गीतकार डाॅ.गोरख प्रसाद मस्ताना आ उनकर गीत-कविता संग्रह-‘आस- अँजोर’

पटना दूरदर्शन में एही साल 26 जनवरी के बिहान भइला एगो भोजपुरी कवि-गोष्ठी के रिकार्डिंग रहे। हम तनिका लेट पहुँचल रहनीं ।पहिले से पता ना रहे कि आउर संगी कवि सभे में के-के बा बाकिर मिजाजे हरिअरा गइल जब देखनीं कि स्टेज पर चढ़े के बेरा दू गो नामी भोजपुरी गीतकार अग्रज -डाॅ.गोरख प्रसाद मस्ताना आ कुमार विरल जी साथे बानीं।ओह गोष्ठी के संचालक रहनीं वरिष्ठ कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी जी।भोजपुरी में जादेतर मुक्त छंद के समकालीन भाव-बोध से जुड़ल कविते लिखल हम चाहीले बाकिर दू गो गीतकारन के साथे हमहूँ आपन गजले पढ़ले रहनीं।साँच पूछल जाव त भोजपुरिये ना हिन्दी से जुड़ल सगरी लोकभाषा सभ के ई विशेषता आ प्रकृति रहल बा कि ओकनीं में गीत-रचना जेतना सुघर आ रहनगर रंग पकड़ेले, उतर पावेले- ओतना मुक्त छंद के रचनन के थोरिके कठिनाई होला।अशोक द्विवेदी,बलभद्र आ प्रकाश उदय जइसन समकालीन कविता के महत्वपूर्ण भोजपुरी कवि लोग भोजपुरी के एही प्रकृति के भाँपत अपना कवितन में लोकलय आ लोकधुनन के राह भरसक गहले चलल बा। दूरदर्शन के ओह कविगोष्ठी से भोजपुरी कविता के समकालीन रूप उभर के सामने आ सकल रहे चूँकि शामिल सभे कवि प्रकृति आ प्रेम से आगहूँ बढ़िके भोजपुरी कविता के देश आ समाज के चिन्ता आ चुनौतियन से जोड़े के समझदारी राखे वाला रहलन।हमरा बहुत संतोष आ खुशी भइल ई देखिके कि कोमल भावना आ प्रकृति के चित्र उरेहे में अपना मसृण कल्पना आ रागात्मकता के परिचय देनेवाला गीतकार विरल जी (मुजफ्फरपुर) आ शुरुआती दिन में देशभक्ति आ राष्ट्रीयता के महोच्चार करे वाला कवि डाॅ.गोरख प्रसाद मस्ताना जी के गीतन में अब एगो महत्वपूर्ण बदलाव आ गइल बा।
रिकार्डिंग के बाद बाहर अइला पर आदरणीय गोरख जी हमरा के आपन हाले में छपल गीत -संग्रह -‘आस-अँजोर’ दिहले रहनीं ।भेंट लगभग बीस बरिस बाद भइल रहे हमार उहाँ से।एक नजर त ओही घरी डाल लिहले रहनीं एह किताब पर हम, बाकिर एने जब हाल में छपल कुछ गीत-संग्रहन के पढ़े के मन बनल बा त ओही क्रम में एह किताब के आज फेरू से निकाल के पढ़े के सौभाग्य बन सकल ह।
‘आस-अंजोर’ के ‘आपन कहनाम ‘ में डाॅ. गोरख जी के जवन वक्तव्य बा ऊ उहाँ के गीतन आ कवितन के भाव-भूमि आ वैचारिकता के स्पष्ट कर देबे खातिर काफी बा।उहाँ के लिखत बानीं-
“आज भोजपुरी में जहाँ परम्परा के गीत लिखा रहल बा उहें परम्परा से हटियो के लिखाता, बाकिर बहुते कम।जवन लिखाता ओमें साँच कम ,सत्ता के चपलूसी जादे लउकता।××× आईं हमनीं भोजपुरी भाषा में सत्ता के बिछावल अनेयाय के खिलाफ खड़िआईं सभे।भोजपुरी साहित्य में नारी विमर्श ,दलित विमर्श, बृद्ध विमर्श आ गरीब-गुरबा के जिनगी के सुख-दुख पर लिखीं,किसान के पीड़ा पर लिखीं।सामाजिक विषमता,पाखंड आ अंधविश्वास के खिलाफ खड़ा होई आपन कलम लेके।”
-एह पूरा वक्तव्य के हम गोरख मस्ताना जी के कवि में आइल एगो बड़हन बदलाव के रूप में देख रहल बानीं।गोरख जी के तंग भाई के संगे मंच पर सीवान में कविता पढ़त सुनले बानीं हम। राष्ट्रीयता के उद्दाम आवेग उहाँ के कवितन में तब रहे आ आज जब राष्ट्रवाद के माला-जाप एतना तेजी से होखे लागल बा तब सामाजिक-राजनीतिक सरोकारन का ओरि कवि के झुकाव बहुत कुछ सोचे-विचारे के अवसर प्रदान कर रहल बा। अभियो हालाकि समीक्ष्य गीत-संग्रहो में कुछ गीत अइसन जरूर बाड़े सँ जवनन से देशभक्ति आ सांस्कृतिक विरासत के प्रति आत्माभिमान के भाव जाग उठत बा।
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कवनों कवि जब अपने बनावल दायरा से बाहर निकल के बहरी के देश-दुनियो के निरखत-परखत रहेला आ अपना में समय आ समाज के धड़कन सुनत, ओकरा जरूरत के मुताबिक सार्थक परिवर्तन के संभावना अपनो में सहेजले रहेला तबे ओकर रचना कालजीवी हो पावेले।हमरा कहे में कवनों गुरेज नइखे कि बिना कालजीवी भइले कालजयियो रचना कइल संभव नइखे। गोरख जी के एह संग्रह में ‘समय’ शीर्षक से एगो गीतो बा।ओकरा पाँतिन के प्रसंगत: देखे के चाहीं-
“साँच का हऽ समइया बतइबे करी
के हऽ आपन पराया बुझईबे करी
चाहे केतनों मुखवटा लगा के चलीं
मीठ बोली से दोसरा के केतनों छलीं
साँच लबरू के दरपन देखईबे करी।
हाथ में जे अनय वाला तलवार बा
ना रहल ना रही जवन हंकार बा
जे धधाईल बा एकदिन बुतईबे करी
आदमी जे करे, ओकर देखवईया बा
का लिखत बानीं ओहू के पढ़वईया बा
कुल्ह तराजू प एकदिन जोखईबे करी।”
-अपना गीतन के लेके कवनों कवि में अगर एतना भरोसा आ आत्मविश्वास बा कि ऊ जोखे-जोखाये तक तइयार बा, तऽ एतना तऽ मानहीं के पड़ी कि ऊ भावातिरेक ले जादे समय के सच्चाइयन के आँख में आँख डालि के चलल बा, आपन सपना आ संकल्प के प्रति ईमानदार रहल बा।
गोरख मस्ताना जी के एह संग्रह के गीतन में हालाकि सामाजिक विषमता,नाइंसाफी,राजनीतिक कुचक्र, पूँजीवाद से सत्ता के दुरभिसंधि,नारी आ दलित-अभिवंचित के शोषण ,धार्मिक आडम्बर आदि पर तीखा आ सीधा प्रहार बा बाकिर गोरख जी काव्य तत्व के गला घोंट के आपन ई सामाजिक प्रतिबद्धता पूरा नइखन कइले। उनकर कविता बौद्ध दर्शन आ अम्बेडकरवादी चिंतन से प्रभावित भइला के बावजूद कविता के रसपेशलता आ रागात्मक-रमणीयता से विमुख-विरत नइखे भइल। उलटे बुद्ध के करूणा आ अम्बेदकर के सामाजिक समरसता के भाव-विचारन से उनकर गीत ,गजल आ कविता सम्बलित दिखत बा।
पहिले हम गोरख जी के देशप्रेम के ऊ भावना उनका एह संग्रह में निरेखे के चाहब जवन फल्गु लेखाँ उनकरा भीतरी कहीं ना कहीं हर जगह दृश्य-अदृश्य बनल रहल बिया।’पुकार ‘ शीर्षक रचना के एह पंक्तियन के देखीं सभे-
“सुनऽ तोहके पुकारता सिवान रजऊ
माँगे बूने-बूने खूनवा के दान रजऊ
हमरा रूप रंग के तेजी
मेजर के संदेशा भेजी
कह दीं,काल्हे आवत बानीं
देशवे पर अब चढ़ी जवानी
मरलो पर शहीद के पइबऽ पहिचान रजऊ!”
-स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम भोजपुरिया योद्धा बाबू कुँवर सिंह के प्रति आपन सरधा आ सम्मान निवेदित करत गोरख जी कहत बाड़ें-
“रनभूईं में काल रहसु ऊ गोरन के दल काँपे
करनल, जनरल केहू उनके देखते रहता नाते
शत वन्दन आजादी ला, उनकर लमहर कुरबानी के
भोजपुरी माई के बेटा,मरद रहस एकपनिया
शाहाबाद के माटी गावे उनकर अमर कहनियाँ
अपनी बाँह काटि अरपित कइलें गंगा के पानी के।”
-ई पंक्ति सब एह बात के साफ करे वाली बाड़ी सँ कि देशभक्ति के भाव हरेक भारतीय के दिल में सदैव बहुते गहिरा जमल रहेला ना कि एह पर कुछ खास लोग के एकाधिकार बा,कॉपीराइट रिजर्व्ड बा।
भारतीय राष्ट्रीयता के संदर्भ में महात्मा गाँधी से बढ़िया केहू दोसरा के विचार हमरा अब ले नइखे मिलल।उहाँ के कथन ह कि “मेरे लिए देश-प्रेम और मानव-प्रेम में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं, मैं देशप्रेमी हूँ, क्योंकि मैं मानवप्रेमी हूँ. मेरा देशप्रेम वर्जनशील नहीं है ।×××यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं है तो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्यूनता है।” मतलब साफ बा कि देशप्रेमी का मानवताप्रेमी भइल आ मानवताप्रेमी,समताप्रेमी का देशप्रेमी भइला में कवनों अस्वाभाविकता भा अचरज के बात नइखे।दूनू एक दोसरा के परिपूरक भाव ह। कवि गोरखो जी के इहे काव्य-विवेक आ दर्शन बा।
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दिनकर जी के अपना एगो कविता में कहले बानीं-
“रोटी दो मत उसे गीत दो जिसको भूख लगी है
भूखों में दर्शन उभारना छल है,दगा,ठगी है।”
-कुछ एही तरे के विचार गोरखो जी के बा-
“चान पर चरचा भइल त का भइल
नून रोटी के कहानी कब लिखाई
सुख के कवितन से भरल बाड़ी कितबिया
दुख के झहरत लोर ,पानी कब लिखाई
×× ×× ××
खेत बारी आजो घाटा में चलत बा
बिआजे में खेती करवईया मरत बा
रोअत,हर बैला किसानी कब लिखाई ।”(चरचा)
-कवि के चिन्ता में भय,भूख,फटैहाली आ बेरोजगारी आदि शामिल बा।ऊ देश के दुर्दशा देख के ओकरा भयंकर परिणाम से सचेत करत बा।देश में भ्रष्टाचार कइसे आसन जमा लेले बा, शोषण के तिलिस्म कइसे ठाड़ बा , दूमुँहापन आ दोहरा चरित्र से आम जनता रोज कइसे छला रहल बिया,धर्म के डुगडुगी बजा के रोजी-रोटी से धेयान कइसे बिचिलावल जा रहल बा,रेडियो-टी.वी-अखबारन आदि पर कब्जा करिके झूठ कइसे परोसा रहल बा,पूरा देश के अर्थतंत्र के कइसे कुछ पूँजीपति घराना के हाथन में गिरवी रख दिआइल बा,औद्योगिकीकरण के आड़ में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कइसे कचूमर निकल रहल बा, किसानन के फसलन के वाजिब दाम ना देके ‘प्रसंस्करण'(Processing)के नाम पर बड़का -बड़का उद्योगपतियन के कइसे लाभ पहुँचावल जा रहल बा-एह सभ बातन के जानकारी कवि गोरख मस्ताना जी अपना गीतन-कवितन के माध्यम से अपना पाठकन के उपलब्ध करावत बाड़न।
सामाजिक वर्ग-संघर्ष के बात करत कवि गाँवन के अनदेखी आ शहरी -विकास के तेजी में गाँवन से पलायन के समस्यो पर आपन नजर रखले बाड़ें।ऊ कहत बाड़ें-
“मड़ई के छाती पर चढ़िके हुमचे महल अटरिया भाई
गाँव-गाँव के घोंटत जाता,रोजे-रोज शहरिया भाई।
×× ×× ××
मुँह बवले बा शहर बुझाता, गाँव चबा के मानी
देश गाँव के रहे ई भारत ओपर घहरत घानी
लागे गाँव के पिअरी धइलस भारी हवे बेमरिया भाई।”
(सुरसा भइल शहर)
कवि के मान्यता बा कि तमाम तरे के बेमारी लगला के बावजूद आजो गाँवन आ शहर के चरित्र में मौलिक अन्तर बा,गाँव बिगड़ियो के शहर के एकाकीपन आ मतलबीपन से अभी गठजोड़ नइखे कर सकल।कवि के कलम से गाँव आ शहर के चित्र आ चरित्र एके कविता के दू गो परिच्छेदन में देखल जा सकत बा-
गाँव के चित्र-
“जातो आ कुजातो में गजबे ईयारी
पंडी जी से धोबी के गँठाइल भईयारी
छोटकू कहेलें बूढ़ बड़कू के काका
मिसरी ले मीठ ह पीरीतिया के भाखा
केहू से ना केहू के बिगाड़ होखे कबहूँ
भाव ई करेज में जगवले बानीं
हम त गाँवे में रहे के मन बनवले बानीं।
शहर के चित्र-
“मनवा डेराय देखी शहरी अटरिया
गोर-गोर लोगवा के मन लागे करिया
एके जघे आगे पीछू घरवा दुआर बा
टेमही ओसारा बाटे अँगना अन्हार बा
दरसो से परचो ना केहू से बा केहू के
उहँवा से मन के हटवले बानीं ।”
गाँव के प्रति आजो कवि के मन में काहे अनुराग के भाव बा ऊपर के पाँतिन में देखल जा सकत बा बाकिर इहो सच्चाई बा कि गाँव आ शहर दूनू में आज बदलाव आइल बा। ना गाँव गाँव रहि गइल बाटे ना शहर शहर।
सामाजिक-राजनीतिक दुरभिसंधि आ विसंगति,खान-पान-पहिरावा सभ दिसाँई आइल बदलाव आ सांस्कृतिक संक्रमण से आज गाँवो बाँचल नइखे रह गइल। फालतू के मुकदमाबाजी, बिना मेहनत-मजूरी कइले सरकारी राशि के हड़प,कामचोरी-काहिली,नशाखोरी आदि समस्यन से गाँव आज खूब जूझ रहल बाड़ें सँ। गाँवो में आज सतुआ- भूँजा ले बेसी गोलगप्पा आ मंचूरियन बिकाये लागल बा।गाँवन के चौपाल खतम हो गइल।लोकगीतन के राग हेरा गइल। पशुधन बाचल ना।विकास के रोशनी पहुँचावे के नाम पर ठेकेदारन के एगो नया लुटेरा वर्ग खड़ा हो गइल । शिक्षा -स्वास्थ्य सुविधा खातिर आजो गाँव से लोग का शहरे भागे के पड़त बा।ई सभ मिला के देखला पर इहे बुझात बा कि एगो पर्यावरण के आकर्षण अइसनका कारण बा जवना बदे मनई -मन बेरि-बेरि शहर से उचट के गाँवन का ओरि डेग बढ़ावे के चाहत बा बाकिर ओजवा आपन खा-पी के दोसरा के बारे में सोचेवाला के खुराफाती मन से डेरा के बहुते लोग नौकरी-चाकरी के बादो शहरे में आपन ठौर-ठिकाना बना लेत बा।कवनों कवि का गाँव आ शहर पर सोचे के क्रम में एहू दिसाँई विचारे के पड़ी।
गोरख जी संयुक्त परिवार के विघटन से व्यथित बाड़न।भाई-भाई के बीच बँटवारा के चलते आँगने-
दुआर नइखे बँटत ,मन भी बँट जाता।सामाजिक तनाव,जातीय उन्माद आ धार्मिक असहिष्णुता के बोलबाला हो गइल बा-
“भाई भाई कहे के बा भाव में उतार बा
नेहिया के देहिया में गहिरे दरार बा
घरवा कहे के एके अँगना घेराईल
दुअरवा अलगे-अलगे बा….।
पूछीं मत सेवई से पूआ के नाता
गजबे इयारी बाड़ें रचले बिधाता
आजु पथार,पानी,देहियो छुआता
इनारवा अलगे-अलगे बा….।”
संयुक्त परिवार के बिखराव के एह दौरो में गोरख मस्ताना जी के कुछ अइसन रचना एह संग्रह में संकलित बाड़ी सँ जवनन में परिवार के एक-एक सदस्य के बहुत मार्मिक ढंग से इयाद कइल गइल बा।माई ,बाबूजी,बिटिया ,बहिनी सभका प्रति यथोचित सम्मान आ स्नेह अभिव्यक्त करत कवि आपन बहुत मार्मिक रचना प्रस्तुत कइले बाड़ें।कौटुम्बिक प्रेम बरकरार राखे के दिसाँई कवि के आग्रह एह पाँतिन सभ में देखे जोग बा-
1-“सपना के अँगना सजावेली माई
सूतल हिया के जगावेली माई।” (माई)
2-“घर पर घर त बनल अँगनवा कहाँ हेराईल हो भाई
देहे-देहे रहल जे नेहिया कहाँ पराईल हो भाई ।”
(भुला गइल)
3- “बाबूजी के चरनिया चारो धाम लागेला
उनका नेहिया के छाहें कहाँ घाम लागेला।”(बाबू जी)
4- “माई-बाप के अपना जान-परान हई बेटी
कबो आँख के लोर कबो मुस्कान हई बेटी ।”(बेटी)
5-“गिर गइल खम्हा घुनाके लोभ के आन्ही बहल
देखीं ना अब पुरनियन से पूत के रिश्ता ढहल
आजू के अवलाद समुझे बोझ रहे टल गइल …।
(घुनाइल लरही)
– हर रिश्ता-नाता जोगवले चले वाला कवि अपना अड़ोस-पड़ोस के दुनियो के अपना सिरिजना में सहेजले चलल बा।ऊ अपना काव्य के प्रतिपाद्य ‘नारायनी'(गंडक) नदी के बनवले बाड़ें तऽ कहीं हरिहरपुर दिअरा के लगे लागेवाला बाजारो के अपना कविता में जगह देले बाड़ें। उनका कविता में एह कठिन अविश्वास के समय में सोबराती आ रघुनी भाई के इयारियो बचल बा तऽ कहीं खीरा,ककरी,तरबूजा के फसलो लहलहात बा,कहीं आम के मोजर के मधुर गंध बा त कहीं नीमिया के गाछ के झकोर आपन वजूद बनावे में कामयाब हो गइल बा।भोजपुरी समाज ,ओकर सुमधुर लोक- संस्कृति, ओकर लोकाचार-बेवहार सब पूरा-पूरा स्पेस बनवले दिखत बा गोरख जी के भोजपुरी गीत आ कविता में।
गोरख जी के लोकधुननो में रचित कुछ गीत एह संग्रह में संकलित बा जवनन में लोकजीवन के सुवास आ सहज सुन्दर परम्परा-प्रचलन आदि के झलक देखे जोग बा। छठ-पूजा के ‘खरना गीत ‘, ‘चईती’ आ ‘निरगुन’ आदि एही तरे के रचना बाड़ी सँ।उनका ‘निरगुन’ के कुछ पंक्ति प्रस्तुत बा-
“जवने दिन लिखाइल होई पिया से मिलनवा
चलि दीहें पिंजरा के तूरि के सुगनवा !”
एह संग्रह के एगो गजल के बानगी देखे जोग बा जेमें कथ्य बहुत साफ-साफ आ असरदार ढंग से अभिव्यक्त हो सकल बा-
” साँप काहे हो रहल बा आदमी
जहर काहे बो रहल बा आदमी ।”
‘जिनगी पहाड़ हो गइल ‘,’एकलव्य’ (खंडकाव्य) आ ‘अंजुरी में अंजोर’ नामक भोजपुरी काव्य संग्रह का बाद ‘आस-अँजोर ‘ गोरख मस्ताना जी के भोजपुरी कविता के चउथकी किताब बिया। एकरा अलावे आधा दर्जन से अधिका हिन्दी प्रबंधात्मक आ गीत-कविता आदि के किताबो मस्ताना जी के नाँवे बा। इहाँ के भोजपुरी कवितन के विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रमो में शामिल कइल गइल बा। बाकिर साँच पूछल जाव त ई किताब -‘आस-अँजोर ‘गोरख जी के काव्य -यात्रा के एगो महत्वपूर्ण पड़ाव बा जहवाँ उहाँ के रचनाधर्मिता आपन वैचारिक भाव-भूमियो के तलाश पूरा करे में सफल दिखत बिया।
[4]
स्पष्ट बा, कवि गोरख मस्ताना जी के गीत,गजल भा कविता में काव्य-तत्व के रागात्मकता आ रमणीयता के साथे -साथे अभिवंचित जन खातिर सामाजिक- राजनीतिक प्रतिबद्धता के स्वर सजोर बा।रचना में अभिधात्मकता के प्रधानता बा जवन उनका कविता के मंच आ किताब दूनू के जरिये लोकप्रिय बनावे में सहयोगी रहल बा।बहुजन के शासन के कामना के पीछे कवि के मकसद समाज के असमानता आ अंधविश्वास से छुटकारा रहल बा। मनुष्यता के भाव के अभाव समाज में कबो ना होखो-कवि के इहे सपना बा।ऊ एह किताब के शीर्षक- कविता ‘आस-अँजोर ‘ में साफ तौर पर कहत बाड़ें-
“धरती ना बने परती,छाती न दरक जाये
आसा के किरिन ललकी पुरजोर बनि के आई
सम्बन्ध के महातम देखीं। न दरक जायें
बान्हे जे मन से मन के ऊ डोर बनि के आई
सपना के मड़ईया में अँखुआये ना वीरानी
भर दीं हुलास अनघा चित्र बनि के आई।”
(आस-अँजोर)
गोरख जी के कविता के शिल्प पर अलगा से बतकही के कवनों जरूरत हम नइखीं समझत।गीतिकाव्य के आत्माभिव्यंजकता जवन एमें बा उहो अइसन नइखे कि कुछ गोपन या रहस्य रचत होखे।अलंकार के प्रयोग अयत्नज बा,काव्यभाषा में प्रसादकता बा बाकिर कहीं- कहीं लक्षणा आ व्यंजनो के चमत्कार देखते बनत बा।
आस आ अँजोर- कविता आ मनुष्य दूनू खातिर जतन से जोगवले आ जगवले रहे वाला जीवन-मंत्र ह,एगो अइसन जीवन-थाती ह जवन जिनिगी के कवनों सफर में कामयाबी के गारंटी बन जाला।
-डाॅ.सुनील कुमार पाठक
मो.7261890519

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