स्मृति में बसल गाँव के कहानी के बहाने लोक-संस्कृति आ जिनिगी के बयान

दो पल अतीत के ( मेरा भी एक गाँव है) हरेराम त्रिपाठी ‘ चेतन ‘ के हिन्दी में सद्य प्रकाशित पुस्तक जब हाथे आइल त ई जान के खुशी भइल कि एह संस्मरणात्मक कथेतर गद्य के माध्यम से एगो विद्वान भोजपुरिया आ उनुकर गाँव के नजदीक से समझे बूझे के मिली।दू दिन में किताब एक लगातार पढ़ गइला के बाद ई देखे के मिलल कि किताब भले ई हिन्दी में बा बाकिर पन्ना – पन्ना में भोजपुरी के सुगंध बिखरल बा।ई किताब अगर भोजपुरी में रहित त भोजपुरी साहित्य खातिर एगो धरोहर साबित होखित ई हम बिसवास के साथ कह सकत बानीं।इहे देख के हम एह किताब पर आपन बात भोजपुरी में रख रहल बानीं। चेतन जी पर कुछ लिखे जात बानीं त मन दउड़ के ओह स्मृति वन में चल जात बा जे उहां आ उहां के गाँव के बारे में पहिलहूं उहां के मुँह से सुने आ कुछ सानिध्य में देखे के मिलल बा। संस्मरण यथार्थ के जतने नजदीक होला ओतने सुंदर आ जीवंत बन पावला।पचासी बरिस के जिनिगी के स्मृति वन में इयाद के जमीन पर कतहूं – कतहूं काई जाम जाला।समय के बहत बयार से बतिआवत कतहूं हरियर दूब त कतहूं जंगल झाड़ उग आवेला। ओकरा के उतकेर – खोद – धो के चमकत चट्टान के नियर करि इयादन के बटोर रख देल सबके बस के बात ना ह। ई काम के अंजाम देल चेतन जी जइसन साहित्य साधक से संभव बा ई बात हम एह से कह रहल बानी कि समय के सब सरहद के पार करि धीरे-धीरे स्मृति वन में टहलत लोक संस्कृति आ माटी से जुड़ल तथ्यन के बटोरत ओकरा के ठीक ओही रूप में शब्दन में बान्हि के ओसहीं रखल जइसन सोच आ चिंतन के एकाग्रता के क्षण में उहां के भीतर ओकर सुनर बिंब बनल बा एगो कठिन काम ह। चेतन जी कवनो आलेख असहीं ना लिखींना ओह में डूब के बड़ी बारीकी से बिचार करके गझिन बुनावट में पाठक के सामने रखींना जेकरा से गुजरला पर पाठक के लागेला कि आँखिन के आगे फिल्म चल रहल बा।एह संकलन में गाँव, जवार, गंगा, परिवार, विद्यालय,खेत- बधार, बाग – बगईचा, जीयल जिनिगी आपने ना ईया – बाबा, गोतिया – देयाद,काकी – फुआ, चाचा – भइया, वैद्य – डाक्टर आदि सबके बड़ा सहियार के रखल गइल बा जे अपना के पाठक से अइसन जोड़ लेता जइसे ओकरा में वर्णित ढेर घटनन ओकरो जिनिगी से जुड़ल रहल बा। जिनिगी के साथ सुख – दुख, धूप – छांव, ऊंच – नीच कदम मिला के चलेला रचनाकार एह गहिर अनुभूति के बड़ा नजदीक से अनुभव कइले बाड़े बाकिर हमनी के हतास कहीं नइखे लउकत एह संस्मरणात्मक आलेख में। विपरीत समय में, संघर्ष के समय, समय के साथ धर्य धारण कर बढ़त रखे के सीख देत नजर आवत बा। चेतन जी के व्यक्तित्व के प्रभाव उहां के लेखन पर देखे के मिलेला। भीड़ों में दूर से चमकत चौड़ा माथ, ब्रासलेट धोती पर मटका के कुर्ता,खिलल – खिलल चेहरा जेकरा कवनो कोना में शिकन ना लउके,कुल मिलाके एगो प्रफुल्ल आत्मविश्वास से लबरेज जिंदादिल इंसान जेकरा होंठ पर मुस्कान खेलत रहेला आ उदासी कोसों दूर, उहें जस उहां के कृतित्वों में नाकारात्मक के जल्दी जगह ना मिले।ऊ एह संकलन में लउकत बा।

मुक्तिबोध एक जगह आपन कविता में कहले बाड़े कि हमनी का तमाम लोगिन के चिंता करींला जा, तमाम चीजन में उझराईल रहींला जा जेकरा कारण नजदीक के आत्मीय लोग छूट जाला। बाकिर एह संकलन से गुजरला पर ई कमी कतहूं महसूस नइखे होत।गाँव के छोट – बड़ सभको के समेटले बानीं लेखक एह संकलन में। अउर त अउर ई किताब समर्पित बा गाँव के सभ जातियन के पुरखन के,जे लेखक के गाँव के लोगिन से जुड़ाव आ प्रेम के परिचायक बा। संस्मरण की दुनिया में एह सब ठोस इंसानी तत्व के रहला से ओकर विश्वसनीयता आ प्रमाणिकता बढ़ जाला। बात प्रमाणिकता के आइल बा त बतावत चलीं कि एह संकलन में रखल एतिहासिक भा सामाजिक बातन के सप्रमाण रचनाकार रखले बानीं। संकलन हो चाहे व्यक्तिगत साक्षात्कार लेखक वैचारिक असहमति के प्रकट करे में कबो हिचकिचाले ना उहो बिना मलिनता आ वैमनस्य के।सत्य के सामने रखे में लेखक कबो पीछे ना रहीं ई संकलन में वर्णित अनेकन घटना एकरा के प्रमाणित करत बा। लेखक के गाँव आ जिनिगी के कहानी से गुजरला के बाद मस्ती भरल जिंदगी जीयल, घुल-मिल के,रम के चीजन,घटनन, दुनिया आ लोगिन के जीयल का होला ई लेखक के जिनिगी के कहानी खुद बखान कर रहल बा जे पाठकों के जिनिगी के राह आसान करे में, बहुत कुछ सिखावे खातिर नया राहि सामने रखे में सफल बा। निराला जेकर आदर्श कवि हवे ओह व्यक्तित्व के कहानी ह ई संकलन। कहे के माने बिना अकड़ के फक्कड़ के जिनिगी के कहानी ह ई संकलन ‘ दो पल अतीत के ‘।

एह संकलन में रचनाकार संजीदा होके आपन जिनिगी के सब दुख – सुख, दरद, उलझन आ परेशानी के एह तरह से परोसले बानीं कि लागत बा कि आपन जिनिगी के एक – एक रेशा खोलि के पाठक भीरी रख देल चाहत बानीं।एकर उद्देश्य इहे बा कि आज आदिमी ओह मजबूरियन के समझ सके जेकरा बीच जीये पड़ रहल बा वर्तमान में। जिनिगी के डहर में कहर भरल रहेला।कहर तुड़े के भरसक कोशिश करेला जिनिगी बाकिर कुछ लोग टूट के बिखर जाला, कुछ लोग कहर के भंवर में फँस कतहूं के ना रह पावे बाकिर चेतन जी जस जीव कहर से संघर्ष कर चमक के सामने आ आपन राह खुद बनावेला ई उहां के जिनिगी के कहानी बयान कर रहल बा एह संकलन में। संपन्न परिवार में जनमल,ठाठ के जिनिगी जीयत रचनाकार के शारीरिक आ आर्थिक दूनों थपेड़ा बेर – बेर तुड़े के कोशिश कइले बा बाकिर चेतन जी रूप बदल नया रूप में सामने अइनीं दुनिया के ई बतावत कि हम जंगम ना हईं चेतन हईं।एकरो पर जिनिगी के राह में आर्थिक विवशता मजबूत दीवार बन खड़ा होके अजबे तस्वीर पेश कइलस कि प्राध्यापकी छोड़ि छोट – मोट काम कर आपन खर्च जुटावे के बाध्य भइनीं। बाकिर जवन काम कइनीं मन से कइनीं। एह तमाम विघ्न वाधा के बावजूद साहित्य लेखन बाधित जरूर भइल बाकिर रूकल ना जेकर नतीजा रहल कि हिन्दी आ भोजपुरी के पचास से अधिक कृति हमनी बीच दे पवनी आ आजुवो सृजनशीलता में कवनो कमी नइखे आइल। संकलन से ई बातों सामने आवत बा कि रचनाकार के जिजीविषा आ साहित्य सृजनशीलता वर्तमानो में अपना राहि डेगरगर बढ़ि रहल बा। चेतन जी के रोबदार आवाज, चमकदार चेहरा, आबदार आँखि आ माथ पर फर वाली टोपी कह रहल बा कि उहां के लेखन के दुनिया में अबहीं बहुत कुछ देवे के बा। ‘ दो पल अतीत के ‘ चेतन जी के गाँव खाली चारघाट के कहानी ना ह ई आचार्य चेतन के आपन जिनिगी ह, लोकाचार आ लोक संस्कृति के बखान ह, माटी के पहचान ह,कुल गोत्र के उड़ान ह, गंगा के नहान ह, शाहाबाद आ चेरो खेरवार के इतिहास ह,जे सांच पूछीं तऽ कहानी से बढ़के रोमांचक, यथार्थ आ जिंदादिली से भरपूर कहानी ह। जेकरा भीतर करूणा बहत, अपनईती के सोत फूटत, प्रेम के जोत जरत, नेह के उफान उठत त मिलते बा साथे सोरह संस्कार,वेद – पुराण, उपनिषद के ज्ञान भेंटाता। आचार्य चेतन त बड़हन हइये हईं, बहुत बड़हन एकर सबूत बा ‘ मेरा भी एक गाँव है ‘ के कहानी चेतन जी के जुबानी।

‘ दो पल अतीत के ‘ (मेरा भी एक गाँव है) दो खण्ड में बंटल बा। खण्ड एक में ‘ मेरा भी एक गाँव है ‘ , में लेखक के गाँव चारघाट के साथे शाहाबाद के इतिहास आ भूगोल प्रमाण के साथ देल गइल बा। खण्ड दू ‘ दो पल अतीत के ‘ लेखक के कुल – गोत्र, जीवनी,गाँव के पूर्व आ वर्तमान के हाल के विस्तार से वर्णन कइल गइल बा जे खाली चारघाट के कहानी ना ह,ओह सब गाँव आ गंवई के कहानी ह जे माटी से जुड़ कतहूं रहला पर गाँव से अलग नइखे हो पावत  आ सांस – सांस में गाँव के बसवले रहत बा। पहिला खण्ड के शुरुआत गाँव आ ग्राम शब्द के उत्पत्ति,गंवई के अर्थ से भइल बा। जेकरा में उल्लेख बा कि सबसे पहिले पुर आ ग्राम शब्द के प्रयोग आ गाँव के अर्थ में उल्लेख ऋग्वेद आ अथर्ववेद में भइल बा। जेकर संपुष्टि ओह वेदन के मण्डल आ सूक्तन के साथ कइल गइल बा।गाँव के वैदिक कालीन संरचना की अवधारणा के बड़ा सुक्ष्म विष्लेषण लेखक प्रस्तुत कइले बाड़ें जेकरा में पारिवारिक ईकाई के गठन,गार्हपत्य संस्कृति के विकास आ गाँव के संरचनात्मक गठन पर विचार कइल गइल बा। बदलत परिवेश में हजारों वर्ष से निर्मित पारिवारिक अउर गाँव के सामुहिक काया जे सामाजिक संवेदना के डोरी से बन्हाइल रहे काहे ढील पड़ रहल बा, टूट रहल बा एह पर लेखक चिंतित बाडें तब त कहत बाड़ें कि के गाँवन के साहचर्य रस के सोखके,कवना कारण बंजर बना रहल बा? परदेश पलायन चाहे रोजगार खातिर होखे भा बेटी के ससुराल जाये के कारण ऊ दुखद होला, भीतर से तुड़ देला आदमी के।लेखक बड़ा सुक्ष्म दृष्टि गाँव के छोट – छोट बात पर रखत अपना स्मृति के झोली से निकाल पाठक भी रखे के हरसंभव कोशिश कइले बाड़ें। पलायन पर लेखक के शब्द देखल जा सकेला –

‘ परदेश की यात्रा करने वाले व्यक्ति को अपना गाँव छोड़ते समय कितना दुख होता है?गाँव के सिवान पर लोटा के पानी के साथ सिर पर गमछा रखे, कुल्ला करते और पानी पीते समय गाँव छूटने की जो कसक उठती है, उसमें परिवार के प्रत्येक सदस्य,गाँव के यार – दोस्त ही नहीं पूरे गाँव का पानी छूटता है – कशमशाता है।’

गवने, ससुराल विदा होत बेटी के रोआई पूरा गाँव के आँखिन के गिला कर देला।गाँव के सबकुछ सभकर होला।ई समष्टि के भाव, लोक चेतना, संवेदना के छलक गाँव में दिखाई पड़ेला।इहे देख कहल गइल होई कि गाँव में भारत के आत्मा के वास होखेला।इहो सांच ह कि गाँव के समझला बिना भारत के लोक संस्कृति के ना समझल जा सके। बाकिर गांवन से गंवई संवेदना के बिलात देख लेखक के करेजा में टीस उठत बा आ कलम उठा कह दे रहल बा कि –

” कुनह – कलह बाटे,कहसुन दाह बाटे,

आँखिन के सहबा, ना सुलह घरे – घरे।

आँखि चले,मुँह चले, भँहूँ मगरूर चले,

ओठन के, ठोठ के गरूर बा घरे – घरे।

सुनुगे ना चूल्हा – आगि,आगि सुनुगावे सभे,

आगि – घीव स्वाहा के उचार बा घरे – घरे।

कतना तितिमा, लाई लावेली पड़ोसिन ऊ

लँगो – चँगो,लाता – लुती – मार बा घरे- घरे।”

खाली गाँव आ घरे नइखे बदलत।गाँव के रहन -सहन आ प्रकृति में जगह-जगह बदलाव नजर आवत बा जेकरा के रचयिता के शब्द में देखीं –

” साईं,कोदो,टँगुनी ना मकई बोआता खेते

कल्हू में ना तीसी, बर्रे, सरसों पेरत गाँव।

बानी नाहिं गावे, सुने आल्हा ना आषढ़वा में

काने डाली अँगुरी ना दोल्हवा पारता गाँव।

धान के कुटाई, चाहे लाट्टा के कुटाई,

सैफ, बाना अरू गदका ना मूँगरा फेरता गाँव।”

लेखक गाँव के बदलत रूप से,बदलत गँवई संवेदना से चिंतित त बड़ले बा बाकिर बिगड़ल प्रकृति आ प्रर्यावरण के देख चुप नइखे रह पावत तब त कहत बा कि –

” सूखल इनार रोवे, नदी के किनार रोवे,

आम,फुलवार,बंसवार नैन ढारे लोर।

बर, बड़हर, कटहर  ना  गूलर,  तोंत

कहाँ बैठो कोइल आ कहाँ सुग्गा मारे ठोर?

फुदगुदी, तितर, बटेर सपना के बात,

माथ पीटि रोवे चुहचुहिया के बिना भोर।

प्रकृति – सिंगार के उजारि गाँव बेसरम,

बोवत अन्हार मूढ़, खोजत फिर अंजोर।।

ई गाँव के  चिंता वर्तमान के वैश्विक चिंता बन सामने खड़ा बा।पूरा विश्व त्राहि-त्राहि कर रहल बाकिर हमनी का विकास रथ पर चढ़े के चक्कर में प्रकृति के दोहन से बाज नइखी जा आवत। लेखक एह बातन के,पुरान स्मृतियन के कुरेदले बानीं एह संकलन में एकरा पीछे गाँव , परिवार आ अपना के साथे पुरनिया लोगिन के धरोहर स्मृति के दोहरावे के चाह बा जे खाली रचयिता के थाती ना ह, हमनियो के थाती है जे समय के धूर – गरदा से ओझल हो गइल बा बाकिर अपने खातिर ना भविष्य के पीढ़ी खातिर एह थाती के गाती अपना गरदन में लपेटे के होखी जे गाँव आ देश हित में बा।आज राजनीति विचारधारा के नया – नया गढ़ बनावल जात बा, जाति के दुर्ग खड़ा कइल जात बा,पंथ-मजहब के किला पर चढ़ि अजान देल जात बा जे लोक के मंगल सत्ता के ,श्रम अउर प्रतिभा के निर्दय- भाव से, प्रेम आ संवेदना के कुचल रहल बा।पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी  ६दिसंबर१९५३ को  जगदीश चन्द्र माथुर के पत्र लिखले रहन  – we worship the political power ,knowing in our heart of hearts that it is purely temporary। ओहि राजनीति के विकास पथ पर दउड़त विचारधारा लोक के गाँव से दूर कर रहल बा एह षड्यंत्र के समझियो के मनई नइखे समझ पावत।ई संकलन में पाठक के एहू से रूबरू होखे के मिलत बा।

संस्कृति के बिना सामाजिक जीवन के कल्पना असंभव बा अउर परम्परा ना होखित त आदमी अबहियो पशु जस जिनगी जीयत रहित । तबहूं आजुवो कुछ लोग संस्कृति और परम्परा के विरुद्ध बोले से बाज ना आवे। अइसना में  जीवन की समग्रता में परिभाषित करके केहू बतलावे कि  परम्परा और संस्कृति से दूर होत गइला पर सामाजिक, पारिवारिक ,गाँव आ समष्टि के संरचना  ध्वस्त हो जाई, इहे कोशिश कइल गइल बा चेतन जी द्वारा एह संकलन अपना आ आपन गाँव के अतीत में झांक के। संकलन के रचयिता के गांव ह ‘ चारघाट ‘। अपना गाँव चारघाट के इतिहास के खोज में शाहाबाद जिला के इतिहास रचनाकार सप्रमाण खंघरले बानीं एह संकलन में काहे कि शाहाबाद के इतिहास के गर्भ में ‘ चारघाट ‘ के रहस्य छिपल बा। एह खातिर उहां के ईशा पूर्व पाँचवी शताब्दी के शुरू से शाहाबाद जनपद के इतिहास पर नजर डलले बानीं।ई शाहाबाद जनपद के एतिहासिक पृष्ठभूमि पाठक के विशेषकर शाहाबाद जनपद के लोगिन के आपन इतिहास जाने के मौका प्रदान करे में बहुत सहायक बा। लेखक खुद स्वीकार कइले बानीं एह संकलन में कि पंद्रह सई बरिस के इतिहास के जोगाड़ करे में पंद्रह बरिस समय के साथे पचास – साठ हजार रूपेया व्यय कइले बानीं। एहिजा समय आ पइसा के बात नइखे,ई रचयिता के जुनून के परिचायक बा कि आपन गाँव के पहचान खातिर अइसन श्रमसाध्य काम में हाथ लगवनीं। चारघाट गाँव खातिर ई भागीरथी काम चेतन जी के बस के काम रहे दोसरा के बस के ना। उहां के तकलीफो बा कि गाँव में अनेकन सूझ – बूझ वाला लोग आ परिवारो में विद्वान रहला के बावजूद काहे ना केहू के चेतना गाँव के अतीत, गाँव के भौगोलिक मन्थन आ ओकर इतिहास का ओर गइल ? तब सवाल उठत बा ई काहे खातिर? सवाल इहो सामने आवत बा कि संकलन के रचनाकार एह खातिर काहे व्यथित बाड़ें आ का सोच एह श्रमसाध्य काम में अपना के लगवले ? जबाब पड़ताल करे के जरूरत नइखे। संकलन एकर जबाब अपना में समेटले बा। लेखक कह रहल बाड़ें कि गाँव आपन रोपल – उपजावल प्रकृति पर मोहित रहेला। ओकरा अपना भीतर फैलल सामाजिक सांस्कृतिक अन्हार ना लउके।एह काम के दायित्व गाँव के चेतनशील मनई के ह कि सामाजिक आ मनुष्यता के मूल के पड़ताल करि गाँव के धुमिल होत चित्र – चरित्र के पहचान कर पारंपरिक आ सांस्कृतिक मूल्यन के स्थापना खातिर आगे बढ़े। असहीं गाँव के मूल क्षितिज के खोजो के दायित्व ओहि लोगिन के ह।इहे दायित्व के आपन कान्हि पर लेके लेखक आगे बढ़बे ना कइनीं बलुक आपन गाँव के मूल के,नींव के तलास करि हम पाठकन भीरी रख देनीं ‘ मेरा भी एक गाँव है ‘ के रूप में।

इतिहास संस्कृति, परंपरा, विरासत के धरोहर होला। अपना के, आपन माटी के, आपन परिवार समाज के, आपन गाँव आ जनपद के जानकारी बिना इतिहास के खंघरले संभव ना हो पावे।समय के धूर गरदा बहुत कुछ छिपा के रखेला जे इतिहास से ओझल ना हो पावे। साहित्य में इतिहास के घोलमेल ओकर रोचकता बढ़ा देला।एही से साहित्य इतिहास की पीछा ना छोड़े। परंपरा, संस्कृति, विरासत के ज्ञान के बिना आपन जड़ के पहचान संभव ना होखे।इहे कारण बा लेखक अपना जनपद के इतिहास के जड़ खोदि आपन गाँव के इतिहास भूगोल एह संकलन के माध्यम से हमनीं बीच रखनीं।एह संकलन के बहाने शाहाबाद के बड़ा रोचक इतिहास सामने आवत बा आ इहो सामने आवत बा कि आज के धान के कटोरा काल्हु के घनघोर जंगल रहे। शाहाबाद जनपद के इतिहास पर नजर डलला से ई बात सामने आवत बा कि ई. सन ४९६ से शाहाबाद जिला पर चेरो वंश के जनजाति के आधिपत्य रहे।” तवारीख – ए- उज्जेनियाँ ” जेकर लेखक डुमरांव राज के मुंशी विनायक प्रसाद रहन में लिखल बा कि – बनारस से पूरब, पटना आ बिहार से पछिम,गंगा से दखिन आ विन्ध पर्वत से उत्तर के क्षेत्र में चेरो जाति के आबादी ढेर रहे। जंगली जातियन के ई मुख्य स्थान रहे आ इहे लोग एह जगहन पर राजा आ जमींदार रहे।समुचा शाहाबाद जनपद में सात गो भयानक जंगल रहे जेह में दिनों में जंगली जानवरन के आतंक रहे। बाद में उज्जैन लोग आइल जेकर पहिला राजधानी बिक्रमगंज के भीरी कुरुर में बनल रहे।किला के अवशेष अबहियो ओहिजा बा जहाँ लेखक दू दिन रहे विस्तार से छानबीन कइले।ओह किला के उपरी भाग में एगो करिया पत्थर बा जे बराबर बढ़त रहेला।कुरुर के पहिला राजा संतन शाही रहन।इहे उज्जैन वंश चेरो के युद्ध में हराके आपन आधिपत्य स्थापित कइलस। चेरो राजा के चार जगह राजधानी रहे।चेरो वंश के कद – काठी,रहन – सहन, काम – काज, खान  – पान,औजार – हथियार, विधि – व्यवस्था,कर वसुली के तरीका आदि सबके वर्णन बड़ा सुक्ष्म ढंग से संकलन में मिलत बा। राजा हुंकार शाही के साथ युद्ध में करीब दस हजार चेरो मारल गइलन आ जे बांचल से जहां – तहां छुप के रहे लागल। हुंकार शाही बिहिया के दखिन दावां जगल में आपन राजधानी बनवले जेकरा में आजुवो उज्जैन राजवंश परिवार रहेला। बिहिया के नजदीक चीरापुर के जंगल में चेरो के आधिपत्य रहे। हुंकार शाही कई बेर आक्रमण कइले बाकिर सफलता ना मिलल।सन १४२१ में उनके वंशज चेरो राजधानी बिहिया पर आक्रमण कर अपना कब्जा में कर लेलस तब चेरो खरवार जाके ‘ चेरोघाट ‘ में बस गइल। चेरोघाट बड़ा समृद्ध गाँव रहे।सन १६२१ तक छिटपुट छोड़ चेरो राज समाप्त हो गइल। चेरोघाट तबहूं आबाद रहे जेकरा के मुगल आक्रमण कर नेस्तनाबूद कर देलस। ओहि चेरोघाट में लेखक के कुल पुरुष कृष्ण तिवारी धतुरा, कुशीनगर से आकर बसलन ओह घरी ओहिजा खाली  एगो बीन परिवार रहत रहे आ उहें के आपन घर बनवला के बाद गाँव के नाम रखनी ‘ चारघाट ‘। समय के साथ गाँव आपन विस्तृत रूप लेलस त सामाजिक समरसता में गिरावटो आइल। लेखक के मन ई देख कहत बा कि हम जवन गाँव के देखले आ जियल रहीं ओह गाँव के लोग के जीवन आ चरित्र केरा आ पियाज के छिलका जइसन ना रहे। सबके आपन जीवन मूल्य रहे, आपन नैतिकता रहे।गाँव के एगो सामूहिक आ सामासिक सुनर व्यक्तित्व रहे,श्रम आ पसेना के इज्जत करे वाला चेतना रहे।गाँव की पगड़ी के मान रखे वाला मानसिकता रहे। सभे रिसता के चादर ओढ़ि सूतत – जागत आ सीयत – जोगत रहे। सबके खून में गाँव बसत रहे आ करेजा में गाँव धड़कत रहे।जे अब बिलात जात बा।गाँव के पवित्रता हतास आ लोक चेतना रूखड़ात जात बा। विकास के घूंघट ओढ़ले पतन के देखि दरद होला।गाँव आ मनई दूनों मुरझा रहल बा, भीतर से मर रहल बा।ओकरे नतीजा बा कि गाँव आ मनई के लोक चेतना, समष्टि के भाव, अपनइती के नेह बरदास्त के बाहर जाके आपन पांव चउकठ के बाहर रखे के बेताब बा। आपसी खुनस के ताला – चाभी लेले घूमत बा मनई सब स्नेह के भूला के अपनापन भयवधी के आँगन पर लागल दरवाजा के बन्द करे खातिर। अइसन काहे ? ई सोचे खातिर ई संकलन पाठक के बाध्य करत बा ।

गाँव एगो पाठशाला होला बिना किताब, कापी आ पेन के। बहुत कुछ सीखा जाला जे स्कूल काॅलेज में ना भेंटाय।जे सरेख सयान बना देला समय से पहिले।गाँव के गँवारो के बोल सुनि लागेला ई ज्ञान के बात कहवाँ सिखले हाईहन।गाँव के बुढ़ – पुरनिया अनुभव सिद्ध शिक्षक होखेलन।उन्हिन के कंठ से निकलल मुहावरा, लोकोक्ति के गूढ़ रहस्य कवनो वेद – उपनिषद के सुत्र से कम ना होखे।गाँव के मनई के जीवन यात्रा कवनो मार्ग दीपक से कम ना होखे।तवनो पर कहल गइल बा कि छानि के सुने के चाहीं आ घोरि के बोले के चाहीं। हरि अनंत हरि कथा अनंता के लेखा लेखक के गाँव, मनई,कुल – गोत्र, चेरो – खेरवार आ उज्जैन वंश के कहानी से भरल बा ई संकलन जे गाँव के बहाने लोक संस्कृति आ लोक चेतना पर बहुत बतकही करत खाड़ बा पाठक के सामने आ बेर – बेर कहत बा कि मूल से अलग जरूरत पड़े त जरूर होखीं बाकिर जड़ से कटि जनि।

‘ दो पल अतीत के ‘ खण्ड दू मुख्य रूप से लेखक के कुल – गोत्र, परिवार और लेखक के जीवनी से संबन्धित बा बाकिर प्रत्यक्ष भा परोक्ष रूप से गाँव से जुड़ल रहल बा।गाँव से अलग छिनगावल लेखक के संभव नइखे काहे कि लेखक के सांस में गाँव के वास बा। लेखक के कहानी से इहो बात सामने आवत बा कि बचपन से गाँव विद्या के प्राप्ति के कारण कई बेर छूटल बाकिर कारण कवनो होखे गाँव उहाँ के खींच के ले आइल अपना आगोश में।जब रोजी रोजगार के फेरा में गाँव छूटल त लेखक जहाँ रहले गँउवो के अपना साथे ले गइले कहे के माने गाँव कबो लेखक से दूर ना रह पावल ओकर प्रमाण के बयान ई संकलन कर रहल बा। असहीं संकलन से गुजरला पर इहो प्रमाणित होत बा कि लेखक मातृभाषा आ माटी से ओसहीं जुड़ल रह गइले जइसे गाँव से।एकर प्रमाण ई बा कि एह संकलन में उद्धृत अनेकन उदाहरण त भोजपुरी में बड़ले बा साथे हिन्दी वाक्यन में भोजपुरी शब्दन के उपस्थिति जगह – जगह पर बा। लेखक खुद कहत बाड़ें कि – ” कोई भी गाँव समय – संदर्भ का पुनर्वाचन करते रहता है। उसमें कई समूहों की आचार – विचार संबन्धी चेतात्मक ऐतिहासिक सन्निहितियां समय के साथ अग्रसर होती रहती हैं, जिससे गाँव का व्यक्ति – स्वत्व समूह की अस्मिता बन जाता है। प्रत्येक गाँव अपनी उलझी हुई जटिल काया में एक रचनात्मक अनुभूति होता है।गाँव कई – कई भावनात्मक एवं रागात्मक जमीनों पर एक ही काल में,एक साथ ही संचरण करता है और आश्चर्य होता है कि उसकी अन्तर्चेतना,ब्राह स्वभाव और समस्याओं से घुल मिल कर गतिशील रहती है।” ई ऊ सच्चाई ह जे गाँव आ माटी से अलग ना होखे देवे एगो भीतर से जागृत मनई के आ इहे रूप संकलन में निखर के आवत बा लेखक के पाठकन के बीच। लेखक खुद कहत बाड़ें कि – ” मैं पूरे गाँव का हूँ, मेरी चेतना समूचे गाँव से लगाव रखती रही है।मेरा स्वत्व गाँव के समूचेपन में निवास करता है और सांस से दूर रहकर भी गाँव के अतीत, वर्तमान में ही गतिशील रहती है।” लेखक के ई कथन लोकचेतना भा सर्वचेतना के परिचायक बा। अविभक्त चेतना के दर्शावत बा। संकलन में संकलित दूसर आलेखों लेखक के चरित्र के जाति चेतना, वर्ग चेतना, क्षेत्र चेतना, पंथ चेतना के संकीर्णता आ विभक्त चेतना के प्रश्रय देत नइखे मिलत। कहल गइल बा कि लोकचेतना प्रायोजित ना होखे।ऊ खुद पैदा होला आ झरना जस निर्झर झरत आ नदी जस बहत चलेला सामने आइल बाधा के हटावत, आपन राह बनावत। प्रभास जोशी के कहल ह कि इहे लोकचेतना भारत के अकूत ताकत ह।एह लोकचेतना में राजस – तामस के गंध ना आवे, ‘ मैं ‘ मर जाला अउर ‘ हम ‘ जिंदा होके व्यक्तित्व बन जाला।गाँवे ओह सामूहिक शक्ति के जन्मदाता ह जेकरा से जुड़ लेखक के तेज समष्टि के तेज बन आपन किरण बिखेरत उपस्थित बा एह संकलन में।कहलो गइल बा कि लोकवार्ता के अध्ययन के बेसिक रीडर गाँव आ गली ह जेकर दिशा आ प्रयोजन लोकचेतना ह। ओहि गाँव आ गली के कहानी ह ‘ अतीत के दो पल ‘, जेकरा में गाँव के गली वाला मनई बा जे माटी के माई, खेत – बधार के मंदिर आ कर्म के पूजा समझेला त विश्व चेतना के भाव के राग गावेवाला चेतनो जी बानीं जे गाँव से दूर स्वध्याय के तपोभूमि पर धूनी रमवले बानीं।आज जब पछेया बयार तेजी से बह रहल बा आ हमनिये के ना हमनी के जीवन दर्शन आ जीवन पद्धति ओकर चपेट में आ गइल बा। भाषा,कला,संगीतो ओकरा से अछूता नइखे रह गइल। नाता रिसता मुनाफा के बाजारवादी दर्शन पढ़ रहल बा त हमनी का इहो जानलीं जा कि बाजारवाद अकेला बना के मारेला। खोजलो पर घाव पर मरहम लगावेवाला नजदीक ना लउके।एही से आजु लोकचेतना के महत्व बढ़ गइल बा, जेकरा के गाँव आ समष्टि भाव से जुड़के बचावल जा सकेला।इहे देख लेखक एग जगह कहत बाड़ें कि ‘ जब से देखनी शहरिया ए राम कल ना परे ‘।एह संकलन के गाँव के कहानी इहो सनेस दे रहल बा।

आज के जमाना बा कि साहित्यकार आपन बडप्पन गावते बजावत नइखन, थोप देत बाड़न कि ‘मेरे साथ इतना बडा प्रकाशन है ,इतनी बडी कुर्सी है ,इतना बडा मीडिया है ,इतना बडा पुरस्कार है , मेरे साहित्य पर शोध हो गयी है , मेरा गाँव, कूल गोत्र आदि-आदि।’ उन्हिन लोगिन के शब्द के उन्हिन के आचरण से कवनो संबंध ना रहे आ ना उन्हिन के साहित्य के जनता से कवनो लेना-देना रहे ।जनता-जनता, गाँव – माटी त करेला लोग बाकिर गाँव – माटी – जनता से बहुत दूर रहके खाली कागजी आ जुबानी। अइसना में माटी – गाँव – मनई से जुड़ल चेतन जी के ई संकलन में गंवई गंध गुलाब के महक सुवासित करत मिलत बा।एह जमाना में चेतन जी जस साहित्यकार आचरण के सभ्यता सिखावत ई संकलन के साथ सामने आइल बानीं जे गाँव से पाठक के जोड़े में सफल बा।ना त आज के घरी केहू बतावे त कि आचरण से शब्द के केतना रिसता बांचल बा ई बतावे वाला के बा?

अइसे संकलन में गाँव आ लेखक से जुड़ल अनेकन घटना बा जेह पर विस्तार से बात करे के जरूरत बुझात बा बाकिर समीक्षा में सबके ना समेटल जा सके एकर सीमा के देखत। बाकिर कुछ पर बात कइला बिनु बतकही अधूरा रह जाई। अइसने एगो घटना लेखक के दस बरिस के उम्र में घटल रहे।ऊ घटना लेखक के देखल सपना से संबन्धित रहे जे बाद में सांच साबित भइल।एह घटना के आलोक में लेखक सपना के बड़ा सूक्ष्म आ मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एह संकलन में कइले बाड़ें।इहाँ उल्लेख कइल उचित होखी कि हमरा संपादन में ‘आपन आपन रामकहानी ‘ आत्मकथा संग्रह आइल रहे ओह संकलन में एह घटना आधारित आत्मकथ्य ‘  दीया बुता गइल ‘ शीर्षक से शामिल भइल रहे। समय के गति बड़ी तेज़ी से बदलेला। बनारस प्रवास लेखक के आपन बना लेले रहे। लेखक कहत बाड़ें ओह काशी के प्रेम में –

 

मैं भी बना बनारस,बहने लगा अब।

गंग के तरंग,चढ़ी भंग नशा ज्ञान की।।

बाकिर प्रेम के साथ वियोगो जुड़ल रहेला।उहे वियोग लेखक के बनारस से विस्थापन के कारण बनल एगो गलत सिद्धांत से समझौता ना कइला के कारण। जे प्रोफेसर के नोकरी छोड़ा सेठ बना देलस लेखक के। बाकिर शब्द गंध अक्षरधाम के प्रेमी के व्यवसाय रास ना आइल आ लाके पटक देलस राँची, मोराबादी के स्वध्याय के प्रांगण में जे साहित्य तीर्थ बन आपन सुगंध बिखेर रहल बा झारखंड के वादी में। लेखक के शब्द से एह बात के पुष्टि होत बा। लेखक के शब्द – ” चक्रवाती लहरों और झंझावातों को झेलते हुए भी, कभी चौराहे पर अपने दर्द का इजहार नहीं किया। मैंने जीवन में जितना आम को चाहा, उतना ही महुआ,बेल,बेर,बाँस और बबूल से भी प्रीति की।संताप के घरौंदा में संवेदना को पालता रहा, संबन्ध के तिनकों की हमेशा से देख – भाल करता रहा – रेत में जीवन भर ठोकरें खाता रहा।आँखे डबडबाती रही और होंठों पर कनपटी का दबाव बना रहा।” अउर वर्तमान पीढ़ी के उपलब्धि के देखत लेखक के शब्द -” मैं उस किसान की तरह तृप्त हूँ जो अपने खेत में लहलहाती पन्नई फसल को देखकर आह्लादित और आनंदविभोर होता है ” – लेखक के तृप्ति अउर आत्मविभोरता के परिचायक बा उहां के ई बोल।

जिनिगी केकरो होखे,गाँव कवनो होखे अन्हरिया आ अँजोरिया के खेल चलत रहेला। कहे के माने जिनिगी धूप, छांह,चाँदनी आ स्याह के सम्मिश्रण ह। मनई के जीवन एगो कविता ह जेकरा में जिनिगी के छोट – छोट अनुभवन से उपजल संवेदना बिखरल पड़ल रहेला। असहीं ‘ दो पल अतीत के ‘( मेरा भी एक गाँव है) लेखक के मन जगत के स्मृति वन में टहलत अभिव्यक्ति के संकलन ह। लेखक के अंदर रचल – बसल बरिसन के इयाद के दुनिया के खाका ह ई संकलन। सांच पूछीं तऽ ई चेतन जी जस संवेदनशील आ विचारशील मनई के जिनिगी में जहाँ – तहाँ बिखरल विविध रंगन से पाठकन के साक्षात्कार करावत बिया बिना लेखक के विद्वत्ता के धौंस जमवले।एह संकलन में लेखक आपन मन की बात, आपन सोच अउर समाज के प्रति आपन चिंता के बयान कइले बाड़ें। बाकिर लेखक के सोच नाकारात्मक कतहूं नइखे लउकत, सोच आ सपना में भोर के लाली बा, अंजोर के गीत बा। अविनाश चंद्र विद्यार्थी के शब्द में उहां के सोच आ सपना के शब्द देला पर कहे के पड़ी कि –

 

” चह-चह बोल चुचूहिया बोली

जबदल कंठ मुरुगवा खोली

भँवरा पराती गाई, कली के मन मुसुकाई

आई, उहो दिन आई, अन्हरिया राति पराई।

 

डगर-डगर तब होई दल-फल

निसबद रही पाई ना जल-थल

जगरम घर-घर समाई, नगर में सोर सुनाई

आई, उहो दिन आई, अन्हरिया राति पराई।”

 

लेखक एह संकलन में ओह सवालन के गंभीरता से रेखांकित कइले बाड़ें जेकरा से गाँव, समाज आ मनई आज जूझ रहल बा। मौजूदा समाज के लोक संस्कृति आ लोक चेतना से बढ़त दूरी के देख आज के चलन पर प्रहार करे में पीछे नइखन लेखक।एह संकलन के भाषा सरल – सपाट आ शैली बिना लाग-लपेट के बा। लेखक के मातृभाषा भोजपुरी के स्वाद जगह-जगह मिलत बा जे संकलन के मिठास आ संप्रषणियता के बढ़ा रहल बा। कवनो विशेष बिंब – विधान के सहारा ना लेके रचयिता जे कहे के बा ओकरा के सीधा सरल रूप में कह डलले बाड़ें बिना दाँव – पेंच के। कथ्य का दृश्य – विधान संकलन के विशेषता बा जे बहुत कम दिखाई पड़ेला। प्रूफ में बहुत कम गलती, बढ़िया छपाई आ बढ़िया कलेवर में प्रस्तुति किताब के खूबसूरती बढ़ा रहल बा जेकरा खातिर श्री नर्मदा प्रकाशन, लखनऊ साधुवाद के पात्र बा।

बदलत समय आ गाँव के रूप संकलन में देख आपन शब्द के काव्य रूप देल चाहब त कहब कि –

 

गाँव से मनई परा जाई

सहर के खोज में शहर जाई

बाकिर शहर ना अपनाई

गाँव ना गाँवे रही

ना शहर बन पाई

चेतना विहीन मनई के आँख मनई के खोजी

बाकिर मनई ना भेंटाई

गाँव ना भेंटाई।

——

 

संकलन में संकलित कथ्य

एह तरह के किताब

लोक संस्कृति के वर्णन

लोक चेतना के भावना

इयाद दिआई

आपन वजूद के सब निशान के

जे समय के साथ बिलात जा रहल बा गाँव से

मनई त खोजलो से ना मिली

एह से कहब कि पछेया के मुँह

पूरब देने फेरीं

आँखिन पर बान्हल करिया पट्टी हटाईं

अँजोरिया बढ़ी

आ अन्हरिया भागी राहि के

——–

 

लेखक के अपना जिम्मेवारी के अहसास बा

ओकरा भीरी आपन धूप के टूकड़ों बा

बाकिर अकेला होखे के चिंता

ओकरा चेहरा पर नजर आवत बा

गाँव, गँवई आ मनई देख

चारों ओरि फैलल अन्हरिया के देख

ऊ आपन हिस्सा के धूप के टूकड़ा के

टुकी – टुकी करि बाँट देल चाहत बा

गाँव आ लोगिन के बीच

अपना जिम्मेवारी से मुक्त होखे खातिर

विभक्त चेतना के दूर करे खातिर।

——–

 

हमहूं गोवाह बानीं

गंवई गंध गुलाब के

जे माटी से उठेला

खून आ सांस में बसेला

जे देखत – देखत आँखिन के सामने बिखर गइल

इहे कारण बा कि

गाँव घरे अइलो पर

सुकून नइखे भेंटात

सोचत बानीं माथे हाथ धरि तऽ

मन कहत बा कि गुनहगार सभे बा

साथे हमहूं।

——–

 

गाँव आ मनई

संजीदा ना रहल

पत्थर बन गइल बा

ना जाने केकरा सराप से,

अहिल्या जस इंतजार बा

राम के

देखीं अनंत इंतजार के

कब अंत होला,

बिसवास बा

राम अइहन

उद्धार करिहन।

———

 

का रहीं हम?

का हो गइनीं?

गाँव आ मनई पूछ रहल बा

खुद से

देख रहल बा चेतन जी के ओरि कि

जागरण मंत्र दिहें

अन्हरिया भागी

भाग गंउवा के जागी

मनई मनई के देख ना भागी।

——

 

अकेले होखला पर

अकेले ना होखे गाँव के लोग,

विदा होखलो पर

विदा ना होखे गाँव के मनई,

गाँव के मनई के आँखि

चेहरे पर ना होखे

दिल आ मनो में होखेला।

 

——–

 

गाँव के मनई हईं

खरीद फरोख्त ना जानी

घटल – बढ़ल रहेला

आपस में लेन देन चलेला

उधार पंईचा चलेला,

बाकिर पछेया बयार

बाजारवाद हमरो के

मुनाफा के पाठ पढ़ा

आँगन में बाजार लगा देलस।

——

 

संकलन लेखक के जिनिगी के लेखन ना ह

लेखक लिखले बाड़ें

अन्हरिया आ अंजोरिया के बारे में

विकास के पथ आ सून गलीयन के बारे में

अपना जिनिगी के फिसलन आ उड़ान के बारे में

दूसरे के गोड़ के बिवाई आ हाथ में पड़ल घट्ठा के बारे में

गाँव के बारे में,जवार के बारे में

गंगा के बारे में,कटाव के बारे में

चेरो- खेरवार – उज्जैनियन के बारे में

शाहाबाद के बारे में आ अपना पुरखन के बारे में

एही में संकलित बा चारघाट के इतिहास

चेतन जी के विकास

लोक संस्कृति आ संस्कार के बखान

आ स्वध्याय के मकान

आ एही सब के बहाने आपन जीवन यात्रा के पुराण।

 

किताब के नाम – दो पल अतीत के

( मेरा भी एक गाँव है)

लेखक – हरेराम त्रिपाठी ‘ चेतन ‘

विधा – संस्मरण/ जीवनी

पेपर बैक में मूल्य -450/

प्रकाशक – श्री नर्मदा प्रकाशन, लखनऊ।

 

समीक्षक- कनक किशोर 

राँची, झारखंड

 

Related posts

Leave a Comment