‘हो ना हो ‘ के कविता

जहाँ जीवन में चारू ओर अझुरहट आ तनावे होखे,मनई-मन में अकुलहट आ उबियाहटे भरल होखे ,उतावलापन, उबाल आ बेचैनिये समाइल होखे तब अइसनका समय में कविता में संघर्ष आ प्रतिरोध के स्वर स्वाभाविक बा।कविता मानव-मन के भावन के उच्छ्वास आ ओकरा माथा में उमड़त-घुमड़त सोच आ विचारने के कलात्मक अभिव्यक्ति होले।इहे कारन बा कि आज हर भाषा के कवितन में मौजूदा समय आ समाज के विसंगतियन, विद्रूपता आ चुनौतियन के बहुत मुखर वर्णन देखे के मिलत बा।लोकभाषा भोजपुरियो एकर अपवाद नइखे।देश,समय आ समाज के साथे डेग में डेग मिलावत चलेवाला भोजपुरी कवि अपना कवितन में आज के दौर के तबाही आ तल्खियन के पूरा गहिराई में जाके समझत-बूझत उकेरे के कोशिश कर रहल बाड़ें।
भोजपुरी गद्य आ पद्य-दूनू दुनिया में जमके भरपूर कलम चलावेवाला कनक किशोर जी के कविता संग्रह – ‘हो ना हो’-एगो अइसन सिरिजना बा जवना में समय आ समाज के सोझा ठाड़ हर तरह के चुनौतियन आ सवालन से मुठभेड़ देखे के मिलत बा। एह संग्रह के शीर्षक – ‘ हो ना हो ‘ आज मानव-मन में समाइल खौफ, आशंका, द्वन्द्व, अनिश्चय, गोपन ,अनास्था आ तमाम तरह के नकार आ निषेध के तs झलकावते बा बाकिर एह सबका बावजूद ओकरा समझदारी आ विवेक में कवनों कमी नजर नइखे आवत।ई शीर्षक ओह संभावनो का ओरि इसारा करत बा जवन मनुष्य में जीवन के प्रति एगो ललक आ भरोसा बनवले राखेला। ‘हो ना हो ‘ के मनोभाव अन्ततः बेहतरी आ नीमने का ओरि मनुष्य के प्रेरित करत रहेला ।ई मनोभाव जहिया ले मनुष्यता के साथ निभावत रही ओकर जय-यात्रा जारी रही। एह संग्रह के शीर्षक- कवितो ‘हो ना -हो’ के आशंका से शुरु तs होत बिया –
” हो ना हो /विकास लूट के मसाला बा ” बाकिर ओकर समझदारी साफ बा- “जंगल,जमीन लुटल/लुटल पहाड़ आज/फौज बेरोजगारन के /सगरी बा खाड़ आज/ना हाथे काम ना पेट में निवाला बा/त का बा?जुमला बा ,वादा बा/कागजी गारंटी बा/मन्दिर बा,मस्जिद बा/धर्म के बाजार बा/जाति के बोलबाला/बाहुबली के चलती बा/संत के सत्ता में खूब घुसपैठी बा।”
एगो दौर रहे जब भोजपुरी कविता में प्रेम,श्रृंगार, प्रकृति आदि से जुड़ल रचनने के भरमार रहत रहे बाकिर तबो भोजपुरी कविता सामाजिक गैरबराबरी ,अन्याय, शोषण, धर्मान्धता ,अलोकतांत्रिक आचरण आदि के प्रबल प्रतिकार के दिसाईं कवनों लापरवाही के शिकार ना रहे।आज तs भोजपुरी कविता के मूल स्वरे प्रतिरोध आ प्रतिकार के हो गइल बा।आज गीत-गजल भा कविता के हर तरे के काव्य-रूप में भोजपुरी काव्य के सामाजिक -आर्थिक चिन्तन, सोच-विचार के तौर-तरीका आ अभिव्यक्ति-शैली के प्रखरता गौर करे लायेक हो गइल बा।
कवि कनक किशोर स्वतंत्र सोच आ चिन्तन के ओह परम्परा से पूरा तरे वाकिफ बाड़न जवन कवनों रचनाकार के सच्चाइयन से कतराये के ना , बलुक जूझे के सिखावेले , सत्ता के तरवा सुहरावे के ना बलुक ओकरा लुभावन -ललचावन हरकतन के भरम आ मायाजाल समुझत-बूझत , ओकरा के तार-तार करे खातिर उदबेग देले।कवि कनक जी हर तरह के गिरावट के बावजूदो कविता के भीतरी ताकत के बूझे वाला सर्जक बाड़न।उनका पता बा कि “कविता संभवतः आज के समय के ऊ आखिरी आवाज बिया जवना के बाजार आ हिंसा अभी ले मलिन आ गुमराह नइखे कर सकल।”(राजेश जोशी)
अइसे त सगरी भोजपुरिहा मन-मिजाजे निधड़क होके बोले-बतिआवे वाला होला बाकिर कनक जी अपना कवितन में एगो पुरहर ढीठ आ मजबूत इरादा वाला कवि के रूप में नजर आवत बाड़न।कविता में ढिठाई कवनों बेजाँय बात ना होला बशर्ते कि ऊ सतर्क आ तथ्यपरक होखे आ ओकर सगरी निष्ठा आ प्रतिबद्धता आम जन के प्रति सच्चाई से जुड़ल होखे।कनक जी एह बात के साफ तरे समुझत बाड़ें तबे तs लिखत बाड़ें-
“कंकड़ ,पत्थर,सीप,मोती/सभ समेटले बानीं हम/साॅच के आंकी /आपन चसमे से नाहीं/जन के आँखिन से /विवेचना के धार से/रचना के सटीकता के समझि/लोक के सामने रख दीं।”(परख)
दरअसल कवनों चीज के जन के आँखिन से देखला पर उरेब भा गलती के संभावना कम रहेला।कवनों खास चसमा चढ़ाके देखला पर दृष्टि में वस्तुपरकता आ निष्पक्षता के अभाव झलके लागेला।
कनक जी के कविता जनधर्मी कविता बिया।आम जन के तकलीफ आ तबाही के नंगा आँखिन से देखि के ऊ उकेरले बाड़ें-बिना कवनों लाग-लपेट के।इहे कारण बा कि उनका कविता में बिम्बन आ प्रतीकन के प्रयोग ले जादे साफगोई में भरोसा दिखावल गइल बा।कहीं-कहीं कविता ‘स्टेटमेंट ‘ भा सूक्ति के रूप ले लेले बिया जरूर, बाकिर एजवो ओकरा मारकता आ बेधकता में कवनों कमी नइखे आइल। कनक जी आज के सत्ता आ व्यवस्था से पूरा तरे उदास आ खिन्न बाड़ें ,खिन्ने नइखन बलुक उनकर भरोसा डगमगा उठल बा।भरोसा आ विश्वास के टूट आदिमी में आक्रोश के जन्म देला।कनक जी के आक्रोश आ छोभ जादेतर जगह पर व्यंग्य के सकल-सूरत अख्तियार कर लेले बा।उनका एह व्यंग्य में खूब नुकीलापन बा ,चुभन बा।ऊ कविधर्म के समुझे-बूझे वाला रचनाकार बाड़ें-
“कवि कविता करेला /गुनगान ना/एही से कवि का घरे /सिक्का के खनक ना /अईंठात आंत से उठत /धुऑ दिखाई पड़ेला ।” (भूख आ कविता)
कविता के काम नारेबाजी ना हs ,ना फतबाबाजी हs। बाकिर व्यवस्था के दुरभिसंधियन के खिलाफ व्यक्ति-चेतना के मुखर प्रतिकार खातिर प्रेरित कइल ओकरा दायित्व में आवेला।कवि कनक किशोर अपना रचनाधर्मिता के सामाजिक सरोकार के हर तरह के विषयन से जोड़े के सार्थक प्रयास कइले बाड़ें। उनका कविता के कैनवास में नारी- विमर्श, दलित – विमर्श, बाजारवाद आ अपसंस्कृति के पइसार के चलते भारतीय सांस्कृतिक मूल्यन के क्षरण आदि हर तरह के बातन के समावेश बा।
कवि कनक के नारी -विमर्श के कवितन में पुरुष वर्ग से अपना अहंकार से उबरे के कामना बा तs दोसरा तरफ एजवा स्त्री-जागरण के स्वरो सजोर बा।उनकर एगो कविता ‘हमार हिस्सा ‘ के पंक्तियन के देखल जा सकत बा-
“समय कह रहल बा हमरो से /आपन पहचान लs/आपन आकाश लs/अपना हिस्सा के धूप लs/अपनो जिनिगी के ऊष्मा दs।” ‘मर्द के अंकगणित ‘, ‘काठ के कबूतर’, ‘नारी’ आदि कवितन में नारी -विमर्श के बातन के विस्तार मिलल बा।कवि नारी- विमर्श के बातन के बीच -बीच में पुरुष वर्गो के पक्ष बहुत संवेदना के साथ राखत स्वस्थ समाज के सिरिजना खातिर दूनू के बीच सहयोग आ समन्वय के एगो सुखद-सुभग कल्पना करत दिखत बा –
“स्त्री- स्वतंत्रता के लड़ाई /मिल के लड़ल जाई /विश्वास रखs/ई काठ के कबूतरो/तोहार स्वतंत्रता के चिट्ठी/घरे-घरे पहुँचाई। “(काठ के कबूतर)
-एजवा सवाल ई बा कि कवनों लड़ाई साथ मिलिके
कइसे लड़ल जा सकत बा, जब लड़ाइये एक दोसरा के खिलाफ होखे ? साॅच पूछल जाव तs एजवा मूल जरूरत एक दूसरा के संवेदना से खिलवाड़ ना करि के एक दूसरा के भावना के पूरा कदर करे से जुड़ल बा।
कवि जानत बा कि पर्यावरण- असंतुलन के समस्या आज लगातार विकराल भइल जा रहल बा ।कवि के पर्यावरण-चिन्तन में एह संकट के अनदेखी पर भयंकर तबाही झेले खातिर तैयार रहे के आगाही बा।कवि के कहनाम बा –
” वन के हरियरी / आँखिन के सुकून देत रहे /आजु ओहिजे खाड़/ मदानी के चिमनी उगल रहल बा आगि/चिंगारी भरल धुऑ /उड़त छाई से/माटी के बुनावट/बदल गइल /वसंत के राग-रंग /परा गइल/कबो सुकून देत रहे/हमार सुन्नर वन /लुटा गइल। “(माटी के बुनावट)
जल-जमीन-जंगल के ई चिन्ता एह संग्रह के आउरो कइगो कवितन में बा।”प्रश्न पूछल ,अस्वीकार
कइल,अपना हिस्सा के धूप ,हवा अन्न आ पानी पर आपन अधिकार जतावल, शोषण के खिलाफ संघर्ष खातिर खड़ा भइल -ई सब स्त्री,दलित, आ आदिवासी रचनाशीलता के प्रतिमान हs। इहे कसौटी हई सनि -जवना से एह कवितन के गुणवत्ता तय होले।”(कविता का घनत्व-जितेन्द्र श्रीवास्तव,पृष्ठ-286)।कवि कनक किशोर के समकालीन बोध के कविता एह सगरी प्रतिमानन पर खरा उतरा बाड़ी सं।
कनक जी वन विभाग के एगो उच्चाधिकारी रहल बाड़ें ।आदिवासी समाज के लुटत जिनिगी ,आर्थिक तंगी आ विस्मयकारी जीवट -सभके बड़ा करीब से देखले बाड़ें,एह से उनका रचनन में यथार्थ बहुत बारीकी से चित्रित भइल बा।एगो उदाहरण देखे लायेक बा –
“जंगल से गुजरत ट्रेन से /दिखाई पड़ल /मेहरारुन के झुंड / जे कहीं /माथे लकड़ी बोझा लेले रहे/त कहीं /खादान से चोरी-छिपे इकट्ठा कइल कोइला /ऊ लकड़ी आ कोइला/ओकनी खातिर जलावन ना रहे /ऊ रहे भात आ रोटी।” (विकास के सच्चाई)
कवि पूंजीवाद के प्रकोप आ काॅरपोरेटी दुनिया के चक्रव्यूह में जनतंत्र के चरमराहट के भाॅपत लिखत बा –
“काॅरपोरेट के चक्रव्यूह/पूँजीवाद के नीति में फॅसल/जनतंत्र के आपन अब अस्तित्व कहाँ बा? /जनतंत्र खोखला ,रीढ़विहीन /चरमरा रहल बा /खड़ा बा तs /पूँजीवाद के अलम पर।”( पूँजीवाद के अलम) कवि चाकचिक वाली दुनिया में बनावटीपन के लगातार बढ़त जा रहल मरजाद से चिंतित तs बा बाकिर ओकर व्यंग्य के धार एजवा देखते बनत बा –
“विदेशी चासनी में डूबल साहित्य/दमदम दमकत बा /खूब चमकत बा/जमाना कहत बा -जे चमकी /ऊ महकी भा ना महकी /आजु ओकरे बा गहक।”
कवि डफोरी सत्ता के चाल,चरित्र आ चेहरा सबके तार-तार कर देत बा-
“बाकिर ऊ ना मानी /हवाबाज हs /खुदो उड़ी आ देशो के उड़ाई/ बढ़िया- बढ़िया जुमला सुनाई/करजा लेके विकास-एक्सप्रेस चलाई।”(करजा)
कवि सत्ता के एह बिगाड़ के कारण दिल्ली के बिगड़ल हवो के कम नइखे मानत।ऊ कहत बा कि सत्ता केहू के रहो बाकिर दिल्ली के कुर्सी ओके बिगाड़े से बाज ना आवे-
“काहे कि सत्ता केकरो होखे /सत्ताधारी केहू होखो/दिल्ली के कुर्सी बिगाड़ देला सभके।” (बिगड़ल हवा)
मँहगाई के कनक जी “कमजोर के लुगाई आ गाँव भर के भौजाई ” ना मान के सभके झॅखावत चले वाली डाइन मनले बाड़ें।ई डाइन सभकर जिनिगी तबाह कइले जा रहल बिया।परिणाम बा कि कनक जी जिनिगी के बारे में ई कहे खातिर मजबूर बाड़ें –
“जिनिगी /स्ट्राबेरी के खेत ना हs/ बबूर ,बइर के जंगल हs।”
एह संग्रह में गोरख पांडेय जी के मशहूर जनगीत “समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई !” के तर्ज पर एगो गीत शामिल बा-
“बाजारवाद बबुआ सबकुछ उड़ाई
अबहीं खेलावत बा अंगुरी पकड़ाई
गॅवे-गॅवे देखत चलs सबके चबाई
मनई का संगे-साथे देश के मुआई
साधो!बाजारवाद ना हs मलाई। “
एगो कविता में किसान आ कवि के पीड़ा आ चरित्र के एक लेखाॅ बतावत कवि लिखत बा-
” किसान आ कवि /कवनों देवता ,डीहवार के ना गोहरावेले /कवनों ज्योतिषी के दरवाजा ना खटखटावेले /बाकिर भूख आ दुख आज ले ना भागल/चनरमा पांड़े साफ कहलें कि- दूनू आदिमी के जिनिगी में ई ना ओराई/साॅच मानीं अब ई जिनगिये जोरे जाई।”(किसान आ कवि)
समकालीन कविता के साथ कदमताल करतो कवि के ई एहसास बा कि लोकभाषा के प्रकृति प्रगीत आ लय का ओरिये आपन राह सहज रूप से गह पावेले आ ओही में ओकर मन-मिजाज रमेला।एगो गजलनुमा रचना में कवि के व्यंग्यात्मकता अपना चरम पर बा-
“लूट के ले आइब, कहँवा छुपाइब
चोरों के गुनगान, कबले गाइब ।
× × × ×
बानी संत के बा, करनी बा चोरी
धर्म के नाम लूट, कबले चलाइब ।
× × × ×
अबहूॅ सुधर जाईं ,समय बा बदलल
कहते किशोर हम ,जन के जगाइब।”
-जन के जगावहूँ वाला ई काम चलत केतना जमाना बीत गइल, पता ना ई जगावलो अब रस्मी आ फैसनिहा तौर पर हो रहल बा आ कि एकर असर ओह जन आ समाज के सेहतो पर कहियो पड़ी?जन बेचारा तs जाति आ धर्म के जटा-बरउवल में पिसात -गरात कहवाँ से कहवाँ ले पहुँच गइल बा ! बुझात बा ,जइसे ओकरा पीड़ा के कवनों अंते नइखे! बाकिर एजवे कवि के व्यापक काव्य-चेतना के झलको देखे के मिलत बा जब ऊ आशा आ भरोसा के डोर थम्हले नजर आवत बा-
“उम्मीदे जिनिगी हs/प्रतिरोध के तेवर /तोहरा भीतर जिन्दा बा।”(काहे नइखे लउकत)
कवि कनक किशोर प्रतिरोध के तेवर मौनो में परख लेत बाड़ें,ऊ चुप्पियो के चीख सुन लेत बाड़ें। ऊ कहत बाड़ें-
1-“मौन बिनु किछु कहले/बहुत कुछ कह जाला / ×××जहाँ शब्द मौन हो जाला /मौन मुखर हो। जाला।” (अपना के पावे के)
2- “कई बेर / अइसन होला /हमरा मौन के अर्थ/ बोललको से भारी हो जाला।” (मन-1)
कनक किशोर जी के एह संग्रह के कवितन के पढ़ला के बाद ई बात साफ हो जात बा कि उनकरा में समकालीन भोजपुरी कविता के अन्तर्वस्तु आ संवेदना के भरपूर समझ बा आ ओकरा अभिव्यक्ति के सहज स्वाभाविक शैली आ शिल्पो ऊ हासिल कर लेले बाड़ें।कहीं-कहीं जवन कुछ कचास बा, ऊ धीरे-धीरे आगामी रचनन में काव्यात्मक प्रौढ़ि हासिल कर ली। भोजपुरी लोक आ समाज के हर तरे के वाजिब चिन्ता उनकरा कवितन के कथ्य में शामिल बा, अभिव्यक्ति में अझुरहट नइखे,भोजपुरी मुहावरा आ कहाउतन के भरपूर प्रयोग बा आ साफगोइयो में कवनों कमी नइखे। हमरा पूरा भरोसा बा कि कवि जल्दिये ऊ अन्तश्चेतना विकसित कर ली जवन कवनों कवि के आवाज के एगो मुकम्मल आ जरूरी आवाज बना देले आ ऊ एगो कामयाब कवि बन जाला ।
आधुनिकता-बोध से भरल समकालीन भोजपुरी कविता के सुदीर्घ परम्परा में कवि कनक किशोर एगो अइसन हस्ताक्षर बाड़न जिनका कवितन के जनपक्षधरता ,कथ्य के स्पष्टता,विचारन के प्रखरता,संवेदना के सच्चाई आ रचनात्मक ईमानदारी बराबर रेखांकित कइल जाई। ‘हो ना हो ‘ के कवि के बेरि-बेरि साधुवाद।
डाॅ. सुनील कुमार पाठक
फ्लैट नं.-303,परमानन्द पैलेस
सर गणेशदत्त कालेज के समीप
आर.पी.एस.मोड़,दानापुर कैन्ट
जिला-पटना। (बिहार)
पिनकोड-801503
मोबाइल-7261890519/9431283596.

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