भोजपुरिया समाज में ‘भिखारी ठाकुर’ होखला के माने-मतलब

एगो अइसन समाज जहवाँ लइका जनम का संगही पलायन अपना भाग के लिखनी में लिखवा के आवत होखे,जहवाँ आँख खोलते बाढ़, सुखाड़,गरीबी,भुखमरी आ अशिक्षा में सउनाइल समाज लउकत होखे,जात-पाँत, ऊंच-नीच, छुवाछूत, शोषण का संगे लइका बकइयाँ चलल सीखत होखे, जहां दू-जून के रोटी कुछे लोगन के समय से भेंटात होखे, जहवाँ लइकइयाँ से सोझे बुढ़ापा से भेंट होत होखे आ जहवाँ अमीरी गरीबी का बीचे बहुते गहिराह खाईं होखे, अइसन समाज अजुवो आपन लोक,संस्कार आ संस्कृति जोगावत चलल आवत बा, त कुछ न कुछ त खासे होखी।उ समाज अपना भीतरि कतना ऊर्जा आ जीवटता समेटले बा, ओकर सहज अनुमान लगावल मोसकिल बाति ह। जबकि ओह समाज का लोग अभाव के संगे जिनगी के डगर पर डेग बढ़ावे ला सापित होला तबो उहवाँ के माटी सपूत जनमावे में कोताही ना करसु। उहे सपूत लोग अपना संस्कार आ लोक के जोगावे में आपन जिनगी लगा देवेला। ओही भोजपुरिया माटी-पानी में जामल एगो सपूत रहलें भिखारी ठाकुर। भिखारी ठाकुर जेकरा के महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन ‘भोजपुरी क शेक्सपीयर’ बतवलें आ जगदीश चन्द्र माथुर उहाँ के ‘भरतमुनि के परंपरा के नाटककार बतावत नाही अघइलें। बाकि ढेर लोग जगदीश चंद्र माथुर से सहमत ना हो पावेला आ अपना असहमति के पोढ़ कारण गिनावेला। कई लोग त अति उत्साह में कइल टिप्पड़ी कह देला। उहाँ के जातीय संस्कृति के महानायक माने में कवनों शक-सुबहा केहुओ के नइखे। भिखारी ठाकुर जी के ऊपर बरियार आ गहिराह काम खूब भइल बा आ अबो खूब हो रहल बा। भिखारी ठाकुर जी भोजपुरी भाषा आ साहित्य के अनमोल धरोहर हँई , उँहा के हमनी के बीचे नइखे बाकि भोजपुरी भाषा खातिर जवन धरोहर छोड़ के गइल बानी उ कबो ओराये वाला नइखे ।कहल त इहाँ ले जाला कि एह घरी भोजपुरिया छेत्र में कबीर आ तुलसी के बाद भिखारी ठाकुर आ महेंदर मिसिर बाड़ें, जेकर गीत लोक कंठ में रचल-बसल बा।

भिखारी ठाकुर के जनम कुतुबपुर दियारा, जिला सारण में पिता दलसिंगार ठाकुर आ माता शिवकली देवी के इहाँ 18 दिसंबर 1887 के भइल रहे। उनुका जनम तिथि के लेके कुछ विवाद जरूर उठल रहे,जवना के उ अपना जीयते सबके सोझा राख़ दीहलें। विवाद के कारण प्रकाशन के त्रुटि रहल। जवना के विस्तार में विवेचना तैयब हुसैन ‘पीड़ित’ जी  साहित्य अकादमी से प्रकाशित मोनोग्राफ ‘भिखारी ठाकुर’ में कइले बानी। एक बरिस में इस्कूल छोड़ के  भिखारी ठाकुर तीस बरिस के उमिर तक अपना जातिगत पेसा से जुड़ल रहलें। उनुका के अक्षर ज्ञान एगो भगवान नाँव के साहुकार से भइल। जब जातिगत पेसा से जिनगी के गाड़ी चलल मोसकिल होखे लागल त दाम कमाये खातिर घर से पलायन क के बंगाल पहुँच गइलें। मेदनी पुर के रामलीला आ पूरी के रथ यात्रा से उहाँ के भीतरि एगो लमहर बदलाव छूरा (उस्तरा) चलावे आ दाम कमाये गइल मनई  जब उहाँ से लउटला पर नाच के पेसा बना के जिनगी के राह पर डेग बढ़वलें। भिखारी ठाकुर जाति हजाम रहलें  आ उहाँ के चहुंप हर अंगनइया तक रहल। मेहरारून के मन के बात के जाने आ बूझे क एहसे लमहर ओह घरी कवनो दोसर उपायो ना रहल। भिखारी ठाकुर जवना घरी नाच के आपन पेसा बनवलें, ओह घरी नाच के समाज में ढेर बाउर मानल जात रहे। जेकरा चलते उनका के उनुका घरो के लोग बरिजलें।

समाज में पसरल बुराईयन के समुझे खाति ओह समाज के मेहरारून के मन के टोह लीहल सबसे बरियार माध्यम ह।अपना जाति के चलते भिखारी ठाकुर जी के एह में महारत हासिल रहे। बंगाल से लउटला के बाद जब उ नाच मंडली बना के जवन कुछ बहरा से अनुभव लीहले रहलें, ओहके अपना नाच के माध्यम बना के लोगन का सोझा परोसे लगलें। लोगन के ओहमें रस मिले लागल आ लोग उहाँ के नाच देखे खातिर 10-15 कोस पैदल चल के आवत रहे। उहाँ के नाच आ नाटक देखे खातिर 10-15 हजार लोगन के भीड़ जुटत रहे। ई उनके रचनाकर्म आ रंगकर्म के अइसन खासियत का चलते होत रहे जवना में लोगन के भोजपुरी लोक के जिनगी आ संस्कृति दूने के समुआव देखात-भेंटात रहे।

भोजपुरिया लोक के सोझा भिखारी ठाकुर जी के दू गो रूप देखाई देवेला। एगो रूप कवि के आ एगो रूप नाटक कार के। एह बाति के लेके विमर्श होत रहेला कि भिखारी ठाकुर जी पहिले कवि कि नाटककार। बहुत लोग भिखारी ठाकुर जी के मूल्यांकल कवि का रूप में कइले बा आ बहुत लोग उनुका के एगो समरिध नाटककार के रूप में जचले-परखले बा। अइसना में 1947 में अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के दोसरका अधिवेसन जवन गोपाल गंज में भइल रहे, ओहमें अपने अध्यक्षीय भाषण में राहुल सांस्कृत्यायन जी के ई कहल ” लोग का काहें नीमन लागेला भिखारी के नाटक। काहें दस-दस, पनरह-पनरह हजार के भीड़ होला ई नाटक देखे खातिर। मालूम होता कि एही में पउलिकके रस आवेला। जवना चीज में रस आवे उहे कविताई… ।” एगो अलगे रूप बना देता। मने भिखारी ठाकुर जी जाने खाति उनुका के समग्र रूप में देखल जरूरी बा। भिखारी ठाकुर भोजपुरिया समाज के दरद आ अकुलहट के आपन शब्द दीहलें , जवना के भोजपुरिया लोकजीवन के पहिलका प्रामाणिक दस्तावेज़ मानल जा सकेला।

भिखारी ठाकुर के जिनगी के एगो पक्ष कवि आ गीतकार के बा कुछ समीक्षक लोग उनुका में एगो प्रौढ़ कवि के देखले बा आ ओकरा ध्यान में राखि के उनुका साहित्य के समीक्षा कइले बा। एही क्रम में एगो समीक्षक श्री नागेंद्र प्रसाद सिंह जी के कहानगी जवन भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका के भिखारी ठाकुर जन्म शताब्दी विशेषांक दिसंबर 1987 में छपल रहे,देखे जोग बा-

“भिखारी मूलतः रस सिद्ध कवि रहस। इनका नाटकन में आइल गीतन में जहां छंद व्यवस्था बा,उहही लोक संगीत के सुर, ताल,लयआ लोक वाद्यन का साथ सह संचरण बा। …भिखारी मूलतः रस के उपासक रहलन। करूण जब जड़ीभूत होके शांत रस का ओर मुड़े लागे,त ऊ हास्य व्यंग्यके सृजन क के वातावरण के बचा लेत रहन। ”

जवन उनुका के रस सिद्ध कवि माने में कवनो कोताही करत नइखे देखात। अगर हमनी के भिखारी ठाकुर रचनावली, जवना के बिहार राजभाषा परिषद प्रकाशित कइले बा, के संपादकीय में देखब, त उहाँ संपादक नरेंद्र प्रसाद सिंह आ वीरेंद्र यादव जी के मत  बा कि भिखारी ठाकुर के रचना संसार के पचहत्तर प्रतिशत काव्य बा।  उहें खुद भिखारी ठाकुर के कहानगी के बाति बा-

“बिरहा बहार प्रथम मैं गावा”

मने अपना के नाटककार मान रहल बाड़न। अइसना में तुलसीदास जी के ई बाति ढेर कुछ साफ कर रहल बा-

“जाकी रही भावना जैसी। हरि मूरत देखी तीन तैसी। ”

कवनो लोकभाषा के काव्य भा ओह छेत्र के परंपरा लमहर समय तक जीयत रहेलीं, ओकरा पाछे ओकर गेयता मुख्य कारन बा। भिखारी ठाकुर के नाटकन में जवन गीत आइल बाड़ी सन, सब गेय बाड़ी सन,आ लोक धुन पर बाड़ी सन। एकरा चलते लोक में बाड़ी सन, लोककण्ठ में बाड़ी सन। जवन कवि माने वाला समीक्षक लोगन खातिर मजगर आ मजगूत नेव लेखा बा।

अक्सरहाँ ई देखल गइल बा कि कठिन काल जवना में रोजी-रिजक-अस्मत पर खतरा मेड़रात रहल होखे, ओह समय में लिखाइल गीत लोककण्ठ में जरूर जगह बनावेली। चाहे ऊ रामचरित मानस के रचनाकाल होखे भा भिखारी के रचना काल। एगो महीन बाकि जबर साम्यता एह दूनों समय में बा, जवना का चलते तुलसी भा भिखारी अजुवो जन प्रिय बाड़ें। लोक के बाड़ें आ ई लोग के रचना लोक कंठ में बा। इहवाँ भिखारी ठाकुर जी विमर्श के विषय बाड़ें त भिखारी ठाकुर जी के रचना कर्म देखल उचित रही। भोजपुरिया पट्टी के शायद अइसन कवनो घर होखी भा मेहरारू होखिहें जे बेगार ई जनले कि रचनाकार के बा, परिछावन के गीत जरूर गावेलीं-

चलनी के चालल दुलहा सूप के फटकारल हे,
दिअका के लागल बर दुआरे बाजा बाजल हे।
आंवा के पाकल दुलहा झांवा के झारल हे
कलछुल के दागल, बकलोलपुर के भागल हे।
सासु का अंखिया में अन्हवट बा छावल हे
आइ कs देखऽ बर के पान चभुलावल हे।
आम लेखा पाकल दुलहा गांव के निकालल हे
अइसन बकलोल बर चटक देव का भावल हे।
मउरी लगावल दुलहा, जामा पहिरावल हे
कहत ‘भिखारी’ हवन राम के बनावल हे।

हतासा आ टूटन के स्थिति में भक्ति परक रचना ढेर लिखल जानी। लोक रचनाकार अपना लोक के देवी-देवता में अपना ला असरा खोजेला। लोक के ई ढेर भावेला। भिखारी ठाकुर जी लोक के सभे देवी-देवता के स्तुति करत देखात बाड़ें। भिखारी ठाकुर जी काव्य पर रामचरित मानस के संगही महेंदर मिसिर जी के शैली के खूब प्रभाव देखाला। ई एगो अजबे इत्तफाक बा कि भोजपुरी के महान आलोचक  महेश्वराचार्य जी के लिखल एगो निबंध में उहाँ के लिखले बानी-‘जे महेंदर ना रहितें त भिखारी ठाकुर ना पनपतें।  उनकर एक एक कड़ी लेके  भिखारी भोजपुरी संगीत रूपक के सृजन कइले बाड़न । भिखारी के रंग कर्मिता, कलाकारिता के मूल बाड़न महेंदर मिसिर जेकर उ कतही नाम नइखन लेले। महेंदर मिसिर भिखारी ठाकुर के  रचना गुरु, शैली गुरु बाड़न। लखनऊ से लेके रंगून तक महेंदर मिसिर भोजपुरी के रस माधुरी छींट देले रहलन, उर्वर बना देले रहलन, जवना पर भिखारी ठाकुर पनप गइलन आ जम गइलन।’

राम,कृष्ण से होत शिव, काली,दुर्गा,गंगा, गणेश आ गाँव जवार के देवी देवता सभे के स्तुति भिखारी के काव्य में भेंटाला। देखीं-

गंगाजी के भरली अररिया,नगरिया दहात बाटे हो

भा

ए जसोदा मइया,चसकल बा ललना तोहार।

भा

गइयाँ घेराइल आइल राम के बरात है

भा

हरदम बोल शिव बम-बम-बम

जइसन गीत भिखारी के आस्तिक आ भक्त कवि के रूप में सोझा ले आवेला।बाक़िर भिखारी ठाकुर के भक्ति गीतो श्रिंगारिकता के संगे कतों न कतों भेंटा जाला। देखीं-

“अइसन मन करेला अकेले बतिअइतीं, हाय रे जियरा।

क़हत भिखारी परदा खोल, हाय रे जियरा।”

श्रिंगार में वियोग जवन भोजपुरिया समाज के मन के सबसे नियरा रहे, उहाँ भिखारी ठाकुर लोक के मन पर राज करत देखाए लागत बाड़े। देखीं-

“पिया गइलन कलकतवा ए सजनी

गोरवा में जूता नइखे सिरवा पर छतवा ए सजनी

कइसे चलिहें रहतवा, ए सजनी।”

 

भा  ई देखल जाव-

“क़हत भिखारी मनवाँ करेला हर घरिया हो उमरिया भरिया ना

देखत रहतीं भर नजरिया हो उमरिया भरिया ना!”

 

लोक जीवन के सुख-दुख के अपना गीतन में पिरो के कालजयी बनावल उहाँ के काव्य के बड़ उजियार पक्ष बा। देखी भिखारी ठाकुर जी के एगो जँतसार गीत-

 

“बेरि बेरि कहीला गोरी, गहुमा दे द ए गोतिन मोरी;

अपने पीसब ना केहू से पिसवाइब ए सजनी।

जाँतवा चलत बा हर-हर, गिरता पिसानवाँ भर-भर;

गाइ-गाइ गितिया सबेरे ओरवाइब ए सजनी।

साफ़ से चुहानी जाइब, रचि-रचि के रोटिया पकाइब;

देवरू से सामीजी के बोलवाइब ए सजनी।”

लोक में प्रचलित सभे तरह के गीतन के भिखारी ठाकुर जी अपने काव्य में समेटले बाड़न। सोहर,लाचारी,जँतसार,कजरी,चइता,बारहमासा जइसन लोक धुन से सजल गीत उहाँ के लोक से जोड़े में ढ़ेर मददगार बाड़ी सन। एगो बारहमासा गीत देखीं-

लागेला अधिक आस, आवेला असाढ़ मास

बरखा में पिया घरे रहतिन बटोहिया।

पिया अवते बुनिया मेंराखि लिहतन दुनिया में

अखरेला अधिका सवनवाँ बटोहिया॥

भिखारी ठाकुर जी के दोसरका पक्ष जवन एगो नाटककार का रूप में बा। परंपरा से चलल चल आवत लोकनाट्य के भिखारी ठाकुर जी आधुनिकता के जामा पहिरवलें। बिदेशिया उहाँ के सबसे चर्चित रचना बाटे। जवना के कुछ लोग एगो शैली मानेला। भोजपुरी में नाटकन के पहिला बेर आधार देवे वाला निर्विवादित बेकती हवें भिखारी ठाकुर । इहाँ उनकर केकरो से तुलना कइल उचित ना कहाई। उनुकर कुछ लोग का हिसाब 10 आ कुछ लोग 12 गो नाटकन के रचना मानल जाले। भिखारी ठकुर अपना नाटकन में ओह घरी के समाज के समस्यन के लेके सोझा आइल बाड़ें। सामंतवादी समाज का बीचे रहके ओह सभे बुराईयन के जबर बिरोध कइले बाड़न। नारी विमर्श के बाति उहाँ के नाटकन में प्रमुखता से उभर के आइल बा। जवना का चलते उनका में एगो समाज सुधारक के छवि सुघरई के संगे देखाई देले। माहेश्वराचार्य जी कहले बानी कि “भिखारी के रचनाओ में समाज के प्रति कल्याण कि भावना निहित है। उनके हास्य और व्यंग्य का उद्देश्य यही है कि समाज अपने सामाजिक दोषों को समझे और उससे बचे।”

अपने बिदेशिया नाटक में पलायन के पीड़ा में नारी बिरह के छौंक आ ओह घरी के एगो सोभाविक स्थिति के शब्द दीहल गइल बा।

प्यारी सुंदरी जवन बिदेशिया के नायिका बिया। ओकर मरद कलकत्ता जाये आ दाम कमाए के जिद करत बाटे। प्यारी सुंदरी अपना मरद के रोकल चाहत बाटे बाक़िर ओकर मरद जवन कलकत्ता भाग जात बाटे। ओह घरी आपन पीड़ा प्यारी सुंदरी महेंदर मिसिर के पूरबी शैली में कहले बिया। देखीं-

“करि के गवनवाँ भवनवाँ में छोड़िके

अपने पराइल पुरुबवा बलमुआ

अँखिया सेदिन भर लोर झरे ढर ढर

बटिया जोहत दिन बीतेला बलमुआं। “

कलकत्ता में प्यारी सुंदरी के मरद एगो रखैल(रंडी) राख़ लेत बाटे आ ओकरा संगे आपन जिनगी बितावे लगल बाटे, ओसे बाल-बच्चो हो जात बाड़े। गावें प्यारी सुंदरी विरह में दिन काट रहल बिया। एक दिन गाँव में एगो बटोही आइल आ ओकरा से प्यारी सुंदरी आपन दुखड़ा रोवलस। बटोही से आपन सनेसा चहुंपावे के निहोरा कइलस आ अपना मरद के पहिचान बतवलस।देखीं-

हमरा बलमु जी के माथे ताखी टोपिया से

चंदन रोरी सोभेला लिलार रे बटोहिया!

मुँहवा त हइन जइसे कतरल पनवा से

नकिया सुगनवा के ठोर रे बटोहिया !

भा

हमरा बलमु जी के बड़ी बड़ी अँखिया से

चोखे चोखे बाड़े नैना कोर रे बटोहिया।

ओठवा त बाड़े जइसे कतरल पनवा से

नकिया सुगनवाँ के ठोर रे बटोहिया।

बटोही कलकत्ता में प्यारी सुंदरी के बतवला के हिसाब से ओकरा मरद के खोज लेत बा आ ओकरा के घरे जाये खातिर राजी कर लेत बा। प्यारी सुंदरी के मरद गावें खातिर चल देत बा , पाछे-पाछे ओकर रखैल (रंडी) ओकरा गाँव चहुंप जात बा। प्यारी सुंदरी क मरद दूनों के परिचय करावत बाटे आ दूनों सउत बहिन लेखा संगे रहे लागत बानी सन।

ओह समय कोंख के अधिकार पर बात करत एगो भिखारी ठाकुर जी के नाटक बा गबर घिचोर। एह नाटक में गबर घिचोरन के सामाजिक मान्यता दियावे के बाति नाटककार उठवले बाड़न। तीन गो प्रमुख चरित्र , गलीच, गलीच बहू आ गड़बड़ी। गलीच आपन बियाह गवना क के बहरा दाम कमाए चल जात बाड़न । गलीच बहू घर में अकेल रह जात बानी। उनुका गाँव के एगो नवहा गड़बड़ी से संबंध बन जात बाटे आ जेकरा चलते गलीच बहू के गबरघिचोर पैदा होत बाड़न। समस्या तब खाड़ होत बाटे जब गलीच के ई पाता चलत बा कि उनके एगो बेटा भइल बाटे आ उ अब कमाये जोग हो गइल बा। गलीच अपना बेटा के अपने संगे ले जाये खातिर गाँवे आवत बाड़न। बाकि गलीच बहू  लइका के जाये से रोकत बानी। दूनों में झगड़ा होवे लागत बा, तब गड़बड़ी उहाँ पहुँच जात बाटे आ लइका के आपन बतावत ओकरा अपने संगे ले जाये चाहत बा। पंचाइत बइठत बा आ तीनों लोग लइका पर आपन हक जतावत ओकरा पक्ष में आपन तर्क राखत बाड़ें। गड़बड़ी क़हत बाड़ें-

 

राह में पवलीं खाली जाली। खोजत अइलन एगो कुचाली।।

रोपेया धइलीं लेलीं निकाली। ले जा तूं खलिहा जाली।।

उनुकर तर्क सुन के पंच के गड़बड़ी के बात सही लागत बा।

लइका के आपन बतावत गलीच के आपन तर्क बा-

 

गाछ लगवलीं कोंहड़ा के, लत्तर गइल पछुआर।

फरल परोसिया के छप्पर पर, से हऽ माल हमार।।

उनुकर तर्क सुन के पंच के गलीच के बात सही लागत बा।

लइका के आपन बतावत गलीच बहू  के आपन तर्क बा-

 

घर में रहे दूध पाँच सेर, केहू जोरन दिहल एक धार।

का पंचाइत होखत बा, घीउ साफे भइल हमार।।

उनुकर तर्क सुन के पंच के गलीच बहू के बात सही लागत बा। तीनों लोग के आपन-आपन तर्क आ आपन सोवारथ बा । पंच के खेला अलगा बा, उहाँ उत्कोच के बात उठत बा। गड़बड़ी आ गलीच पइसा देवे ला तैयार बा लोग बाकि गलीच बहू  मना क देत बाड़ी। अंत में पंच के ई फैसला आवत बा कि लइका के तीन टुकड़ा में बाँट के तीनों जना के दे दीहल जाव। तब गलीच बहू लइका के काटे से मना क देत बाड़ी आ लइका के गड़बड़ी भा गलीच में से केहुओ के देवे ला क़हत बाड़ी। पंच लइका के गलीच बहू के सउपे के निरनय सुनावत बा।

बिदेशिया आ गबरघिचोर  के उदाहरण हमरा इहाँ राखे के एगो खास कारन बा कि मेहरारू लो के संगे अइसन स्थिति समाज  में उहो मध्यम वर्गीय समाज में रहल बाटे। भिखारी ठाकुर जी दूनों में पलायन आ ओसे उपजे वाली स्थिति के देखावत समाज के एसे बाचे के बाति क़हत बाड़ें। भिखारी ठाकुर जी के कुल्हे नाटकन में समाज के बुराईयन पर चोट करे के उद्देश्य रहे। नाटकन के विषय भिन्न भिन्न तबकन के समस्या से रहे मने पिछड़ा समाज से रहे। बाल विवाह आ बेमेल विवाह समाज के आर्थिक विषमता के उपज रहे, एह समस्या पर भिखारी ठाकुर जी आपन लेखनी चलवले बाड़न आ समाज के जगावे के परयास कइले बाड़न।’बेटी बेचवा’ के ई गीत केहुओ के मन के झकझोर देवेले-

“रूपिया गिनाई लिहला, पगहा धराई दिहला

चेरिया के छेरिया बनवला हो बाबूजी। “

भोजपुरिया समाज में भिखारी ठाकुर,  माने समाज के कुरीतियन पर चोट करे वाला एगो अइसन नायक का रूप में सोझा आ रहल बाड़न जेकरा के समाज आपन नायक माने लागत बा। अपने अस्मिता के प्रतीक माने में जरिको संकोच नइखे करत। काहें से कि कमजोर आ हतासा के जिनगी से रोजे दू-चार करे वाला लोगन के उनुका आपन परछाई त लउकते बाटे आ आस के रोसनी टिमटिमात देखात बाटे।

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

 

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