सामाजिक संबन्धन के सघनता से जनमल साहित्य के सिरिजना करेवाला साधक द्विवेदी जी

               लोक संस्कृति किताब में लिखल बात ना होखे, जिनिगी के ऊंच – खाल राह में अविरल बहत रहेला। अपना परिवेश खातिर बोलल – लिखल – दरद के अनुभव कइल लोक के बात कइल ह। सामाजिक संबन्धन के सघनता के गर्भ से लोकवार्ता के जन्म होला जे अपना में घर, परिवार, समाज, गांव, जनपद, राज्य आ देश समेटले रहेला। व्यष्टि के ना समष्टि के बात करेला। भोजपुरिया समाज ‘ मैं ‘ ना जाने।, हम जानेला, लोक जियला, , समष्टि बुझेला। भगवती प्रसाद द्विवेदी लोक के साहित्यकार हईं।इहां के माटी, खेत – बधार, मनई, घर – दुआर, गांव – समाज, चिरईं – चुरूंग, माल – मवेशी, जिला – जवार के बात कइल चाहींना अपना सिरिजना में विधा कवनो होखे। उहां के कहींना कि ‘ ताजिनिगी हम साहित्ये के जीयत रहब।’ साहित्य खातिर जीये वाला मनई द्विवेदी जी सांच पूछीं तऽ अपना साहित्य में लोक के बात करींला उहो लोक रंग के विविध रंग – रस में सराबोर कर। द्विवेदी जी खुद कहले बानीं कि ‘ हमार हर रचना समय से मुठभेड़ करे आ माननीय संवेदना जगावे के दिसाईं जरूरी पहल करे। गांव आ लोक हमरा भीतर आजुवो जिंदा बा आ उहे हमरा के जियतार बनवले राखेला। हमरा भीतर के आकुलता – व्याकुलता हमरा के रचे खातिर अलचार करेले।’ भोजपुरी में द्विवेदी जी के कलम हर विधा के समृद्ध कइले बा। उहां के सद्यः प्रकाशित निबन्ध संग्रह आइल ह ‘ जइसे आमवाँ के मोजरा से रस चूवेला ‘। ई संग्रह दू भाग में बंटल बा पहिला ‘ लोक ‘ आ दूसरा ‘ लालित्य ‘। दूनो भाग मिला के कुल ५७ गो निबन्ध अपना में समेटले बा।

जे लउके से लोक

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द्विवेदी जी जनपदीय जीवन के पहाड़ा पढ़ले बानीं। गांव आ गली के जीवन उहां के रचनन में खूब पढ़े के मिलेला जे एहू संकलन में मिलत बा। इहे देखि इहां के लोग ग्राम्य संवेदना के साहित्यकार कहेला आ ई सुनी इहां के गौरवान्वित महसूस करींला। इहां के जहाँ रहींला ओहिजा के हर चीजु के बड़ी सुक्ष्मता से देखि अपना मन में टांक लींला आ ऊ छोट – बड़ बाति उहां के रचनन में झलकेला।एह संकलन में उहां के ई दृष्टि देखे के मिल रहल बा।आजु के जुग में जब पछेया हवा सबके भावत बा ओह स्थिति में पाठक के पुरवा के झकोर के महत्व बतावत ई संग्रह लोक संस्कृति के विविध रंग परोसले बा।एह तरह के रसगर लोक साहित्य परोस नया पीढ़ी के सामने लोक से जुड़ल संस्कृति के रखे के के एगो बरियार कोशिश कइले बानीं रचनाकार एह संकलन में।आजु के व्यक्तिवादी विचारधारा समाज के/ लोक के निगल रहल बा। दिमाग में बइठ गइल बा कि समाज से का लेवे के बा। आदमी ई भुला गइल बा कि समाजे के कारण व्यक्ति के अस्तित्व बा। अपना परिवेश से कटी रहल बा मनई।जल, जंगल, जमीन के मूल्य नकार रहल बा। धरती – आकाश के बीच मिलल प्राकृतिक संपदा से सांस चल रहल बा एह बाति के दरकिनार कर बढ़ रहल बा मनुष्यता के नया परिभाषा गढ़े लोक से हटि के। अइसना में लोक परब, लोक कथा, लोक संस्कार आ संस्कृति, लोक मेला के बाति बड़ी सरस ढ़ंग से एह किताब में करत द्विवेदी जी खाड़ बानीं हमनी बीच। इहे सब नू लोक जीवन के अंग ह। खाली लोक जीवन के विविध रंगे नइखी परोसले एहिजा उहां के, लोक जीवन के रंगन के नया परिवेश में पुनर्पाठ करि नयो रूप ओकर देखवले बानीं। लोक जीवन के सामाजिक सरोकार सामने रखले बानीं। भोजपुरिया लोक आ भोजपुरिया संस्कृति के मनोरम चित्र देखे के मिलत बा एहिजा। ‘ बाकिर अभावो में लोक संस्कार आ लोक संस्कृति भोजपुरिया लोग – लुगाई के जिनिगी के जियतार बनवले राखेले’ रचनाकार के कथन भोजपुरिया लोक के जमीनी सांच हऽ। लोक जीवन के क्षरण होत देख रचनाकार चिंतित बा आ सवाल समाज के सोझा रखत बा कि भोजपुरिया लोकजीवन आ खाँटी माटी के मन मिजाज के माफिक का ऊ सोन्ह – मीठ अहसास फेरु ना लवटी? लोक संस्कृति के धरोहर लोककथा के बचावे खातिर लेखक के मन में व्यग्रता बा अपना खातिर ना लोक खातिर काहे कि आवे वाला पीढ़ी खातिर ना संरक्षित कइला पर हरदम खातिर मटियामेट हो जाई। कहीं रचनाकार लोक आस्था के परब छठ के बहाने डूबत सुरुज लेखा बूढ़ – पुरनिया बाप – महतारी के इज्जत – मान देवे के, साझा संस्कृति के पाठ त कहीं फगुआ के बहाने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आयातित अपसंस्कृति के छोड़ कुदरती सहजता के ओरि लौटे के पाठ, कहीं निमिया के डाढ़ि मइया के बहाने पर्यावरण संरक्षण आ बेटी बचावे के संदेश त कहीं होरी, चइता, डोमकच, गारी, के बहाने लेखक साझा संस्कृति आ प्रेम आ सिंगार के लोक लुभावन तथ्यन से परिचित करावत बा एह संकलन में। ददरी के लोकमेला खाली पशु मेला ना ह, ऊ लोक-संस्कृति के आदान-प्रदान आ धरमाचरण के पाठो पढ़ावला ई बात लोक मेला ददरी आलेख से स्पष्ट बा।चिरई – चुरुंग के बहाने गिद्ध संरक्षण के बात त करते बानीं,साफ शब्दन में लेखक कह देले बानीं कि चिरई – चुरुंग,गोरू – माल बाची तबे जिनिगी जियतार बनल रही, नाही त ई दुनिया भूत के डेरा बन जाई। लोक से लेके लोक के जगावे के, लोक के बाति करत आजु ओकर महता बतावे के साथे लेखक लोक के गठरी में छुपल थाती के बड़ी सहियार के सामने रखे के प्रयास कइले बाड़ें आ इहे लोकवार्ता के उद्देश्यो होला।लोक के आंगन की परिधि ओतने बड़ होखेला जतना कि मानव-जीवन के विस्तार आ मानव-जीवन के संभावना होला ।जीवन खातिर जइसे दसो दिशा खुलल रहेला, ओसहीं लोक के आंगन के सभ दिशो खुलल रहेला, काहे कि लोक के अध्ययन मनुष्य अउर मनुष्य जीवन के अध्ययन ह। लोक के अध्ययन के एगो प्रयोजन इहो होला कि हमनी का एह बात के समझ लीं जा कि किताब आ शास्त्र के बाहरो ज्ञान – विज्ञान के परंपरा बा। लोक संस्कृति के अध्ययन के इहो प्रयोजन ह कि विविधता में एकता के खोज।एह संकलन के एह भाग में संकलित आलेखन से गुजरला पर द्विवेदी जी हमनी के सामने एगो बड़ लोकवार्ताकार के रूप में त उपस्थित बड़ले बानीं साथे लोकवार्ता के प्रयोजन जे होला उहो में उहां के सफलता मिलल बा एकर गवाह ई किताब बा। बिलाइल जा रहल लोक संस्कृति के थाती के एगो खास अंदाज में दर्ज कइल गइल बा एह संकलन में। एगो खास एह से कि लोक-संस्कृति के माध्यम से देश – दुनिया के सामाजिक संबन्धन के समझे – समझावे के साकारात्मक रूख अपनवले बानीं रचनाकार।

लालित्य लहरी

एह संग्रह के दूसरा भाग ‘ लालित्य ‘ में मनोहारी रम्य रचना परोसले बानीं रचनाकार उहो लोकरंग जस बहुरंगी। लेखक के लोक पर कवनो बात थोपे के ना चाहीं। लोक के बात के लोक में एह तरह से रखे के चाहीं कि ओकरा आपन हित के बात लागे।एह खातिर लालित्य जरूरी होला। रुचिकर केकरा ना भावे।एह मशीनी जुग में मनई खुद मशीन हो गइल बा।भाग दउड़ में जब सांस लेवे के फुरसत नइखे आदमी के त बोझिल साहित्य खातिर के भार के उठाई। अइसना में साहित्य के सरस आ ललित होखे के भाव भरल जरूरी बा आ इहे पाठक के अपना से जोड़ में आजु कारगर साबित हो रहल बा।ओकरे नतीजा बा कि कथेतर गद्य के अनेक विधा पाठक के अपना नजदीक आज तेजी से खींच रहल बा। एह संकलन के ‘ लालित्य ‘ संभाग में कुल २४ गो आलेख संकलित बा।एहनी के लालित्य के परख कइला पर मिलत बा रस से सराबोर माटी से सुगंधित भाषा, व्यंग्य के कटाह धार, जीवन के व्यापार, राजनीति के कारोबार, गाँव आ जवार, मनई के गोहार, अबला के पुकार, माई के दुलार, घर आ संसार आदि जे हम मनई के जिनिगी के अंश ह आ भाषा के रम्यता जे पाठक के अपना से बान्हि के राखे में सफल बा। अधिकतर आलेख अपना अंत में पाठक के आगे एगो ओकरा जिनिगी से जुड़ल सवाल छोड़ जाता जे पाठक के आलेख में वर्णित तथ्यन पर विचारे खातिर वाध्य कर देत बा। भौतिकता के लबादा ओढले मनई अपना में आज नइखे रह गइल। अइसना में जब लेखक गांव – खेत – बधार में जात बा त नगरीय जीवन बोझ लागत बा।’ उगे रे मोर सुगना ‘ में लेखक के कथन कि ‘ ऊ नगर हमरा सोना के पिंजड़ा लागत बा,जहवां हम एगो चिरई लेखा अपना गांव खातिर उदास होके तड़फड़ात रहींले।’ आगे इहो कह रहल बाड़न कि शहरीपन के ओढ़ल लबादा के अपना अस्तित्व से परे फेंक लोकगीत के एगो कड़ी गुनगुनाए लागत बानीं –

तोहरा महलिया के उंची अटरिया

से डर लागे,

मोरी टुटही मड़इया

सुन्नर लागे।

रोजी – रोजगार के चक्कर में मनई अपना परिवेश से दूर भले होखे बाकिर ओकरा जिनिगी भेंटाला अपना परिवेशे में भले अभाव के जिनिगी होखे।एह तथ्य के उजागर करत ई आलेख पाठक के गांव में ले जाके पटक देता जहां ओकर आपन जड़ बा।

‘ उलटा – पुलटा ‘ में व्यंग्य के मारक शक्ति देखल जा सकेला जे आजु के साहित्य के नंगा करि रख देले बा – ‘आजु – काल्ह के ई शख्स तो लीखिए छोड़िके ना, बलुक बान्हो तूरिके सभका के बहा ले जाए आ डुबावे प आमादा बाड़न। इहां त निराला आ गालिबन के भरमार बा।भलहीं इन्हिकर कहल या त ई खुद समुझसु भा खुदा समुझसु, बाकिर लीखि छोड़ेके का निराला अंदाज बा एह लोग के! पहिले लिखात रहे गजल आजु ई रचत बाड़न आजाद ग़ज़ल। दोहा के जगह दुमदार दोहा एहीसे नू गढ़ात बा कि बेगर दुम के भला कहवां हम आ कहवां तूं।अब गीत का जगहा अगीत आ तुकान्त के जगहा अतुकान्त लिखे के फैशन बा। बेतुकी के एह दौर में सोझ – सांच तुक रचके भला तुके का बा।’

समय के बदलल चाल देख लेखक कह रहल बाड़े कि अब रउवो त कुछ बोलीं – का खुदे उलटा – पुलटा खेलिब, ओह घाघ खेलाड़िन के खेले देबि का खेल बिगाड़े के दिसाईं जरूरी पहल करबि ?ई सवाल निश्चित रूप से पाठक के भीतर से झकझोर के रख देत बा।

‘ आम बनल खास ‘ में आम आदमी के के जिनिगी के रूप लेखक जे रखले बाड़ें ऊ जमीनी हकीकत ह।ओह में कल्पना के कवनो जगह नइखे देल गइल।

‘ जइसे मेहरारू के देवी कहे के चलन बा, त ओकर आबरू लूटे के छूटो बा – किछु ओइसहीं ई आम आदिमी जनतंतर के मजबूत पाया होला, तो लातमारू जीवो होला।फलन के सरताज होला आम,तो जनआंदोलन के सिरमौर होला आम आदिमी।’

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महान लोकतंत्र के ई बन्हुआ मजूर आ आजाद देश के ई गुलाम आम आदिमी बेचारा त होला, बेचारगीए एकर गहना होला।राजनेतन के एकरा के बरगलावे के हक हासिल बा।

जब समय आजु झूठ के बा, त रचनाकार अपना आलेखन के माध्यम से सांच परोसले बाड़ें उहो जन से जुड़ल, जे एह संकलन से गुजरला से देखे के मिलत बा।सांच पूछीं त आँखिन देखल के रखल गइल बा कागज पर लालित्य में लपेट एह से कबीर वाला तरकस के तीर भले जनि महसूस होखे बाकिर इहो तीर कम नइखे। ई बाति हम एहू से कहनी ह कि कबीर के कुछ सपना रहे जे आजुवो सपने बा, इहे देखि खाली हमीं खाइबि – पियबि,सुख से जीयबि, बाकिर दोसरा के जीयल मोहाल कऽ देबि के समाजनीति के देखत लेखक के एहिजो सवाल बा कि का हम बड़ – छोट एक – दोसरा के सुख – दुख बांटिके ना जी सकेलीं जा? जदी हं, त ऊ दिन कब आई, साहेब ऊ दिन कब आई ? एगो बड़ सवाल सरकारे से ना,समाजो से, हमरो – तोहरा से।

‘ लोटा डूबल, लोटकी डूबल, डूबल प्रीत गगरिया रे ‘ में लोटा के गुनगान, त ‘ गमछा बा त का गम बा! ‘ में गमछा के गुनगान, ‘ सवाद के सरताज फुटेहरी ‘ में लिट्टी के त ‘ दिल के दिया, नेह के बाती ‘ में दिया दियरी के गुनगान के बहाने भोजपुरिया संस्कृति के बखान, ओह में से लोप होत लालित्य आ बाजारवाद के असर के बात बड़ी रमणीक ढंग से प्रयास कइल गइल बा।’ पिपरा के पतवा सरीखा डोले मनवा ‘ वन, बाग – बगइचा, गांछ – बिरिछ के सफाया आ बढ़त कंक्रीट के जंगल के देखि पर्यावरण जइसन जन सरोकारी आ वैश्विक समस्या के बात उठावल गइल बा।ई बाते – बतकही के संकलन ह,एह प बात कइला से बाति ओराई ना। लेखक के कथन ‘ हंसी – खुशी के खनक, बानी के मिठास आ सुभाव के सरलता – सरसता जिनिगी के पतझरो में बसंत के मीठ सुवास फइलावत रही आ तन – मन के सुवासित करत ही’ के माफिक हमहूं कहब कि संग्रह में संकलित सरस आलेख पाठक के मन के सुवासित करे आ अपना से जोड़े में सफल रही, ई विश्वास के साथ कहल जा सकेला।

समय के नब्ज पर हाथ

समय के साथे लोक बदलेला, लोक से जुड़ल संस्कारों आ संस्कृति में बदलाव आवेला। बदलाव प्रकृति के नियम ह बाकिर एकाएक बदलाव ना आवे।समय तेजी से बदलेला बाकिर लोक में बदलाव गते – गते करवट लेला, एह से समय के नब्ज पर हाथ रखि लोक में आइल बदलाव के साथे मनई के अपना के बदले के चाहीं। साहित्यकार के नजर दूर ले देखला , ऊ समय के आवाजो सुनेला आ मनो मिजाज परखेला समय के नब्ज पर हाथ रखि। समय के पारखी के कदम खुद मंजिल पास आके चूम लेला। द्विवेदी जी एह लोक बदलाव के बदलत करवट पर नजर राखत लोक के सचेत करे के बरियार प्रयास कइले बानीं एह संकलन में संकलित ललित निबंधन के माध्यम से।ई एगो साहित्यकार के लोक धर्म ह आ ओहि के खूब नीमन तरह से निबहले बानीं एह संकलन में। संकलन के एह भाग के नाम देले बानीं ‘ बदलाव के सुगबुगाहट ‘ ।एह भाग में कुल १६ गो आलेख संकलित बा।

‘ कर बँहिया – बल आपनो, छाड़ि विरानी आस ‘ भोजपुरिया समाज के मूल मंतर ह ओह में वैश्वीकरण बाजारवादी दौर में आइल बदलाव के नाप – जोख के भोजपुरिया समाज के बदलत तेवर के बड़ी सुन्नर आकलन देखे के मिलत बा एह भाग में। समाज के बदलत तेवर कई गो नया सवाल समाज के आगे खड़ा करत बा।ओह अनेकन उठल सवाल पर विचार देखे के मिलत बा बड़ी गंभीरता से चाहे ऊ कवनो विषय होखे। समाज के अस्मिता,माई बोली, नारी शिक्षा आ समानता, लोक आसामूहिकता , सामाजिक समरसता, पठन – पाठन, उचित इलाज के अभाव, गांव में पइसत जा रहल शहरी बीमारी, फैशन आ सेक्सी इंकलाब, दहेज दानव, बलात्कार, कोरोना कल्चर, पर्यावरण, अश्लील गायकी,एकल परिवार आदि जइसन सम सामयिक विषयन पर खुल के विचार जन के पक्ष में समय आ समाज के नब्ज पर हाथ रखि आ परखि रखले बानीं रचनाकार एह संकलन में।

लोक आख्यान 

एह संकलन के हमनी का स्वाभिमानी भोजपुरिया लोक के लालित्य भरल कथेतर के रूप में देखि सकींला जा। लोक मनुष्यता के पाठि पढ़ावला, समरसता के ओरि ले जाला मनई के। डॉ जयकांत सिंह कहींला कि भारत एगो अद्भुत सांस्कृतिक देश ह। इहां क्रान्ति ना संक्रांति होला। संघर्ष ना संपर्क- संवाद – सहमति- सहचार के धारा चलेला।ई संकलन हमनी के मनुष्य होखे के इयाद दिआवत संपर्क , संवाद, सहमति, सहचार राह के ओरि ले जाये के प्रयास के एगो सफल प्रस्तुति ह जेह में गाथा आ काव्य दूनों के रसगर मिलाप देखे के मिलत बा। सांच पूछीं तऽ भोजपुरिया समाज के पांच – छव दशक के बदलल जन परिवेश आ बनल मानवीय सार के गहिर तल में पसरल यथार्थ के दस्तावेज ह। कृत्रिमता आ कल्पना से दूर संकलन में वर्णित चरित्र, दृश्य, रूपकात्मक भाषा आ काव्यमय उड़ान पाठक के मन के संवेदना खातिर छलांग के काम करत बा। संकलन में शामिल सब रम्य आलेखन के अंतिम में पहूंचला पर लेख के सार्थकता दीप्त हो उठत बा जेकर भावानात्मक आवेग देखत बनत बा।कहे के माने कि आलेखन में संवेदनात्मक गहनता भरपूर बा।जनवाद के बात करत बा लेखक बाकिर लेखकीय दृष्टि क्लासिकल जनवादी समझ से अलग बा। सही मायने में ई संकलन जन के भितरिया ताकत जुटावे के उतजोग संबंधित आलेखन के संकलन बन पड़ल बा। लोक संस्कृति के ज्ञान मनई के कठिन से कठिन समइयो में जीये के ताकत प्रदान करेला। आजु विकास लउकत बा चहुंओर बाकिर मनई भीतर से खोखला होत जात बा।हाल उहे बा ऊंच दुकान बाकिर फीका पकवान। हमनी का टुकुर- टुकुर देख रहल बानीं जा कि पछेया बयार में सब कुछ उड़ल जा रहल बा , जीवन-शैली आ जीवन-दर्शनो ! साथे साथ भाषा ,कला ,संगीतो । बाजारवादी दर्शन ! नाता रिश्ता  मुनाफे खातिर ! अपना खातिर! खाली आपन -आपन चिन्ता ! बाजारवाद मनुष्य के अकेला बना के मारेला ! एह कारण से लोकदृष्टि के महत्त्व आजु बढ़ गइल बा। अइसना में एह तरह के संकलन के महत्व बढ़ि जा रहल बा भटकल मनई के राह दिखावे खातिर।नींन तूरे आ जन के जगावे खातिर।एह रचनात्मक पहल खातिर निबंधकार साधुवाद के पात्र बानीं।ई पहल गांव के, जे देश के आत्मा ह, बचावे खातिर जरूरी बा ना त डफली लेके कैलाश गौतम के गीत गावे के पड़ी – ‘ गांव गया था,गांव से भागा।’

आखिरी बात इहे कहब कि संग्रह से गुजरला पर पाठक के कहे के पड़ी कि संकलित आलेख निबंधकार के गहन आ सूक्ष्म संवेदना के परिचायक बा। तथ्यन के सटीक विश्लेषण वर्णन क्षमता के उजागर करत बा।जीवन के सपना दिखावत संकलित आलेख निबंधकार के एगो सजग आ प्रौढ़ निबंधकार के रूप में सामने खड़ा कर देत बा। हास्य , व्यंग्य से भरपूर मुहावरेदार भाषा आलेखन के मिठास बढ़ावे में सहायक बा। भोजपुरी के निबंध संसार के समृद्ध करत एह पठनीय संकलन के भोजपुरी साहित्यांगन में चहुंओर स्वागत होखी एह संकलन से गुजरला से ई कहे में हमरा कवनो दिक्कत नइखे बुझात। द्विवेदी जी सतही निबंधकार ना हईं उहां के सतह के नीचे छिपल जीवन सत्य आ लोक रंग के उजागर करेवाला एगो नायाब निबंधकार हई, ई संकलन एह के प्रमाणित करत बा।

 

किताब – जइसे आमवाँ के मोजरा से रस चूवेला

लेखक – भगवती प्रसाद द्विवेदी 

विधा – निबन्ध संग्रह

प्रकाशक – सर्वभाषा प्रकाशन,नई दिल्ली

मूल्य – 350/- पेपर बैक में।

 

कनक किशोर

राँची ( झारखंड )

चलभाष – 9102246536

 

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