कहल जाला कि प्रकृति सबके कुछ-ना-कुछ गुण देले आ जब ऊहे गुण धरम बन जाला त लोग खातिर आदर्श गढ़े लागेला। बात साहित्य के कइल जाव त ई धरम के बात अउरी साफ हो जाला। ‘स्वांतः सुखाय’ के अंतर में जबले साहित्यकार के साहित्य में लोक-कल्याण के भाव ना भरल रही, तबले ऊ साहित्य खाली कागज के गँठरी होला। बात ई बा कि अबहीने भोजपुरी कवि जयशंकर प्रसाद द्विवेदी जी के पहिलकी कविता के किताब ‘पीपर के पतई’ आइल ह। ई किताब कवि के पहिलकी प्रकाशित कृति बा बाकिर ऊहाँ…
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भाषा के खातिर तमासा
इ भाषा बदे ही तमाशा चलत हौ बिना बात के बेतहासा चलत हौ इहाँ गोलबंदी, उहाँ गोलबंदी बढ़न्ती कहाँ बा, इहाँ बाS मंदी । कटाता चिकोटी सहाता न बतिया बतावा भला बा इ उजियार रतिया कहाँ रीत बाचल हँसी आ ठिठोली इहो तीत बोली, उहो तीत बोली । मचल होड़ बाटे छुवे के किनारा बचल बा इहाँ ना अरारे सहारा बहत बा दुलाई सरत बा रज़ाई न इनके रहाई न उनके सहाई। भगेलू क इहवाँ बनल गोल बाटे सुमेरु क उहवाँ बनल गोल बाटे दुनों के दुनों…
Read Moreलोरी गीत
जाईं हम लोभाय हो, बबुअवा के मुसुकी पर। केई पुचकारे, केई अंगे लगावेले अंगे लगावेले, अंगे लगावेले 2 केकरा अँचरवा नीचे,2 जालें लुकाय हो बबुअवा के मुसुकी पर। जाईं हम लोभाय हो, बबुअवा के मुसुकी पर। माई पुचकारे, बाबू अंगे लगावेले अंगे लगावेले, अंगे लगावेले 2 दादी के अँचरवा नीचे,2 जालें लुकाय हो बबुअवा के मुसुकी पर। जाईं हम लोभाय हो, बबुअवा के मुसुकी पर। केई किलकावे, केई लहकि बोलावेले लहकि बोलावेले, लहकि बोलावेले 2 केकरा सुरतिया देखि,2 जालें अघाय हो बबुअवा के मुसुकी पर। जाईं हम लोभाय…
Read Moreवोट माँगे अइले हो
अयोध्या मे गोली चलववले जरिको न सरमइले हो एकरा के लाजो ना लागे वोट माँगे अइले हो। महजिद पर भोंपू लगववलें मंदिर के बंद करवलें हो एकरा के लाजो ना लागे वोट माँगे अइले हो। चाचा बाबू हिल मिल के खूबै लूट मचवलें हो एकरा के लाजो ना लागे वोट माँगे अइले हो। मंचो पर बाबू धकिअवले हिंदुन के गरिअवलें हो एकरा के लाजो ना लागे वोट माँगे अइले हो। सैफई में नाच करवले पइसा खूब बहवले हो एकरा के लाजो ना लागे वोट माँगे अइले हो। बदमासन के टिकस…
Read Moreकुकर्मनासा
आपन गाँव आउर आपन माटी के सोन्ह महक सभके भाव- विभोर क देवेले | पीढ़ी दर पीढ़ी के संजोवल इयादन के मंजर अपना के ओहमे रससिक्त करे लागेलन | आउर अगर अपना गाँव के नीयरे कवनो नैसर्गिक बनस्थली होखे , त उ मनई के मन मोर लेखा नाचहूँ लागेला | टकटकी बान्ह के निहारल आउर निहारत – निहारत रोंआ जब भरभराए लागेला ,तब अंखियो ओह सुन्दरता के रसपान करत ना अघाले | भोरे – भोरे चिरई चुरमुन के चंह – चहाँइल जब कान में परेला , त उ कवनो बड़…
Read Moreकरियवा कोट
कचहरी में वोकील मिलेलन टरेन में टी टी चलेलन बरहों महीना कोट काहें पहिरेलन ? अगर नइखी जानत राज त जान जाईं आज। कोट पहिरला से खलित्तन के संख्या हो जाले जियादा राउर सुरक्षा अउर संरक्षा के पक्का वादा। जे केहु थाकल-हारल, मजबूरी के मारल धाकड़ भा बेचारा इनका भीरी आ जाला मुँह मांगल रकम थमा जाला समन्दर लेखा करियवा कोट में सभे कुछ … समा जाला। मूल रचना- काली कोट मूल रचनाकार- मोहन द्विवेदी भोजपुरी भावानुवाद- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
Read Moreआन्हर गुरु, बहिर चेला
समय लोगन का संगे साँप-सीढ़ी के खेल हर काल-खंड में खेलले बा,अजुवो खेल रहल बा। चाल-चरित्र-चेहरा के बात करे वाला लो होखें भा सेकुलर भा खाली एक के हक-हूकूक मार के दोसरा के तोस देवे वाला लो होखे,समय के चकरी के दूनों पाट का बीचे फंसिये जाला। एहमें कुछो अलगा नइखे। कुरसी मनई के आँखि पर मोटगर परदा टाँग देले, बोल आ चाल दूनों बदल देले। नाही त जेकरा लगे ठीक-ठाक मनई उनुका कुरसी रहते ना चहुंप पावेला, कुरसी जाते खीस निपोरले उहे दुअरे-दुअरे सभे से मिले ला डोलत देखा…
Read Moreआपन बात
साहित्य के चउखट पर ठाढ़ ऊँट कवने करवट बइठ जाई , आज के जमाना मे बूझल तनि टेंढ ह । कब के टोनहिन नीयर भुनभुनाए लागी आ कब के टोटका मार के पराय जाई ,पते ना चले । आजु के जिनगी मे कवनों बात के ठीहा ठेकाना दमगर देखाई देही , भरोष से कहलों ना जा सके । एगो समय रहे जब मनई समूह मे रहत रहे , अलग समूह – अलग भाषा –बोली , रीत – नित सभे कुछ कबीला के हिसाब से रहे । ओह कबीलन मे अपने…
Read Moreकउवा से कबेलवे चलाक
का जमाना आ गयो भाया , पहिले त अंडा चूजा के सीख देत रहे बाकि अब त बापे के सीख देवे लागल बिया । तकनीक के जमाना नु बा , केनियों आड़ा तिरछा देखि के धार फूटि रहल बिया । चाहे ओकरा से गाँव तबाह होखे भा देश । पानी के रेला त रेला ह , ओकरा के केकरो पहिचान नइखे । जब पानी के फुफुकारत धार चल देवेले त ओहमे बड़ बड़ पेड़ , पहाड़ , गाँव – गिराव सभे के अपने लय मे नाधि देले । मनई से…
Read Moreभोजपुरी में मानकीकरण के जरूरत … कतना व्यवहारिक ?
साहित्य के साँच आ संवेदनसील मानके सिरजना के राहि डेग बढ़ावल सुखकर होला। मने एगो अइसन प्रेरक तत्व जवना के प्राण तत्व मान के सृजन के समाज खाति एगो आइना का रूप में परोसला के सुघर दीठि आ संकल्पना का संगे सोझा ले आवे खाति प्रतिबद्धता के एगो मानक मानल जाला। अइसन सृजन अपना भीतरि ऐतिहासिकता के बिम्ब जोगावत आगु बढ़त देखला। अझुरहट आ बीपत का बीच साहित्य एगो नीमन व्यवस्था देस आ समाज का सोझा राखेला। अगर व्यवस्था एकरूपता का संगे सोझा आवेले त ओकरा के बूझल आ बूझलका…
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