मोथा आ मूंज के जिद आ धार के गजल

भोजपुरी के कवि शशि प्रेमदेव के दूगो गजल भोजपुरी के पत्रिका ‘पाती’ के अलग अलग अंक में जब पढ़लीं त ई महसूस भइल कि एह कवि के ठीक से पढ़े के चाहीं। ई कवि आज के समय के कटु सत्य के अपना गीत- गजल के विषय बना रहल बा। ऊ समय के सांच के कहे में नइखे हिचकत। सांच कहल आज कतना कठिन भ गइल बा, ई हमनी के बूझ- समुझ रहल बानी जा। हमनी के जाने के चाहीं कि हर थाना में चकुदार (चौकीदार) होलें। उनकर काम रहत रहे रात-बिरात पहरा देल। पुलिस विभाग के आखिरी कर्मी ऊ होलें। कम तनखाह, कम सुविधा। पता ना अब ई पोस्ट बा कि खतम कर देल गइल। एह बीचे ई शब्द बड़ा जोर शोर से राजनीतिक गलियारा में उछलल। सत्ता के शीर्ष प विराजमान आदमी अपना के चौकीदार घोषित कइलस। पुलिस विभाग के अदना-सा कर्मचारी वाला पद के देश के सत्तापक्षी राजनीतिक गलियारा में बड़ा उछाल मिलल। आ एही बीचे कतने बड़- बड़ पूंजीपति आ कारोबारी ना जाने कतने हजार करोड़ रुपया के घपला क के देश छोड़ देलें। थाना के चकुदार पहरा देत रहल आ चोरी होत रहल। सत्तासीन चौकीदार ताल ठोकत रहल, आ फरार होखे वाला फरार हो गइल। कवनो कवि जब एह बात के विषय बनाई त ओकरा लगे ई सुविधा रही कि ऊ चौकीदार के पहरेदार कहे आ एह सांच के अपना अंदाज में कहे –

” अजबे नूं अबरी के पहरेदार भेंटाइल बा

पहरा देता बाकी दूनो आंखि मुनाइल बा!”

ई लाइन हम ‘पाती’ (मार्च-जून 2018) से लेले बानी। ई गजल एह तरे शुरू होत बा-

” अंखियन में ना जे कइसन दो चान समाइल बा

पछिले फागुन से नद्दी कs नीन हेराइल बा।”

नदी के नीन हेराइल के खास अर्थ बा। नीन पिछिले फागुन से हेराइल बा। फागुन में नदी के नीन हेराना मतलब सुहाना समय में एह बात के चिंता कि आगे के समय सुकून वाला नइखे। ओकर पानी आ रवानी खतरा में पड़े वाला बा। ठीक एही के बाद बा पहरेदार वाली लाइन। ‘पहरेदार’ एह सबसे वाकिफ बा आ आंख मुनले बा। बलुक ई कि जे एह के लेके चिंतित बा,ओही प ऊ रंज बा।

एगो गजल में शशि प्रेमदेव मोथा के जिकिर करत बाड़न। ऊ गजल ‘पाती’ सितम्बर 2014 में छपल बा। मोथा के आन्ही से कुछ ना बिगड़ी।

बर – पीपर के जरूर कुछ बिगड़ सकेला। निराला जी के कविता ‘बादल राग’ इयाद आवत बिया। खूब बूनी परी त घास के का बिगड़ी। महल अटारी प जरूर खतरा रही। जेकरा के कवि निराला जी आतंक महल कहत बाड़न। बहुते कवि दूब के जिकिर कइले बाड़न। दूब के जिजीविषा के। कवि केदारनाथ सिंह दूब प खूब बात कइले बाड़न। मोंथा प बहुते कम कवि लिखले बाड़न। मोंथा एगो खास तरह के घास ह, जवन अपना जगह से जाए के नांव ना लेला। जहां होई ऊहां जम के रही। कतनो केहू उखाड़ो। एकर सोर बहुते नीचे गड़ल रहेला। गिरह अस होला। खेत लाख जोत – कोड़ के राखे केहू, ई बेजमले ना रही। बहुते जिद्दी होला एकर जर – जरोह। गजल में बा कि आन्ही एकर का बिगाड़ी! ई आन्ही कवन आन्ही ह? का ई प्रतीक बा कुछ के? विचार करे के चाहीं। मोथो के समझे के चाहीं कि ऊ अदम्य जीवनशक्ति वाला आम मेहनतकश के प्रतीक बा। मोथा एगो सांस्कृतिक प्रतीक भी हो सकेला, जवना के बुनियाद अतना गहिर बा कि अपसंस्कृति के आन्ही- तूफान झट डिगा नइखे सकत।

” मोथा कs, का खाक बिगारी?

आन्ही पीपर- बsर उखारी!”

पाती, मार्च-जून, 2018 वाला गजल में, जवना के हम शुरू में चर्चा कइले बानी, मूँजि के जिकिर बा। मूंज के सरपत कहल जाला। हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार मार्कण्डेय के कहानी ‘गुलरा के बाबा’ में सरपत के बारे में खूब बात बा। मूँज बहुत उपयोगी चीज ह। मड़ई छावे में खूब कामे आवेला। एकरा के लोग पतलो भी कहेला। बेटी के बियाह में माड़ो छवाला। पतलो मूंज के पतई के ही नांव ह। ई बहुते धारदार होला। उघारे निघारे केहू जाए ओकरी राह से, गतरे गतर चिरा जाई। हाथ में चिरा लाग जाई। शशि जी लिखत बाड़न-

” मूँजि कहल जाला केकरा के – तूं कइसे जनबs

का कबो पतलो से तहरो देंहि चिराइल बा?”

भोजपुरी गजल में मोथा आ मूंज के अवाई एह बात के सुखद सबूत बा कि भोजपुरी गजल अपना भाषा – भूगोल के प्रकृति आ संस्कृति से नया मन-मिजाज के साथे संवाद बना रहल बिया। एही में एगो लाइन बा –

” हाड़ गला के आपन, रसगर ऊखि उगवलीं हम

हमरे बखरा में पंछुच्छुर पुलुई आइल बा।”

ऊख के खेती बहुत कठिन होला। बाकी रस बहुत मीठ। शशि एह बात के बहुत सुंदर तरीका से कहत बाड़न कि बहुत मेहनत से उपजावल ऊख के सबसे मीठ भाग मेहनत करे वाला के भाग्य में नइखे। ओकरा भाग्य में ऊख के सबसे ऊपर के हिस्सा परेला, गेल्हा के करीब वाला। जहां आवत -आवत रस पंछुच्छुर हो जाला। मेहनतकश के बदहाली के ई अभिव्यक्ति बिलकुल नया बा। बात कहे के अंदाज नया बा।

ई अपना गजल में समाज में लइकी आ मेहरारू के हालतो के वर्णन कइले बाड़न। आज हालत अइसन हो गइल बा कि लइकी आ मेहरारून के जान आ इज्जत खतरा में बा। शशि अपना गजल में ‘संत शिरोमणि’ लोग के भी जिकिर करत बाड़न। संत आ महंथ लोग के कुकृत्य प गजल लिखल, जरूरी एगो मुद्दा प बात कइल बा।

_ डॉ बलभद्र

 

 

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