बतकूचन

का कबो सुनले बा केहू जे कवनो जियतार देह, माने कवनो देही, आपन मन में सहेजल अनुभव के अनेरिये जियान होखे देले ? ना ! काहें जे, अइसना अनुभवे के बल आ बिस्तार प कवनो मनई आपन तर्क गढ़ेला। आपन बात के मर्म जता सकेला। आपन अर्जित अनुभवे के सान प केहू के विवेक प पानी चढ़ेला। कवनो मनई के विवेक के आगा फेरु ओकर आपन शिक्षा सहेजेले। शिक्षा माने ग्यान आ बिचार में गठन के तरीका। एही कारन, निकहा शिक्षित मनई के अपना अर्जित अनुभव आ ओह अनुभव के अधार प आपन बिचार आ तर्क प मन के सभ तरहा के भाव के संप्रेषित क सके में समर्थ मानल जाला। बाकिर, एगो अउरी बात, शिक्षा कबो सर्टिफिकेट-संग्रह के वाइस ना हो सके।

ई सभ बात कहे के हमरा लगे आपन कौ गो कारन बा। अइसन ’शिक्षित’ लोगन के समाज में कवनो कमी नइखे जे अपना शिक्षा के दायरा आपन बटोरल सर्टिफिकेटन के नमूना के तौर प देखा सकेला लोग। बाकिर विवेक आ तर्क के अधार प जवन उनका से अपेक्षित बा, ऊ लोग ऊ ना देखा सके। अनुभव, बात के मर्म, विवेक, तर्क सभ धइले रह जाला। एही से, अइसना पढ़ल-लिखल, जनकार कहात लोगन से गाँव-गिरान के ऊ मनई ढेर आदरजोग बा जवन आपन जियतार अनुभव से पगल बा। एह कारन अपना तर्क से सधल बा। अपना विवेक से चोख बा। एही से कवनो गाँव-परिवार खातिर अइसन मनई लोग एगो शान होला, एगो मान होला। कुछ बरिस पहिले ले अइसना अनुभवपगल लोगन से दुआर आ गाँव के के कहे, जवार के जवार भरल लउकत रहे। अइसना लोगन के गाँव के ढाला प, बगइचा में, चौपाल में, चाह के गुमटी प जमघट भइल करे। ओह लोगन के लाम-लाम चर्चा आ बतकही सङे बइठल लइकन, जवानन के सोच के गहीर होत भइला के कारन भइल करे। आ चर्चओ त का, कुछ मन के, त कुछ जन के, कुछ जिला के, कुछ जवार के, त गाँव के, परिवार के, देस के, बिदेस के, परदेस के सनेस के ! गउरा के, गनेस के, धनी के, धनेस के ! त, कबो गोड़े लागल ठेस के, त कबो उधियात-फहिरल केस के ! माने कवनो रोक ना, कवनो सीमा ना। कहँवाँ के डाढ़ि प कवना के खोंत, तनिके के दिठार प जाने कतना अलोत ! जाने कवन-कवन काथा, कइसन-कइसन गाथा ! खिस्सा बोलउअल, कहाउत कहउअल.. तनिके में चुटकऽही, तनिके में बुझउअल ! चुटकी में साटा, त चटके में घुमउअल !

बाकिर आजु अइसना लोगन से जवार खाली भइल लउक रहल बा। आजु अकसरहाँ बतकहियन में रस ना, अजुबे सहम बा। खबर में सफाई ना, बनावट बा, भरम बा। ना बड़न खातिर सरधा बा, ना लहानन खातिर दुलार बा। निर्मोही भइल आङन बा, त दुअरो उलार बा। कारन का बा ? ई कूल्हि का हो गइल ? अचके में भइल, आकि तवीले भइल ? बाकिर ई भ का गइल ? जाने ई कवना बुद्धी के जोर हऽ ? ई कहँवाँ से उठल सोर हऽ ? जदी ईहे ह पढ़ाई, त फेरु काहें के पढ़ाई ? उमिरियो जियान भइल, अनेरिये में जाई। कुछ बुझिहऽ हो भाई !

का रुचे आ का ना रुचे, ई बड़ गझिन बहस-चर्चा के बिसै हऽ। जवन रुचेला ओकर अनुभव आक्सरहाँ लोग अपना इन्द्री से महसूसेला। जवन कुछ करत, बोलत, देखत, सुनत, सहत रुचेला ओकर भोक्ता एगो देही होला। एही देही के जमात-जुटान से बसेला गाँव, उजियार होला जवार आ सजेला संसार। सभके आपन-आपन सोच होले, त ओही रङ ओकर संसार होला। सभे के संसार दोसरा के संसार से एका ना होखे। संसार आपन-आपन होला। सभ केहू के संसार, अपना अनुभव, अपना विवेक आ आपन तर्क से सजेला। कढ़ेला। आ बढ़ेला। हँ, बढ़ेला। छोटमन के संसार, बड़मन के संसार से बड़ ना होखे। त कवनो छोट के आस्ते-आस्ते उमिरन बड़ होत गइल ओकर संसार के बढ़ला के निसानी हऽ। त, हर मनई के संसार के आकार आ बिस्तार, फेर से ऊहे, ओकर अर्जित कइल अनुभव, ओकर बातन के मर्म, सवचला में विवेक आ बोलला में तर्क से जनाला। ईहे कारन बा, जे चटकल बतकही कवनो सचेत समाज के जियतार भइला के कसौटी हऽ। आ देखीं, त एही कसौटिया प जाने कवना-कवना कोना से चोट हो रहल बा। आङन, दुआर, ढाला, बगइचा, चौपाल, चाह के गुमटी के वजूद प चोट हो रहल बा। हो का रहल बा, बेतुके चोट हो चुकल बा। गाँव गाँव नइखे रहि गइल। जवार आ मउजा छितर रहल बाड़न सऽ। जन के जन से संपर्क नइखे रहि गइल। मन के मन से कतहीं हाल्दे एका नइखे बुझात। बिचार के उद्गार से जवार के बेवहार में सम्हार होखो त कइसे होखो ?

लोग कहि रहल बा, जे आजु दस-पनरह बरिस से सोशल-मीडिया लोगन के आधुनिक तकनीकी जीवन में निकहा एगो मंच मुहैया करा रहल बा। हमहूँ मान लिहनीं, ई साँच बा। बाकिर, मन के एका के, भा ना मनला प टेका के एजुगा संस्कार के दीही ? कइसे दीही ? आ तवना प मानी के ? एह सोशल-मीडिया प एह बात के लेके बड़हन जिम्मेवारी बा। ई जिम्मेवारी सस्ते में नइखे निबहे के। जवन कुछ हो रहल बा, भा जवन लउक रहल बा, ऊ बहुते भरोसा नइखे देत। तबहूँ आजुके आधुनिक आ तकनीकी जीवन के केहू नकार भा बिसार ना सके। हम कइसे बिसार सकेनीं ? त चलीं, हमहूँ ना नकारबि। ना बिसारबि। हम बनल बानीं, बनल रहबि। माने, एह पत्रिका के मंच से हम हर महीनवे रउआ सोझे आइबि। रउआ से बतियाइबि। आपन सवाचल उचारबि। उचरल्का पुकारबि। बुझाई त बढ़बि। आ ना.. त पूछबि। बिचारबि। खलसा राउर नेह चाहीं। राउर असीस चाहीं। सुनला के होस चाहीं। सुनवला के भरोस चाहीं। रउआ हमरा के सँकारीं, हम रउआ के सँकारबि। कवनो मुद्दा के सोर धरत ओकरा फुनगी ले नाहियों त का हऽ, निकहा कोंढ़ी-फूल, बीया-फल के चर्चा होखी। राउर धेयान रही, हमार पर्चा होखी।

जय-जय..

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सौरभ पाण्डेय

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