गुलरी क फूल

ढेर चहकत रहने कि रामराज आई , हर ओरी खुसिए लहराई । आपन राज होखी , धरम करम के बढ़न्ती होई , सभे चैन से कमाई-खाई । केहू कहीं ना जहर खाई भा फंसरी लगाके मुई । केहू कबों भूखले पेट सुतत ना भेंटाई । कुल्हि हाथन के काम मिली , सड़की के किनारे फुटपाथो पर केहू सुतल ना भेंटाई , मने कि सभके मुंडी पर छाजन । दुवरे मचिया पर बइठल सोचत – सोचत कब आँख लाग गइल ,पते ना चलल ।  “कहाँ बानी जी” के करकस आवाज आइल…

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अवघड़ आउर एगो रात

रहल होई १९८६-१९८७ के साल , जब हमारा के एगो अइसन घटना से दु –चार होखे के परल , जवना के बारे बतावल चाहे सुनवला भर से कूल्हि रोयाँ भर भरा उठेला । मन आउर दिमाग दुनों अचकचा जाला । आँखी के समने सलीमा के रील मातिन कुल्हि चीजु घुम जाला । इहों बुझे मे कि सांचहुं अइसन कुछो भइल रहे , कि खाली एगो कवनों सपना भर रहे । दिमाग पर ज़ोर डाले के परेला । लेकिन उ घटना खाली सपने रहत नु त आजु ले हमरा के ना…

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गयल गाँव जहाँ गोंड़ महाजन

का कहीं महाराज , समय के चकरी अइसन घूमरी लीहले बा कि बड़ बड़ जाने मे मुड़ी पिरा रहल बा । जेहर देखी ओहरे लोग आपन आपन मुड़ी झारत कुछहु उलटी क रहल बा । उल्टी करत बेरा न त ओकरे जगह के धियान रहत बा , न समय के धियान रहत बा । एतना लमहर ढंग से आत्ममुग्धता के शिकार भइल बा कि पूछीं मति । ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के जाप मे जुटल फेसबुकिया बीर बहादुर लो अपने आगा केहू के कुछहू बुझबे ना करे, फेर चाहे समने केहू होखो…

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बुढ़िया माई

१९७९ – १९८० के साल रहल होई , जब बुढ़िया माई आपन भरल पुरल परिवार छोड़ के सरग सिधार गइनी । एगो लमहर इयादन के फेहरिस्त अपने पीछे छोड़ गइनी , जवना के अगर केहु कबों पलटे लागी त ओही मे भुला जाई । साचों मे बुढ़िया माई सनेह, तियाग आउर सतीत्व के अइसन मूरत रहनी , जेकर लेखा ओघरी गाँव जवार मे केहु दोसर ना रहुए । जात धरम से परे उ दया के साक्षात देवी रहनी । सबका खाति उनका मन मे सनेह रहे , आउर छोट बच्चन…

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हम भोजपुरिया साहित्यकार बानी आ तू ……?

का जमाना आ गयो भाया , जेहर देखा ओहरे मचमच हो रहल बा । सभके त भोजपुरिया साहित्यकार कहाये के निसा कपारे चढ़ के तांडव क रहल बा । 56 इंची वाला एह लोगन देखते डेरा गइल बा , एही से दिल्ली छोड़ के गुजरात भागल बा । मने हेतना बड़का , जे केकरो सुनबे न करे । दुवरे बइठल भगेलुवा के बड़बड़ाइल सुनके सोझवे से गुजरत सोमारू के ना रह गइल , त उहो हाँ मे हाँ मिलावे ला उहवें ठाढ़ हो के बतकुचन मे अझुरा गइने । का…

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गाँव-गिरांव के मड़ई से आध्यात्म के शिखर का अनूठा कवि- अनिरुद्ध

पुरूबी बेयार से रसगर भइल गँवई सुघरई के सँवारत, ओकरे छटा के उज्जर अंजोरिया में छींटत-बिदहत कविवर अनिरुद्ध के गीत आ कवितई अपना तेज धार में सभे पाठक आ श्रोता लोगन के बहा ले जाये के कूबत राखेले। अनिरुद्ध जी के गीत आ कवितई अपना स्पर्श मात्र से पथरो पर दूब उगावे लागेले। फेर कतनों नीरस मनई काहें ना होखों, ओकरा के सरस होखे में देर ना लागे।जवने घरी भोजपुरी गीत भा कविता मंच पर ले जाइल, उपहास करावत रहे, ओही घरी अनिरुद्ध जी अपने गीतन से हिन्दी काव्य मंचन…

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साहित्यकार के माने-मतलब

साहित्य एगो अइसन शब्द ह जवना के लिखित आ मौखिक रूप में बोले जाये वाली बतियन के देस आ समाज के हित खाति उपयोग कइल जाला। ई  कल्पना आ सोच-विचार के रचनात्मक भाव-भूमि देवेला। साहित्य सिरजे वाले लोगन के साहित्यकार कहल जाला आ समाज आ देस अइसन लोगन के बड़ सम्मान के दीठि से देखबो करेला। समय के संगे एहु में झोल-झाल लउके लागल बा। बाकि एह घरी कुछ साहित्यकार लो एगो फैसन के गिरफ्त में अझुरा गइल बाड़न। एह फैसन के असर साहित्यिक क्षेत्र में ढेर गहिराह बले भइल…

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बगल में छुरी

आन्हर बहिर गरहो से गहिर पोतले चन्नन उजरे पहिर।   ओढ़ले कमरी लिहले गगरी बिष से भरल चललें डहरी।   कुछहू बोलत सगरों  डोलत सरम छोड़िके गठरी खोलत।   कुछ के बटलें सभके कहलें मुँह पर ढकनी बन्हले रहलें।   कउड़ा तपलें उलटा जपलें बाउर माहुर सोझहीं नपलें।   करमें भगलें धउरे लगलें हाथ जोरिके मफ़ियो मगलें। राखीं दूरी मिलें त थूरीं जिनके मुँह राम बगल में छुरी॥   डॉ जे पी द्विवेदी संपादक भोजपुरी साहित्य सरिता

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हमार टोला

घरे-घर पालेलें सपोला, हमार टोला। सभही बनेला रामबोला, हमार टोला॥   चर-चेरउरी से बतिया बनावेला आगु-पाछा घूमि उनुका पटावेला कतहूँ उठवले फिरे झोला, हमार टोला ॥   जोरत गाँठत सुतार  जोगावेला चन्नन छिरकी जगहियो गमकावेला ओहमें मिलवले बिसगोला,हमार टोला॥   बीने-बरावे में बखत खपावेला आपन अपने के कुल्हि चमकावेला निकसेला बइठी के डोला,हमार टोला॥   जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

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वारि जाऊँ ए सखी

वारि जाऊँ ए सखी,2 हो बबुअवा निरखि वारि जाऊँ ए सखी॥   सुघर-सुघर हाथ-गोड़, सुघर नयनवाँ सुनि लागै बोलिया, बोलत मयनवाँ अचके मुसुकी परखि, वारि जाऊँ ए सखी। हो बबुअवा निरखि, वारि जाऊँ ए सखी॥   बिहँसेला बाबू, झलके दंतुलिया बेर-बेर मुँहवा,  डारत अंगुलिया कबों धऊरे लपकि, वारि जाऊँ ए सखी। हो बबुअवा निरखि, वारि जाऊँ ए सखी॥   कबों चले घुसुकी आ कबहुँ बकइयाँ अँगुरी पकड़ि के चलत पइयाँ-पइयाँ कबों पउवाँ थिरकि, वारि जाऊँ ए सखी। हो बबुअवा निरखि, वारि जाऊँ ए सखी॥     जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

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