मति मारीं हमके

ओई दिन माई घर की पिछुवाड़े बइठि के मउसी से बार झरवावत रहे। तवलेकहिं बाबूजी आ गइने अउर माई से पूछने की का हो अबहिन तइयार ना भइलू का? केतना टाइम लगावतारू? माई कहलसि, “बस हो गइल, रउआँ चलिं हम आवतानी।” खैर हम समझि ना पवनी की कहाँ जाए के बाति होता। हम लगनी सोंचे की बिहाने-बिहाने बाबूजी माई के लिया के कहाँ जाए के तइयारी करताने। अरे इ का तवलेकहिं हमरा बुझाइल की मउसी त सुसुक-सुसुक के रोवतिया। हम तनि उदास हो गइनी काहें की हमरा लागल की मउसी…

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