मामा के सपना, उनकर सुख आ बिछोह

जितेंद्र कुमार हिंदी आ भोजपुरी दूनो भाषा में कविता, कहानी, समीक्षा आ संस्मरण लिखेलन। जितेंद्र कुमार के हिंदी आ भोजपुरी के कुछ किताबो छपल बा, जेकर चर्चा लोग करत रहेला। जितेंद्र जी के भोजपुरी कहानी के एगो किताब ह ‘गुलाब के कांट’। ओह में एगो कहानी बा ‘कलिकाल’। ‘कलिकाल’ के बारे में लोक में अनेक रकम के बात चलत रहेला। कुछ लोग ‘कलयुग’ कहेला। कुछ लोग ‘कलऊ’ कहेला। जब नीति-अनीति के बात होला, झगड़ा के, झंझट के, भाई-भाई के बीच विभेद के, रसम-रेवाज के टुटला के, त लोग कहेला कि ‘कलिकाल’ ह भाई। एह में इहे सब होई। कुछ नीमनो काम जे होय आ लोक के मानता के अनुकूल ना होय, तबो लोग ‘कलिकाल’ के उचार करेला। जितेंद्र जी के ई कहानी हमनी के समाज में समिलात परिवार में ऊपर-ऊपर प्रेम के जवन प्रदर्शन होला, ओकर खूब सघन आ व्यवहारिक अध्ययन पेश करत बिया आ एह तरह के दिखावा के फिजूल सिद्ध करत बिया। हम जितेंद्र जी के एह कहानी के पढ़े के कहल चाहत बानी।

जितेंद्र जी के एगो भोजपुरी के कविता ह ‘काल्हु वाला चेहरा’। ई कविता ‘समकालीन भोजपुरी साहित्य’-18 में छपल बा। कविता छोटहन काया में बड़हन बात ई कहत बिया कि एह तरह के सांच देखे में आ रहल बा कि आदमी के आज के बात आ काल्हु के बात में भारी अंतर देखे के मिल रहल बा। आज आ काल्हु के भाषा, भाव आ व्यवहार में भारी फरक बा। एगो आदमी अब दूगो चेहरा के कहो अनेक चेहरा रख रहल बा। रकम- रकम के मुखौटा। जे सदाचारी लउकल, दुराचारी साबित भइल। राजनीति से लेके धरम-करम के गलियारा में ई साँच खूब देखे के मिल रहल बा। समझे के बात बा कि जइसे हर अब चीज बाजार में बा, वइसहीं चेहरवो बाजार में बा। कवि इशारा करत बा कि बाजारवाद के बढ़त वर्चस्व के समय में सब कुछ बेंच-बेसाह के दायरा में बा –

“ना जाने काहे खातिर

रोज रोज नया नया चेहरा

कीनेले बाजार से

सांझ खानि जवन चेहरा पहिन के

बइठल रहन दरबार में

सबेरे गइलीं त पइलीं

सांझवाला चेहरा उतार के

राखि देले बाड़े ताखा पर।”

देखे के बात बा कि एहिजा कवि ‘दरबार’ लिखत बा। ‘दरबार’ के खास अर्थ में प्रयोग बा। कवनो प्रभुता वाला आदमी के तरफ संकेत बा। काहे कि साधारण आदमी दरबार में हाजिर हो सकेला, दरबार लगा ना सके। त साफ बात बा कि प्रभुता वाला आदमी ही अनेक चेहरा राखे के बाजार बना बढ़ा रहल बा। अब त सत्ता के शीर्ष प विराजमान जे बा, ऊ मुखौटा के राजनीति के बढ़ावा दे रहल बा। मुखौटा बिकवा रहल बा।

साहिर लुधियानवी के गीत जवन ‘दाग’ सिनेमा में बा आ जेके लता जी गवले बाड़ी, इयाद आ रहल बा –

“जब भी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग

एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग।”

जितेंद्र जी के अउर कविता ह “मामा के सपनवा हरजाई”। ई “कविता” पत्रिका के अक्टूबर 2002 वाला अंक में छपल बा। जरूर पढ़े के चाहीं।

हरजाई शब्द प ध्यान चल जात बा। एकरा के लोग हरजाही भी कहेला। इयाद आवत बा- “चुप रहु, चुप रहु बेटी हरजाही..।” एहिजा त मामा के ‘सपना’ के हरजाई कहल जाता बा। का सपना बा मामा के? कि सपना में बैलन के घुघुर घंटी के टुनटुन उनका कान में पड़त बा। पंजाब से कीनल दुदंता दूगो बाछा के जोड़ी आखिरी जोड़ी ह उनका दुआर के। नाद, खूंटा सब खाली हो जात बा। सब सून। ट्रेक्टर के गांव में अवाई आ बैलन के उड़ास लाग जाता। मामा एह बदलाव के कबूल नइखन कर पावत। पशुप्रेमी मन उनकर उदास रहत बा। खेती किसानी में जब नया नया एह सब चीजन के प्रवेश होत बा, पारंपरिक कुलि चीज बदले लागत बा। मामा जस अनेक लोग एह बदलाव के झट ना समझ पावत बा आ ना संकार पावत बा। समय आ मन के एही दोहमच के ह ई कविता। जइसे राधा के कान में किसन के बंसी के धुन बजेला, वइसहीं मामा के कान में बैलन के घंटी। आ इहो बात बा कि जइसे दुअरिका गइल किसना जी मथुरा ना लवट पावेलन, अइसहीं अब बैलो ना अइहें स फेर मामा के दुआर पर। बाकी मामा के मन में एगो हाहाकार उठ रहल बा।

“मामा जब सपनालें

उनका कान में बैलन के घंटी टुनटुनाला।”

एह कविता से ई बात समझे के चाहीं, आ समझे के खूब जगह बा कि जितेंद्र जी के पासे एह किसान जगत के नीक बूझ समुझ बा। एह कविता में ‘बैलन के गरदन के लोर’ छुवे के बात बा। मामा खातिर सबसे बड़ सुख रहे खा के बइठल बैलन के सींघ सुहुरावल आ ओकनी के गरदन के लोर छुअल। ई कवनो भावुकतापूर्ण वर्णन ना ह। एह दुनिया के जे जानकार बा, ऊ खूब महसूस कर सकत बा। ‘बैलन के गरदन के लोर’ प जब ध्यान गइल त बुझाइल कि कवि के मन खूब रमल बा एह में। एहिजा लोर के मतलब आंसू ना ह। बैलन के गरदन के नीचे जवन चाम झुलत रहेला, ओकरे के ‘लोर’ कहल जाला। एह शब्द के प्रयोग खातिर भी ई कविता इयाद राखे के चाहीं। देखल जाए-

“खाइ के बइठिहे स बैल

मामा ओहनी के सींघ सुहुरइहें

ओकनी के गरदन के लोर छुअल

उनुका जिनगी के सब से बड़ सुख रहे

आज उहे बैलन के खूंटा उदास बा।”

बैलन के ‘गरदन के लोर के’ जगह आज कुछो रखीं, आदमी के लोर, मनुष्यता के लोर। कतना जरूरी बा ई छुअन। मामा के सपना में जवन घंटी बाजत बा, ऊ कवनो ना कवनो रूप में हमनी सब के सपना में बाजत बा। आसान ना होला कवनो चीज के विदा कहल। हमनी के पीढ़ी के कवि केशव तिवारी के एगो कविता-संग्रह के नांव ह ‘आसान नहीं विदा कहना।’

  • डॉ बलभद्र

 

 

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