पहिले रSहे सरल आ सहज आदमी आज नफरत से बाटे भराल आदमी ॥ गीत जिनगी के गावत – सुनावत रहे अब तs जिनगी के पीछे पर्ल आदमी ॥ आदमी जे रहित तs करित कुछ सही आदमी के जगह बा मरल आदमी ॥ अपना वइभव के तिल भर खुसी ना भइल देख अनकर खुसी के जरल आदमी ॥ राण – बेवा भइल अब त इंसानियत माँग मे पाप कोइला दरल आदमी ॥ कब ले ढोइत वजन नीति के ज्ञान के फायदा जेने देखलस ढरल आदमी ॥…
Read MoreDay: February 8, 2022
मशीनीकरण बेरोजगारी
मंगला के मेहरी दुआरा पर बैठकर के गोबर के गोईठा बनावत रहे, तब ले गाँव के रिस्ता मे बुआ लगीहन उ ओकरा दुआरा पहुँचली। आउर मंगला के मेहरी के उदास चेहरा देख के बोलली। “रे पतोहीया काहे मुहँ लटका के बईठल बारिश रे। ई अवाज गाँव के एगो बुआ के रहे”। पहीले त पतोहीया उल्टा जबाब देवे के मुंड मे रहे लेकिन थोड़ा-सा बुढ़ बुजुर्ग के लेहाजे चुप-चाप बैठ के रह गईल। फिर भी बुआ ओकर मुहँ मे अंगुली कईल ना बन्द कईली। “दुर-हो, बोल देवे त खिया जईबे का”…
Read Moreबउरहिया
” ए अम्मा जी उर्दी छुआए जात ह गांई जा लोग।” लइका क माई अम्मा लोगन के होस धरवलीं कि उ लोग काहें खातिर बोलावल गईल हईं जा।अम्मा लोग कढ़वलीं – ‘ जौं मैं जनतीं गनेस बाबा अइहन, लीपि डरतीं अंगना दुआर चनन छिड़कतीं ओही देव घरवा चनन क सुन्नर सुबास जौं मैं जनतीं सीतला मइया अइहन लीपि डरतीं अँगना दुआर।’ गीत कढ़ावे वाली बड़की आजी ढ़ेर बूढ़ा गइल रहलीं।चारे-पाँच लाइन गावे में हफरी छोड़े लगलीं।एक जानी क सांस फूले लागल अउर दम्मा के मरीज नियन खांसे लगलीं। “अरे काहें…
Read Moreनीति
तिन्हकर घर सुख चैन रहे जहँ धी सुधिया, तिअई सुमुखी। भृत्य भरोसी, इच्छित वित्त, धनी अपनी सबरंग सखी। अतिथि सेव, देव पूजन नित, मधुर अन्न-रस की जिवनारी, बितत नित्य साध के संगति जीवन धन्य उहे घरुआरी। जवनि हाथ दान नहिं जाने स्रवन सहे नहिं सुक्ति उदेसा। दरस साध आँखि अनजानल, पैर भ्रमे ना तीरिथ देसा। धन अकूत अरजे अनरीत, भरल पेट सिर तुंग गुमाना रे नर लोमड़ सहसा त्याग नीच देह अघ के पैमाना। करइल गाछ न लागे पात दोखी का मधुमास रामजी! दिन चढ़ते उरुआ चुँधियाय का सूरज उपहास…
Read Moreबुढ़िया माई
१९७९ – १९८० के साल रहल होई , जब बुढ़िया माई आपन भरल पुरल परिवार छोड़ के सरग सिधार गइनी । एगो लमहर इयादन के फेहरिस्त अपने पीछे छोड़ गइनी , जवना के अगर केहु कबों पलटे लागी त ओही मे भुला जाई । साचों मे बुढ़िया माई सनेह, तियाग आउर सतीत्व के अइसन मूरत रहनी , जेकर लेखा ओघरी गाँव जवार मे केहु दोसर ना रहुए । जात धरम से परे उ दया के साक्षात देवी रहनी । सबका खाति उनका मन मे सनेह रहे , आउर छोट बच्चन…
Read Moreगजल
बचपन के हमरा याद के दरपन कहाँ गइल माई रे, अपना घर के ऊ आँगन कहाँ गइल खुशबू भरल सनेह के उपवन कहाँ गइल भउजी हो, तहरा गाँव के मधुवन कहाँ गइल खुलके मिले-जुले के लकम अब त ना रहल विश्वास, नेह, प्रेम-भरल मन कहाँ गइल हर बात पर जे रोज कहे दोस्त हम हईं हमके डुबाके आज ऊ आपन कहाँ गइल बरिसत रहे जे आँख से हमरा बदे कबो आखिर ऊ इन्तजार के सावन कहाँ गइल मनोज भावुक
Read Moreएगो त्रिवेणी ईहवों बा
मन में घुमे के उछाह, सुन्दरता के आकर्षण आ दू देशन के राजनैतिक सीमा के बतरस के त्रिवेणी में बहत ही हम त्रिवेणी जात रहनी। हमनी के छह संघतिया रहनी जा आ एगो जीप के ड्राईवर। हमरा के छोड़ के सभे एह प्रान्त से परिचित रहे। हमरा बेचैनी के एगो इहो कारन रहे की आजू ले हम त्रिवेणी स्थान के नाम इलाहबाद के संगम खातिर सुनले रहनी। ई त्रिवेणी कवन ह? उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जिला मुख्यालय से लगभग नब्बे किलोमीटर उत्तर-पछिम के कोन में बा ई त्रिवेणी। पाहिले त गंडक…
Read Moreभोर के गद
मूठरी घाम गुलेट खोंस गइल ह जंगला के फाँक में अखबारी टेल्हा सूरुज कुछ अगिते। एगो चिड़ा ओरी त झूलत नसेनी प पसार रहल बा प्रेम। अनमुन्हे के फींचल गँड़तर हरकऽता। पाँख छितनार मूरुख चिड़ी खोज रहली ह गूलर के फूल। फिजूल। सकल कपट अघखानि सकल पँड़या सरबजनिक नल प बलटियन पानी छछरावत गावऽता बेहया अस- “रधिका औगुन चित न धरऽ।” “ढकरचाँय-ढकरचाँय, कील खिआ गइल साइद, तेल डाल, खोंट बा का काने? कवन एकटंगे ठाड़ बिया होने घूघ तान, बहरे से आके? उजबक अस। गड़ही का पानी सूख गइल का?…
Read Moreभोजपुरी रचनात्मक आन्दोलन के माने-मतलब
केहू दिवंगत हो जाला त आमतौर पर कहल जाला कि भगवान उनुका आत्मा के शांति देसु। हमार एगो कवि-मित्र कहेले कि बाकी लोग के त पता ना, बाकिर कवनो रचनाकार खातिर अइसन बात ना कहे के चाहीं। शान्त आत्मा से कवनो रचना त हो ना पाई आ ना हो पाई त बेचारा दुबारा मर जाई। कहे के अतने बा कि रचना अपना आपे में एगो उदबेग ह, आन्दोलन ह, कुछ उदबेगेला त ऊ आवेला आ आवेला त उदबेगेला। रचनात्मकता, चाहीं त कह लीं, कि आन्दोलित भइले-कइला के एगो आउर नाँव…
Read Moreसात पुहुत के उखड़ गइल खूँटा
सात पुहुत के उखड़ गइल खूँटा बेंचा गइलें स बैल दुआर कुछ दिन रहल उदास बाकिर सन्तोषो ई कम ना रहल कि अतना जोतइला के बादो निकल गइल दाम गहँकी अइलें स तय भइल दाम धरा देल गइल पगहा पगहा धरावत दाम धरत माथ पर गमछा धइल ना परल भोर रिटायर होत समय चाचा सोचलें आ सोचल आपन सगरो गवलें कि रहब गाँवे खेत-बधार घूमब रिटायर भइला के साले-दू साल बाद बँटा गइल घर चूल्हा-चउका फरिया गइल गुमसुम रहे लगलें चाचा एह गुमसुमी के लागल कतने माने-मतलब कबो अन्हारें कबो…
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