प्रकृति कहाँ बा मेला भारी,
सभे करे मिलि-जुलि तइयारी।
बादर-बदरी खुश हो अइलें,
ढोल बजावत गीत सुनइलें,
मस्ती में बूनी बरिसइलें,
बिजुरी के सँग नाच देखइलें,
धरती के हिरदया जुड़ाइल, घर-आँगन होखल फुलवारी।
प्रकृति किहाँ बा मेला भारी।।
सगरो लउके हरियर-हरियर,
रसगर भइलें आहर-पोखर,
नदी-नहर नाला उमंग में,
गागर-गागर लागे सागर,
बीज बोआइल हँसी-खुशी के, हँसल भविष्य के मनगर क्यारी।
प्रकृति कहाँ बा मेला भारी।।
पर्वत पत्थरदिल ना कहलस,
तनिको कम ना ओमें बा रस,
प्रेम बढ़ावत भू के छुअलस,
हरखित होके सुध-बुध तेजलस,
देखसु सूरज-चाँद चिहाके, कहसु हव सचमुच भूधारी।
प्रकृति किहाँ बा मेला भारी।।
देखीं, मोर उहाँ बा नाचत,
दादुर गाल फुला बा गावत,
कतहीं झींगुर झाँझ बजावत,
पपिहा आपन तान सुनावत,
बगिया-बगिया, जंगल-जंगल, बइठ चीझु बेचे व्यापारी।
प्रकृति किहाँ बा मेला भारी।।
खेते-खेते होखे रोपन,
सुखद सपन में गोतल तन-मन,
परिश्रमे बा जेकर निज धन,
बता रहल बाड़ें किसान गन,
बबुआ-बबुई के साथे ले, करतब में लागल नर-नारी।
प्रकृति कहाँ बा मेला भारी।।
रस सिंगार के झुलुआ झूलल,
कजरी कंठकला में घूलल,
जागल रोपन के सुर सूतल,
कहीं प्रेम त रूसल-फूलल,
सावन आइल हँसत बतइलस, दुख-सुख आवसु पारा-पारी।
प्रकृति किहाँ बा मेला भारी।।
- मारकंडे शारदेय