव बकोट ता कोई खड़ा दूर से भी कचोट ता कोई।   अजादी सबै क नकोट ता कोई गुदगुद्दी बराय धइ लूट ता कोई।   हिया में बईठ के भकोट ता कोई निवाला उड़ाई सरबोट ता कोई।   जगह पाई जरिका तरोट ता कोई लगाई के आसन सघोट ता कोई।   छुआई के अँगुरी दरेट ता कोई उचारी के देहियाँ चमोट ता कोई।   एकै बात हर बार फेट ता कोई सिंघासन बदे भाय लोट ता कोई।   पारी पारा आई घघोट ता कोई पलत्थी जमाई के घोट…

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रउरा कहां सेयान बानी?

रउरा ना बुझबि सियासत रउरा अबहीं इंसान बानी, नेता खाली लाल बुझक्कड़ रउरा कहां सेयान बानी।। जनता जाहिल भकचोन्हर नेता नीमन सभमे सुनर, नेता छोडि़ सभे बा द्रोही नेताजी ग्यान बिग्यान बानी, रउरा कहां सेयान बानी।। रउरा सुनी इन्हिकर बात नीमन सीखइहें जात पात, एकरा से बड़ त सास्तर नइखे हमनी के इन्हिकर लगान बानी, रउरा कहां सेयान बानी।।       देवेन्द्र कुमार राय (ग्राम+पो०-जमुआँव, थाना-पीरो, जिला-भोजपुर, बिहार)  

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गउए हई

गउए   हई   सास, छोड़स   ना  रास । सिधा देस जोख के सबसे पहिले  खास ।   ससुरो     अलबेला, करस  ना   झमेला । घरनी     से    पूछी, कदमवा     उठेला ।   मरद     भकलोल, बुझाय  ना  झोल। माई के  देखते  त् सिआ जाले  लोल ।   कस के लंगोटा, धईनी    झोंटा । बिग देली  परेह, देहनी दू  सोटा ।   संगहीं    खटेली, पंजरो    सटेली । कतनो    हटाईं, तबो  ना  हटेली ।   खींस बा खलास, ससुरो  मुस्कास । मरदो का  चानी, भइली अब दास ।   बुझऽ जनी भकोल, लेइ बेटा के  मोल…

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बैनीआहपीनाला

प्यार के रंग कइसन होला का ख़ूब गाढ़ लाल ओढ़हुल के फूल नियर   का ख़ूब गाढ़ पीयर सरसों के फूल नियर   का ख़ूब गाढ़ नीला अलसी के फूल नियर   का ख़ूब गाढ़ हरियर घास नियर   का ख़ूब गाढ़ कत्थई पाकल सेब नियर   का ख़ूब झक्क सफ़ेद चाँदनी नियर   आख़िर कइसन होला रंग प्यार के   का रंग प्यार के बैंगनी होला   आसमानी होला   नारंगी होला   का प्यार के रंग में शामिल नइखन स सब रंग दुनिया के   एकरा में शामिल…

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किशोर के कवित

१   नाक   नाक के सवाल रहे आपन ना खानदान के, कान पर गइनीं आँख अछइत, सब करम हो गइल नाक ना बाँचल।     २   जाल   आदमी आपन हाथे आपन पाँखि काटी आपन बीनल जाल में आज अझुराइल फँसल छटपटात बा, जाल बिछवले रहल हा दाना डलले रहल हा अनकरा खातिर, बाकिर ई का ! दाना के चक्कर में खुद के जाल में खुदे फँस गइल।   ३   मजहब   मजहब कौनो होखे ना सीखावे बँटवारा। हमनी का अपने के ना जानवर , फूल, पक्षियो…

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सपना रोज सजाई ले

भौतिकता में डूबल असलियत से उबल आधुनिकता में अझुराई ले आ अपना के खूब भरमाई ले सपना रोज सजाई ले। ज्ञानविहीन दिशाविहीन दुबिधा में अपने के समझ ना पाई ले सपना रोज सजाई ले। कामकाज भले ना होखे आमद-खर्च नफा-नुकसान अंगुरी पर निपटाई ले सपना रोज सजाई ले। लमहर-लमहर जम्हाई लेके विकास-ह्रास के खाका रोज बनाईले आ मेटाई ले सपना रोज सजाई ले। दुनिया के चकाचौंध में डूबी ले उतराई ले आ अपने से बतीआई ले सपना रोज सजाई ले। कबो छा जाई ले आकाशे में राकेश बन कबो जमीने…

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जे देहलस उ पइलस का

घास क रोटी कोइ बतावै फिर कउनो राजा खइलस का हम कुरबानी काहे देहीं जे देहलस उ पइलस का।   महल बनउलस शिला तोड़ जे अपन नाम लिखइलस का कउनो कोने खोज बतावा उ अपनो कुटी बनइलस का।   सार गला संसार रचयिता जाना इहा कमइलस का मजदूर बोल जग हँसी उड़ावै कोइ हाँथ कपारे धइलस का।   चीर धरा जे अन्न उगावस आपन पीर सुनइलस का भात महीनका जे चभकै उ पूछा स्वेद बहइलस का।   चान छुए में बाउर जन बसुधा क साध पुरइलस का सूरज भेटै सबै…

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कुकुरिया

भूँक कुकुरिया भूँक तोके राम भूँकावै भूँक नइहर खइली सासुर खइली खइली पास पड़ोस गिन-गिन देवता पित्तर खइली तवनों पर अफसोस आँख खोल के देख बउरही मचल हौ थूकम थूक।   के के नाही कुंआ झंकउली के के ना तरियउली भलमनुसन क रस्ता छूटल अइसन दाँत गड़उली सोच सोच के कारस्तानी उठै करेजे हूक।   जेकरे माथे बेइल फूलै ओकरे घर कुकरौंछी हाँडी बिछै हाड़ बरावै तुलसी तर मुँहझौंसी का देखीं मुँह बरै रोवाई जल्दी मुर्दा फूँक॥   कैलास गौतम 

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नीति

तिन्हकर घर सुख चैन रहे जहँ धी सुधिया, तिअई सुमुखी। भृत्य भरोसी, इच्छित वित्त, धनी अपनी सबरंग सखी। अतिथि सेव, देव पूजन नित, मधुर अन्न-रस की जिवनारी, बितत नित्य साध के संगति जीवन धन्य उहे घरुआरी। जवनि हाथ दान नहिं जाने स्रवन सहे नहिं सुक्ति उदेसा। दरस साध आँखि अनजानल, पैर भ्रमे ना तीरिथ देसा। धन अकूत अरजे अनरीत, भरल पेट सिर तुंग गुमाना रे नर लोमड़ सहसा त्याग नीच देह अघ के पैमाना। करइल गाछ न लागे पात दोखी का मधुमास रामजी! दिन चढ़ते उरुआ चुँधियाय का सूरज उपहास…

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भोर के गद

मूठरी घाम गुलेट खोंस गइल ह जंगला के फाँक में अखबारी टेल्हा सूरुज कुछ अगिते। एगो चिड़ा ओरी त झूलत नसेनी प पसार रहल बा प्रेम। अनमुन्हे के फींचल गँड़तर हरकऽता। पाँख छितनार मूरुख चिड़ी खोज रहली ह गूलर के फूल। फिजूल। सकल कपट अघखानि सकल पँड़या सरबजनिक नल प बलटियन पानी छछरावत गावऽता बेहया अस- “रधिका औगुन चित न धरऽ।” “ढकरचाँय-ढकरचाँय, कील खिआ गइल साइद, तेल डाल, खोंट बा का काने? कवन एकटंगे ठाड़ बिया होने घूघ तान, बहरे से आके? उजबक अस। गड़ही का पानी सूख गइल का?…

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