बिरहिनि के बेजोड़ भावाभिव्यक्ति हवे चैता

चइत महीना चढ़ते चारु ओर तनी चटक रंग लउके लागेला। एह तरे कहल जाव त चइता परेम के पराकाष्ठा के प्रस्तुति हऽ। परेम में मिलन, बिछुड़न, टीस, खीस के प्रस्तुति ह। जिनगी के अनोखा पल के अनोखा भावन के अभिव्यक्ति के प्रस्तुति ह। बिहार आ उत्तर-प्रदेश में चइत महीना में गावे वाला गीतन के चइता, चइती चाहे चइतावर कहल जाला। चइता में मुख्य रूप से चइत माह के वर्णन त रहबे करेला, ई शृंगार रस में वियोग के अधिकता वाला लोकगीत हवे। गायिकी में चइता के ‘दीपचंदी’ चाहे ‘रागताल’ में गावल जाला। कई जने एहके ‘सितारवानी’ चाहें ‘जलद त्रिताल’ में गावेले। भले आधुनिकता के डिजिटल लाइट में चइता के चमक मद्धिम हो गइल बा, बाकिर आजुओ भोजपुर, औरंगाबाद, बक्सर, रोहतास, गया, छपरा, सिवान, देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर…

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जिनिगी के छंद में आनंद भरि आइल रामा,चइत महीनवा

अइसे साल के बारहो महीना के आपन महत्व होला बाकिर साल के अंतिम महीना फागुन आ पहिला महीना चइत के रंग – राग आ महातम अनोखा बा।इहे देखि कहल जाला कि साल में से ई दूगो महीना फागुन आ चइत के निकाल देल जाय त साल में कुछ बचबे ना करी। फागुन आ चइत ना रहित त लोक जीवन में रस रहबे ना करित। फागुन के होली, फगुआ आ चौताल आ चइत के चइता,चैती आ घाटों के गूंज से भक्ति आ भौतिक दूनों रस के संचार लोक में होला। रस…

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गाछि ना बिरिछ आ सुझेला हरियरी

पहिले चलीं जा गाँव घूम आईंजा।खेत – बधार के छोड़ीं महाराज घरे – दुआरे, आरे – पगारे, नदी – नाला के किनारे, मंदिर के अंगनइया, ताल – तलैया – नहर के पीड़ प,सड़कि के दूनों ओरि, कहे के माने जेने नजर दउराईं गाछि – बिरिछ, बाग – बगइचा लउकत रहे गँउवा में, धान- गेहूं- बूंट- खेसारी से भरल हरियर खेतन के त छोडीं। हरियरी के माने ई होला।गाँव से सटलको टोला ना लउकत रहे बगइचन के कारण।गँउवा आजुवो ओहिजे बा बाकिर गाछि – बिरिछ – बगइचा गायब। रसोइयो में साग…

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आपन भाषा, आपन सम्मान

“अरे सुनतानी देर होता, जाइना स्टेशन, ना त गाड़ी आ जाई,” कमला देवी कहली। “काहे हल्ला कइले बारू, जात त बानी, बुझाता की तहार बबुआ घर देखलही नईखन, गाड़ी से उतर जइहन त भूला जइहन,” रामेश्वर जी तंज कसलन। “हम उ सब नइखी जानत, रउआ जाई जल्दी,” खिसिया के कमला देवी कहली। “तहार बबुआ इंजीनियरिंग के पढ़ाई पढ़तारन, पचीस साल के हो गईल बारन अउर तू त ऐतना चिंता करतारू की जेगनी अभी गोदी में बारन,” रामेश्वर जी हंसते हुए कहले। “अरे रउआ का जानेम माई के ममता, अब जाइ…

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डॉ. बलभद्र: साहित्य के प्रवीन अध्येता

डॉ. बलभद्र के, अबतक भोजपुरी में लिखल कुछ महत्वपूर्ण आलोचनात्मक आलेखन के संकलन, उनकरा ‘भोजपुरी साहित्य: हाल-फिलहाल’ नाँव के क़िताब में कइल गइल बा। एह क़िताब के महत्व एकरा में आलोचित कृति आ कृतिकार के, मौलिक नज़र से निरखला-परखला के वज़ह से त बड़ले बा, ई एहू से महत्वपूर्ण बा कि एह में कुछ विधा विशेष के फिलहाल के लेके स्वस्थ, यथार्थपूर्ण आ सारगर्भित बतकही कइल गइल बा। ई एक तरह से आलोचना आ इतिहास के युगलबंदी ह। आज के भोजपुरी साहित्य के प्रवीन अध्येता के रूप में बलभद्र के…

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लोकउकितन में खेती के बात

भारतीय सभ्यता में जीव के उत्पत्ति, बढ़वार आ विलयके सिलसिला में अन्न के अहमियत के पहचान असलियत के अनुभव के आधार प बा । तैत्तिरीयोपनिषद्(आनन्दवल्ली, दूसरा अनुवाक्) के कथन ह कि पृथिवी के आसरे जतिना जीव बाड़न ऊ अन्ने से पैदा होले, जीएले आ अंत में ओही में बिला जाले- “अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवीं श्रिताः । अथो अन्नेनैव जीवन्ति । अथैनदपि यन्त्यन्ततः ।”अन्नके उपज में बढ़ोतरी खेती के बेहतर प्रबंध के जरियहीं संभव ह ए से भारतीय सभ्यता में खेती के बहुत अधिक प्रमुखता दीहल गइल ।…

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जिनिगी गांव के : रोज जीए-मूवे वाला सुभाव के

–भगवती प्रसाद द्विवेदी   बाबू! रउआं परदेसी हईं नू? जरूर देश भा सूबा के राजधानी में राउर दउलतखाना होई। बइठीं हमरा एह टुटही खटिया पर भा ओह मचान पर। कहीं, हम अपने के का सेवा करीं?–हम भला राउर का खातिरदारी कऽ सकेलीं साहेब! पहिले हाथ-मुंह धोईं आ लीहीं हई गुर के भेली,साथ में एक लोटा इनार के शीतल जल। जे हमरा दुआर-दरवाजा प आवेला, बस हम इहे सभका खातिर लेके हाथ जोड़िके हाजिर रहेलीं। हं,अब रउआं इतमीनान से बतिआईं।   रउरा देह पर हई उज्जर धप्-धप् खादी के लिबास। कान्ह…

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खेती-बारी : बेद से लबेद तक

डॉ. रामरक्षा मिश्र विमल भारत एगो खेती-बारी करेवाला देश हटे। भारत का आबादी के एगो बड़हन हिस्सा आपन गुजारा खेती से करेला। एही से भारत में खेती-बारी के भोजन का देवता के दरजा दिहल जाला। साँच त ई बा कि भारत में रामायण आ महाभारत का पहिलहीं से खेती के काम हो रहल बा। लोग खेत जोतत रहे आ ओहमें अनाज, सब्जी आदि के खेती करत रहे। कुछ लोग खेती का सङे-सङे गाइयो  पालत रहलन। देखल जाउ त आजुओ भारत के अधिकांश परब खेतिए बारी से जुड़ल बा। संसार के…

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भोजपुरी के किसानी कविता

भोजपुरी के  किसानी कविता पर लिखे के शुरुआत कहाँ से होखी-ई तय कइल बहुत कठिन नइखे।भोजपुरी के आदिकवि जब कबीर के मान लिहल गइल बा त उनकर सबसे प्रचलित पाँति के धेयान राखलो जरूरी बा ।ऊ लिखले बाड़ें-“मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ।” मतलब भोजपुरी के आदिकवि कलमजीवी ना रहलें।ऊ कुदालजीवी रहलें।हसुआ-हथौड़ाजीवी रहलें।झीनी-झीनी  चदरिया बीनेवाला बुनकर रहलें।मेहनत आ श्रमे उनकर पूँजी रहे जेकरा जरिये ऊ आपन जीवन-बसर करत रहलें। भोजपुरी में रोपनी-सोहनी के लोकगीतन से लेके आउरो सब संस्कार गीतन में श्रम के महिमा के बखान बा।रोपनी गीतन…

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भोजपुरी भाषा आ साहित्य : एक नजर

जवना माध्यम से अपना विचार के लेन-देन होला, उहे भाषा ह। भारत में पैशाची,संस्कृत , पाली, प्राकृत आ अपभ्रंश के संगे-संगे चलत भोजपुरी हजारन बरिस पुरान भासा हS। प्राकृत आ अपभ्रंश से 12 वीं सदी आवत-आवत असमिया,बंगला,उड़िया, मैथिली,मगही,आ भोजपुरी के अलगा-अलगा रूप निखरल। – उनइसवीं सदी का अंतिम चरन में भाषा के भोजपुरी नाँव मिलल। – 1789 ई0 में काशी के राजा चेत सिंह के सिपाहियन के बोली के भोजपुरी  नाँव से उल्लेख भइल बाटे। – सन् 1868 ई0 में जान बीम्स आपन एगो लेख ‘रायल एसियाटिक  सोसाइटी’ में पढ़ले…

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