नेता काका

नेता काका के असली नाव हमरो पता नइखे पर गाँव-जवार,हित-नात सब केहू उनके नेते-नेते कइले रही….हँ कुछ लोग उनके दरबरियो कहेला। दरअसल एक बेर के बाति ह की चुनाव में नेता काका राजमंगल पाणे के परचार करत रहने। ओ ही बीचे उ एक बेर कवनो अउर नेता के परचार में देखि लेहल गइने। अब ए में नेता काका के कवन दोस बा, उ केहू के मनो त ना क सकेने। अब जब राजमंगल पाणे के इ बाति मालूम चलल त उ नेता काका के बोलववे अउर कहने की ए दरबारी असली नेता तूँ ही…

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तनी बरिस$ ना

तनी बरिस$ ना बदरा कचरि के. गरमी डललसि बेमार, हो के बहुते लाचार, करीं तहसे गोहार हम लचरि के. तनी बरिस$ ना बदरा कचरि के. अउसत बा, रात – दिन छूटे पसेना सूखे ना, केतनो हँउकला से बेना धरती भइली अंगार, जरे अंगना दुआर, जान मारत हमार बा जकड़ि के. तनी बरिस$ ना बदरा कचरि के. तनिको सहाता ना तन पर के सारी दहि जाला बिंदिया का रूपवा सँवारीं क द$ अइसन बौछार, भरि जा नदिया ईनार, लोगवा जा ओह पार सब पँवड़ि के. तनी बरिस$ ना बदरा कचरि के.…

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बुधिया

गाड़ी टेसन से अबही छूटल ना रहेल सवारी अपने मे अरूझायल हउए । केहू सूटकेस मे चेन लगावत ह,त केहू आपन बेग के सही करत ह,त केहू आपन सीट न. खोजत बा।तबही धच – घचक करत गाड़ी आगे बढै़ लगल । तब ले वहीं मे से केहू क अवाज सुनाईल ,इंजन लग गयील अब गाड़ी थोड़कीय बेर मे चली।चाय ले ला…..चाय।कुरकुरे दस रूपिया….दस। कहत चायवाला डिब्बा में घुसल। अबही गाड़ी अपने पुरे रफ्तार में आवै, बुधिया खिड़की के पास बैइठ गइल।बहरे पलेटफारम छोड़त आगे बढ़त गाड़ी क चाल समझै लगल…

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पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले

पहिले-पहिल जब वोट मांगे अइले तोहके खेतवा दिअइबो ओमें फसली उगइबो । बजडा के रोटिया देई-देई नुनवा सोचलीं कि अब त बदली कनुनवा । अब जमीनदरवा के पनही न सहबो, अब ना अकारथ बहे पाई खूनवा ।   दुसरे चुनउवा में जब उपरैलें त बोले लगले ना तोहके कुँइयाँ खोनइबो सब पियसिया मेटैबो ईहवा से उड़ी- उड़ी ऊंहा जब गैलें सोंचलीं ईहवा के बतिया भुलैले हमनी के धीरे से जो मनवा परैलीं जोर से कनुनिया-कनुनिया चिलैंले ।   तीसरे चुनउवा में चेहरा देखवलें त बोले लगले ना तोहके महल उठैबो…

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समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई   हाथी से आई, घोड़ा से आई अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद…   नोटवा से आई, बोटवा से आई बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद…   गाँधी से आई, आँधी से आई टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद…   काँगरेस से आई, जनता से आई झंडा से बदली हो आई, समाजवाद…   डालर से आई, रूबल से आई देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद…   वादा से आई, लबादा से आई जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद…   लाठी से आई, गोली से आई लेकिन अंहिसा कहाई,…

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ई आठवीं अनुसूची नहिंए रहे त का हरज !

( अपने अद्भुत-सरस काव्य-पाठ से दर्शकन के लोभे -मोहे में प्रकाश उदय जी जेतना निपुण हउवन, ओतने गुणी, ओतने समृद्ध अपने लेखनी से भी हउवन।आशा ह कि,अजब ओज,अलहदा वाचन-लेखन शैली, बेहद विनम्र बाकिर तनिक संकोची-लजाधुर सुभाव वाले, भोजपुरी साहित्य क सर्वप्रिय -प्रतिष्ठित साहित्यकार प्रकाश उदय जी से  ‘भोजपुरी साहित्य-सरिता’ क सह-संपादिका सुमन सिंह क ई बातचीत उनके व्यक्तित्व -कृतित्व क कई पहलू उजागर करी अउर साथ ही साथ हिंदी क दशा-दुर्दशा, भोजपुरी क संवैधानिक दर्जा अउर आंदोलन क विफलता से सम्बंधित उनके खोभ-क्षोभ के भी आप लोगन के सोझा रखी…

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गजल

कम में गुजर-बसर रखिहऽ! घर के अपना, घर रखिहऽ! मुश्किल-दिन जब भी आवे दिल पर तूँ पाथर रखिहऽ. जब नफरत उफने सोझा तूँ ढाई आखर रखिहऽ. आपन बनि के जे आवे सब पर खास नजर रखिहऽ. दर्द न छलके ओठन पर हियरा के भीतर रखिहऽ. एह करिखाइल नगरी में दामन तूँ ऊजर रखिहऽ. डॉ अशोक द्विवेदी

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रोज-रोज काका टहल ओरियइहें

भीरि पड़ी केतनो, न कबों सिहरइहें.. रोज-रोज काका टहल ओरियइहें! भोरहीं से संझा ले, हाड़ गली बहरी जरसी छेदहिया लड़ेले सितलहरी लागे जमराजो से, तनिक ना डेरइहें! रोज-रोज काका टहल ओरियइहें! गोरखुल गोड़वा क,रोज-रोज टभकी दुख से दुखाइ सुख, एने-ओने भटकी निनियों में अकर-बकर, रात भर बरइहें! रोज-रोज काका, टहल ओरियइहे! फूल-फर देख के, उतान होई छतिया छिन भर चमकी सुफल मेहनतिया फेरु सुख-सपना शहर चलि जइहें! रोज-रोज काका टहल ओरियइहें! छोटकी लउकिया, बथान चढ़ि बिहँसे बिटिया सयान, मन माई के निहँसे गउरा शिव कहिया ले भीरि निबुकइहें! रोज-रोज काका,…

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मांगलिक गीतन में प्रकृति-वर्णन

लोक-जीवन में आदमी के सगरो क्रिया-कलाप धार्मिकता से जुड़ल मिलेला। आदमी एह के कारन कुछू बुझेऽ। चाहे अपना पुरखा-पुरनिया के अशिक्षा आ चाहे आदमी के साथे प्रकृति के चमत्कारपूर्ण व्यवहार। भारतीय दर्शन के मानल जाव तऽ आदमी के जीवन में सोलह संस्कारन के बादो अनगिनत व्रत-त्योहार रोजो मनावल जाला। लोक-जीवन के ईऽ सगरो अनुष्ठान, संस्कार, व्रत, पूजा-पाठ, मंगल कामना से प्रेरित होला। ई सगरो मांगलिक काज अपना चुम्बकीय आकर्षण से नीरसो मन के अपना ओर खींच लेला। एह अवसर पर औरत लोग अपना कोकिल सुर-लहरी से अंतर मन के उछाह…

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हर रंग में रंगाइल : ‘फगुआ के पहरा’

एगो किताब के भूमिका में रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव ऊर्फ जुगानी भाई लिखले बाड़े कि ‘भाषा आ भोजन के सवाल एक-दोसरा से हमेशा जुड़ल रहेला। जवने जगही क भाषा गरीब हो जाले, अपनहीं लोग के आँखि में हीन हो जाले, ओह क लोग हीन आ गरीब हो जालंऽ।’ ओही के झरोखा से देखत आज बड़ा सीना चकराऽ के कहल जा सकत बा कि भोजपुरी समृद्ध बा, भोजपुरिया मनई समृद्ध बा। हमरा ई बात कहला के बहाना श्रेष्ठ शिक्षक, सुलझल मनई आ सरस मन के मालिक कवि-साहित्यकार डाॅ. रामरक्षा मिश्र विमल जी के किताब ‘फगुआ के पहरा’ बा। एह किताब के…

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