(1) अकरुणत्वमकारणविग्रहः,परधने परयोषिति च स्पृहा। सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता, प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्।। – भर्तृहरि गसल निठुरता हद गहिरोर पोरे-पोर। पोंछ उठवले हरदम सगरी, सींघ लड़ावे के तत्पर। सकल उधामत चाहे करि लऽ जीति ना पइब कबो समर। अनकर माल-मवेसी, धनि पऽ निरलज आँखि उठावे, सुजन बंधु सन इरिखा पारे, दुरजन जान सुभावे। (2) दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङकृतोऽपि सन्। मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः।। – भर्तृहरि पढ़ल-लिखल भल सुकराचारी, ताने रहे। कतो बिछंछल मनियारा के कवन गहे? (3) जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं शूरे निर्घृनता मुनौ विमतिता दैन्यं…
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करियवा कोट
कचहरी में वोकील मिलेलन टरेन में टी टी चलेलन बरहों महीना कोट काहें पहिरेलन ? अगर नइखी जानत राज त जान जाईं आज। कोट पहिरला से खलित्तन के संख्या हो जाले जियादा राउर सुरक्षा अउर संरक्षा के पक्का वादा। जे केहु थाकल-हारल, मजबूरी के मारल धाकड़ भा बेचारा इनका भीरी आ जाला मुँह मांगल रकम थमा जाला समन्दर लेखा करियवा कोट में सभे कुछ … समा जाला। मूल रचना- काली कोट मूल रचनाकार- मोहन द्विवेदी भोजपुरी भावानुवाद- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
Read Moreत्याग
फागुन के रात बा । आम के बउर के गमक लेके नवबसंत के मीठ-मीठ हवा बहsता। तालाब के किनारे एगो पुरान लीची के गाछ के घन पतsइयन के बीच से रात-रात भर जागे वाला कवनों बेचैन पपीहा के तान मुखर्जी के घर के एगो निद्राहीन शयन कक्ष में प्रवेश कर रहल बा । हेमंत तनी चंचल भाव से कब्बो आपन मेहरारू के माथा में बांन्हल जूड़ा के केश खोल के आपन अंगूरी में लपेटsता, कब्बों ओकर कडा के चूड़ी में भिड़ा के टन-टन आवाज करsता, आ कब्बो ओकर जुड़ा में लपेटाइल माला…
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