अब कहाँ ऊ फगुआ-बसंत!

जनम कानपुर में भइल बाकिर लइकायी के दिन गाँवें में बीतल। लमहर परिवार रहे। दूगो तीन गो फुआ लोग के ससुरा  जाए खातिर दिन धरा त दू तीन जनी के बोलावे खातिर। त हम लइका लोग के ठीक ठाक फ़ौज रहे। घर में जेतना लोग बहरा नोकरी करत रहे ओकर परिवार ढेर घरहीं रहत रहे। पिताजी कानपुर आर्डिनेंस फैक्ट्ररी में नोकरी करत रहनीं आ हमनीं के गाँव में। ढेर दिन हो जा त मामा जी मम्मी के बिदा करा ले जायीं। तब साल दू साल मामा जी की घरे बीते। ओकरी बाद फेरु अपनी गाँव । तब सबसे सहज आ सुगम सवारी टायर होत रहे। जवना में बैल नधा जा आ गाड़ीवान बैलन के हुर्पेटत, हाँकत, कबो गावत चले। ज्यादातर बेटी पतोह टायर की सवारी से नइहर ससुरे आवत जात रहली बाकिर बिआहे में डोली में बिदा होत रहली। तब आमजन लगे आजु की तरे लमहर लमहर गाड़ी ना होत रहे। हँ, टायर ढेर लोग की दुआरे ठाड़ रहत रहे।

हँ, त हम गाँवें की माटी में होसगर भइनी। घर में ननद भौजाई लोग के हँसी ठिठोली होखल करे। राति के तीनिए बजे से चूड़ी के खनखन आ जाँत के घर्र घर्र होखे लागे। चापाकल चले लागे। ई एक घर के बाति ना रहे। घर घर के ईहे हालि रहे। घर के मेहरारू लोग दुआरे पर सुत्तल मरद लोग की खटिया के फराकाहे से गोड़ दबा के बगयिचा की ओर चल दे आ एही समय भाई पटिदारी घर के मेहरारू लोग से मिल बतिया ले लोग। केहू एक जनी के हाथ में टार्च होखे आ उहे ई लोग के नेतृत्व करें। सूरज बाबा अपनी घर से जबले तैयार हो के अपनी रथ पर चढ़ें, तबले घर के सब मेहरारू लोग अंगना में नहा-धो के फिट हो जा लोग। आ जइसे तनी अँजोर फरिआवे, ई लोग अपनी अपनी कमरा में ढूकि जा लोग आ जेकर रसोई के भांजा होखे ऊ लोग रसोइया घर में। बाकी बड़की ईया आपन माला ले के जपे बइठ जा आ बाकी दूनू ईया घरा भर में डोलल करें।

ओने दुआरे पर बाबा लोग के दतुअन आ नहायिल धोवल होखे तबले एने इया एक मुँह की चूल्हि पर बटुली भर चाह बना लें आ गिलासे में छान छन फुआ लोग से दुआरे पर आदमी लोग के आ भीतर दुलहिन लोग के भेजवा दें। अब ए बाति के एहिजा रोकतानी, काहें से कि हम लिखल कुच्छु अउरी चाहतानी आ लिखात कुच्छु अउरी बा।

त मामा दिन धरा के अम्मा के बिदा करा ले गइल रहनीं। हम अपनी दूनू छोट बहिन की साथे टायर में बइठ के मामा की घरे चल गइनी। आजु गाड़ी में बइठि के घुमला में ऊ सुख नइखे जवन टायर में बइठि के अपनी घर से मामाजी की घर की सफ़र में रहे। हमके तनी तनी मन पड़ेला, बिदाई से एक दिन पहिले बाबा जी हरियर बाँस कटवा के मंगाईं। केहू के बोला के पातर पातर फंटी चिरवा के टायर पर छज्जा छावा दीं आ ओही छज्जा पर तिरपाल डाली के बान्हि बून्हि के रथ तैयार हो जा। अगिले दिने अम्मा की बइठला से पहिले ओहिमें गद्दा बिछा के नया चादर बिछा दीहल जाउ। आ अम्मा की बइठला के बाद आगे पीछे दूनू ओर पर्दा गिरा दिहल जाउ। पर्दा के जोगाड़ तिरपाल के साथे क दीहल जात रहे। आधा रास्ता ले अम्मा के घुँघुट ना उठत रहे। दूनू बहिन खेल खुल के सुति जा बाकिर हम मोका से खेत खरिहान, बाग़-बगइचा, नदी ताल, ईंटा के भट्ठा आ चिमनी से उठत धुआँ देखत रहीं। आम्मा भी बइठल बइठल हारि जाँ त सुति रहे बाकिर हमार आँखी बहरे लागल रहे।

त हम गोधन पर लगन उठला के बाद मामा घरे आ गइल रहनीं।

एक बेर में पिताजी के दू चिट्ठी आवत रहे। बड़का बाबूजी खातिर अलगे आ अम्मा खातिर अलगे। अम्मा की चिट्ठी में ईया खातिर एगो पैराग्राफ अलगे लिखल रहत रहे जवना के अम्मा पढ़ि के इया के सुना दें। जब हमनीके मामा घरे आ गइनीं त अम्मा के चिट्ठी मामा जी के घर की पता पर आवे लागल।

आजु की तरे पहिले ई ना रहे कि बेटी बहिन छने आवें, छने जा। चार बरिस ससुरा त दू बरिस ले नयिहरो रहे लोग। त मामा की घरे अइला की बाद हमार नाँव चौरा की इस्कूल में लिखा गइल। मामा की घर की लगवे मघुबन साही (जिनका के हम मामा कहत रहनी) के घर रहे। उनके बेटी मीना दीदी ओही स्कूल में सात कि आठ में पढ़त रहली। मामा उनसे कहि दिहनीं कि इनहूँ के हाथ पकले ले जइहा। ई बति हमके खूब मन पड़ेला कि मीना दीदी कबो हमके लिहले बिना इस्कूल ना गइली।

हमनीके गाँव से निकल के मड़ुआ की खेते से होत बगयिचा पार क के दूसरे गावें पढ़े जायीं जां।

अम्मा की अइला के कुच्छु दिन बाद मामा मउसिओ के बिदा करा ले अइनीं। दूनू बहिन लोग डलिया बीने के कहल त नानी मामा से कहि के मूज रंग आ छेदनी, सब सामान मंगवा दिहनीं आ इ लोग मूज भे के चिर के रंग रंग के रंग से राग के जवन सुन्दर सुन्दर डिजाइन डालि के दउरा दउरी आ डलिया मउनी बीने लोग। ओकरी बाद दुसूती के चादर, तकिया गिलाफ आ जवन सुन्दर सुन्दर सीता-राम, बाल गोपाल ले फोटो काढ़ल लोग। जब ऊ फोटो बाजार से मढ़वा के आवे त बुझा कि साछात सीता राम आ पतुकी से दही निकालत गोपाल जी बइठल बानीं। जवन जीवंत चित्र सुई धागा से उकेरत रहे लोग कि देखे वाला देखते रहि जा। ई सब गुन ढंग अम्मा आ मउसी बक्सा भर भर के अपनी घर ले जा लोग । अम्मा आवें त ईया बड़ी साध से सबकें बोला बोला ई कुल देखावें कि हमार पतोह केतना गुनगर बाड़ी। बाद में जवन मन करे फुआ लोग अपनी घरे उठा ले जा लोग।

नेवान के बाद फगुआ के दिन सुरु हो गइल। माने फागुन लाग गइल रहे। जेने देखा ओने केहू ना केहू की कपड़ा पर रंग देखाए लागल। जब केहू लाल पिअर रंग पड़ल कुरता धोती पहिनले निकले त मामा पूछि, “का हो! बुझाता कि ससुरारी गइल रहला ह!”

“हँ, महाराज! ससुरारिये में ई गत भइल ह। नाया मर्दानी किनले रहनीं हँ, सब हेवान क दिहली कुल मेंहरारू। अरे महाराज! ऊ मेहरारू मरदों ले जबर रहली ह सन।”

सुनि के मामा जी हसीं कि हँसबे ना करीं।

एही तरे केहू बरिआते त केहू समधिआने से रंगाइल कपड़ा पहिनले घूमे। तब लोग की लगे ढेर कपड़ा ना होत रहे, त माघ फागुन भर सबकी देहि पर रंग बिरंगा कपड़ा देखाई दे जात रहे। ई ना रहे कि रंग पड़ि गइला के बाद ऊ कपड़ा फेंका जाउ।

फगुआ के दिन निकिचात रहे। कानपुर से पिता जी के चिट्ठी मामा घरे पहुँचि गइल रहे कि होली की छुट्टी में घरे आवतानी। मामा आ मउसी की ओर से तुरते जबाबी चिट्ठी लिखायिल। कि फगुआ से दू दिन पहिलहीं एहिजा आवे के बा। आ जल्दी से पटखौली जा के छोड़ाइयो गइल। ओकरी बाद घर में पिता जी की अयिला के बाद का-का होई! तैयारी होखे लागल। जहाँ मामा-मउसी में पिताजी के कइसे रंगल जाई ए बाति पर मन्त्रना होत रहे ओहिजा नानी मामी बइठि के कहिया का बनी, एकर मेनू तैयार करत रहे। नानी घर में जवन सामान के कमी बेसी रहे ओकर लिस्ट बना के मामा से किनवा के रखवा दिहनीं। का, कि दमादे की आगे कवनों सामान कीनि की ना मंगावे के पड़े। टोला पड़ोस सब जानि गइल रहे कि पहुना आवतानी। हमहूँ खुस रहनी। काहें से कि पिताजी कानपुर से ढेर कुल खाए पिए, खेले के सामान आ कपड़ा लत्ता ले के आयीं। लइकई बुद्धि खइला खेलला में ढेर रहेला आ नया कपड़ा पहिने के मिल जा, त बतिय का !

घर में बिहान से ले के सांझि ले पिता जी के बाति होखे। नानी गोंसारी से भूजा भुजवा लिहले रहली। दही चिवरा खाए खातिर घरही में चिवरा कुटा के धरा गइल रहे। रामबिरिछ मामा किहा दूध खातिर कहा गइल रहे। ख़ुशी के दिन कब बीत जाला पते ना चलेला।

तब सवारी साधन आजु की तरे ना रहे। एगो बस बिहाने देवरिया से फाजिल नगर खातिर चले आ ऊहे बस रति ले देवरिया लवटे। पिता जी चिट्ठी में बता दिहले रहनीं कि हम हे दिने आवतानी।

ऊ दिन आइल आ मामा बस आवे से एक घंटा पहिलहीं हमके साइकिल पर बइठा के चौरा पहुँचि गइनीं। अबहिन बस आवे में समय रहे। एगो चाह की दोकान के सामने बेंच पर हमके बइठा के  मामा जी बगल की दोकानि से दोना पत्तल में गरम गरम जलेबी कीनि के हमके थमा दिहनीं। चीनी की सीरा में तर-बतर जलेबी तब बड़हन मिठाई होत रहे। हम फूँक फूँक खाए लगनी आ मामाजी अपना चाय बनवा के पिए लगनीं। कुच्छु संघतिया लोग भेंट गइल रहे त बातचीत करत समय बीति गइल तबे बस के हार्न सुना गइल।

“बस आ गइल, बस आ गइल के हल्ला होखे लागल। बस पकड़े वाला लोग आपन बक्सा-पेटी, झोरी झोरा, बोरी-बोरा, सब उठा-उठा सड़क पर ध के खड़ा हो गइल।

‘एहिजा बइठल रहिहा। तनिको हिलिहा जनि।” हमके सचेत क के मामा सड़क पर जा के ठाड़ हो गइनीं। मुसकिल से पाँच सात मिनट बाद बस आवत देखा गइल।

देखते देखत बस आ के हमरी सामने रुकि गइल रहे। कुछ लोग बस की छत पर सामान उतारे चढ़ावे खातिर चढ़ि गइल रहे। त कुछ लोग बसा से उतरत अवइया की हाथे से बक्सा पेटी ले ले के एक ओर धरे लागल रहे। तनिये देर में का जाने केतना लोग उतरि गइल आ केतना चढ़ियो गइल। बस जेतना कसि के आइल रहे ओतने फेरू से कसा गइल रहे। जाए वाला बिछोह में त आवे वाला मिलन की ख़ुशी में रोवत भेंटत रहे। हम एही दृश्य में अझुराइल रहनी कि देखनी पिताजी बस से उतरत रहनीं। मामा लपक के उहाँ कि हाथे से दूनू बेग ले लिहनिं आ जहँवा हम बयिठल रहनीं ओहीजा बेंच पर ध दिहनीं। तबले पिता जी भीड़ से बहरा निकल अइनीं। मामा जी गोड़ लगनीं आ पिता जी उनका के अँकवार में ले लिहनीं। अब पिताजी के नज़र हमपर पड़ल आ मामा के छोड़ के लपक के हमके उठा के एतना जोर से करेजा से लगवनीं कि उहाँ के धड़कन हम महसूस करत रहनीं। अबले मामा जी एक बेग साइकिल की कैरियर पर त दूसरका हैंडिल पर टांग के सायकिल डगरा दिहनीं। पिताजी हमार माथ चूमि के गोदी से उतार दिहनी।  आगे आगे मामा आ पीछे हमार हाथ पकड़ले पिता जी चल दिहनीं। बाकिर बस से उतर के  कई जनी  अपनी बाबूजी आ भाई के गोड़ पकड़ के अबले रोवत रहे लोग। कुच्छु मेहरारू लोग ठाड़ हो के आपन  आँसु पोंछत रहे लोग। ओ समय के रोवायिओ में एगो राग रहे, लय रहे। सनेह आ सिकाइत सब ओही रोवाई की साथे व्यक्त क देत रहे लोग।

हमनीका जइसे दुआरे पहुँचनी, नानी, मामी, अम्मा, मउसी सब लोग दोगहा में चउकठ पकड़ के ठाड़ रहे लोग। पिता जी के देखते मउसी दौड़ के आ के गोड़ लगली। मामाजी सायकिल ठाड़ क के बैग उतारे लगनीं। दोगहा में खटिया पर गद्दा के ऊपर नया चादर बीछवाल रहे। पिता जी नानी के गोड़ लगनीं त नानी उहाँ के हाथ पकड़ के ओही खटिया पर बयिठा दिहनीं। मामी फट दे परात में पानी ले अइनीं। पिता जी के जूता उतारे खातिर मामी हाथ बढ़वनी बाकिर पिता जी मामी के रोकि के आपन जूता मोजा उतरनी। मामी पिताजी के गोड़ परात में धोवे लगनीं। (अबो हमनीके जानी त मामी जी ई कार कारेनीं)। पिता जी के देखिके अम्मा के चेहरा पर उहे लाली पसरल रहे जवन सूरज निकलला के पहिले आकाश में पसरेला।

हम बेग खुलला की ताक में रहनीं। दूनू छोटकी बहिन लोग के पिता जी अपनी गोदी में बइठवले रहनीं। अगिलही दिनसे घर फगुआ सुरु हो गयिल रहे। पिता जी खाए बइठीं त मामी, मउसी पीछे से उहाँ की मुँहे में दही पोति दें। सुत्तल रहीं त ऊहाँ के लाली, टिकुली आ सेंदुर लगा दें। नहा के आईं त रंग फेंकि दें। पिताजी के हेरान कइले रहे लोग। नानी रिसियाँ बाकिर नानीके के माने ! फगुआ में बहनोई चाहें ननदोई भेंटा जाँ त उनके गति त बनही के रहे। दू दिन से पिता जी के ई लोग हेरान कइले रहे। मामा चालाकी से पिता जी की ओर हो जांसु आ ओने आँखि मटकिया दें, मामी मउसी मीलि के पिता जी के रंग दे लोग।

सम्हत जरे वाला दिने सबके बुकुआ लगावल गइल। पिता जी मना क दिहनीं त मामी जी उहाँ कि गोड़ की अँगुठा भर में लगा दिहनीं। देहि से छूटल बुकुआ कागज में ध के मामा के दिया गइल। मामा जी ले जा के सम्हत में डाल दिहनी कि सबके अलाइ बलाइ ओही में जर जाई।

खैर…! सौ सोनार की एक लोहार की। फगुआ के दिन आ गइल। पिताजी कानपुर से सब बेवस्था ले के आइल रहनीं। महकुआ अबीर आ एक्स्ट्रा गुलाबी रंग। राति के बगयिचा में समहत फुंका गइल रहे। अम्मा आ मउसी घर में पुआ पकवान बनावे में मामी जी के मदद करत रहे लोग। दुआर पर ढोलक झांझ मंजीरा बजावत फाग गावत लोग आ गइल रहे। मामा ओ लोग की बेवस्था में लागि गइल रहनीं। पिता जी भी बहरा ओ लोग के बीच चलि गइनीं। हम तीनू बहिन भी घूम-घूम मालपुआ खात रहनी। पिता जी अबीर से रंगा गइल रहनी। एक थरिया पुआ मामा ओह लोग खातिर बहरा ले गइल रहनी। सब लोग गा-बजा के रंग अबीर खेलि के दूसरे की दुआरे की ओर चले लागल त  मामा, पिता जी के भी अपनी साथे खींचि के ले गइल लोग। गाँव भर घूमि के लोग लवटि के आइल तबले खाना बना-वना के मामी मउसी पिता जी के साथै फगुआ खेले खातिर तइयार बयिठल रहे लोग। पिताजी अइनीं त चिन्हाते ना रहनीं। छोटकी बहिन उहाँ के देखि के डेरा गइल आ बाँ बाँ क के रोवे लागल। नानी जी ओकरा के गोदी ले के चुप करावे लगनीं।

“ए जी रउरा त पहिलहीं से रंगा गइल बानीं ! अब हमनीं के कहाँ रंग लगायीं जाँ!” मामी कहनीं।

मामा जी कल चलवनीं आ पिताजी मुँह हाथ साबुन से धो के ठाड़ हो गइनी, “लीं सभे, रउरो लोग लगा लीं।”

पिता जी पीढ़ा पर बइठ गइनीं। ई लोग पिता जी के खूब दरकचल लोग। पिता जी ई लोग जवन करत रहे, चुपचाप करे दिहनीं। हाइसुक रंग के ई लोग थक गइली तब पिता जी कहनीं कि” पेट भरि गइल?”

हम ई सब दोगहा में चौकठ पर बइठल देखत रहनी। पिताजी के गति बनवला के बाद ईहे लोग नहाए खातिर पानी भर-भर के दीहल। रंग अबीर के नशा से पिता जी के मूड़ी बत्थे लागल रहे। आ पिता जी पच्छिम घर में जा के आराम करे लगनीं। ई लोग अपनी जीत पर बड़ा खुश रहे। अँगना में बइठ के खात रहे लोग। पिता जी पीछे से आ के आम्मा आ मउसी के कमर से नीचे ले लटकत चोटी एक्के में बाँन्ह दिहनीं। मामी देखनीं बाकिर ए बेर आपन पाला बदल दिहनीं आ चुप रहि गइनीं। जब खा के मउसी उठली त चोटी खिंचा गइल आ अम्मा की साथे मौसिओ चिहा गइली।

घर भर हँसे। मउसी भागें त आम्मा, खींचा आ अम्मा भागें त मउसी। पिता जी रंग घोरी के दूनू लोग के खूब बनवनीं। मामिओ ना बचनीं। मउसी-अम्मा माई माई करे लोग। नानी एक और बइठ के तमाशा देखत रहनीं।

“अब भोगा लोग। तोहा लोगिन कुच्छु कम गति कइलू लोग ! हम का करीं !” ई लोग त लाल भइबे कइल लोग आंगनों लाल हो गइल रहे।

फगुआ बाद पिता जी के बिदाई भइल। लवटत घरी पिताजी लगे एगो छोटका बेग भर रहि गइल रहे। जवना में पिताजी के कपड़ा रहे आ नानी जी से मीलल बिदाई। मामा बेग साइकिल पर लटका के चल दिहनीं। पीछे पिताजी। नानीजी से ले के मामी, मउसी आ अम्मा सबकी आँखि में लोर भरल रहे। पिता जी नानी के गोड़ लागि के बारी बारी से हम तीनू बहिन के मुँह चूमि के दोगहा से निकल गइनीं। आ पीछे मुड़ि के ना तकनीं। जरूर  ऊहाँ  के आँखि भी लोर से भरल होई। जबले पिता जी देखइनीं तबले सब लोग दोगहा से देखल। पिता जी आँखि से ओझल हो गइनीं त सभे चउकठ छोड़ि के भीतर आ गइल।

“घर सून हो गइल।” कहि के नानी आँसू पोंछे लगनीं। अम्मा पच्छिम घर में चलि गइली। शायद अकेले में रोवे खातिर। मामी काम ले लागि गइनीं आ मउसी आम्मा लगे चलि गइली। दू तीन दिन ले घर में उदासी रहल। कुछ दिन बाद पिता जी के चिट्ठी आ गइल कि हम कानपुर पहुँच गइनीं।

अपनीं होस में हम पिताजी के ऊहे फगुआ देखनीं। ओकरी बाद पिता जी गाँवें फगुआ खेले खातिर ना जा पवनीं। अम्मा के देहिं के सब रंग ले के अइसन सवारी पर चढ़नीं कि ऊहाँ के लवटि के ना अइनीं।  ना आम्मा के देहि पर कबो रंग चढ़ल।

अम्मा के देखि के ईया, बाबाजी के जियते आपन सब रंग उतार दिहली। केहू पतोह जब उनके बार  झारि के सेनुर लगावे चले त रोकि दें। उनकी आँखि से झर झर आँसू गीरे लागे। कहें कि “जवान पतोह सून मांगि लिहले बइठल बा आ हम आपन मांगि भरीं!”

हम ईया के कब्बो सेनुर टिकुली लगावत ना देखनीं। जिनगी की भागम भाग में ई कुल बतिया बिसरल रहेला बाकिर जब अकेल बइठेनीं आ ई कुल बतिया मन परि जाला त लोर ना रुकेला। ई तिवहार पिताजी के साथे चलि गइल। अब ना त मामा जी बानीं ना नानी जी आ ना ऊ तीज तिवहार!

कहे खातिर त हम अपनी घर में सब करेनीं, बाकिर एक मन से। एक मन कुहुकल करेला। अपने परिवार आ लइका लोग खातिर सब करहीं के पड़ेला बाकिर हमार मन ऊहे फगुआ बसंत जोहेला। बाकिर अब कहाँ ऊ फगुआ, आ कहाँ ऊ बसंत!

मीनाधर पाठक

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