ग़ज़ल

भोर ले लोर अँखिया के खरचा भइल। रात भर मन ही मन उनके चरचा भइल। जेके रखनीं ए हियरा में आठों पहर, जाने कइसेदो मन ओकर मरिचा भइल। मन परीक्षा में हल खोजते रहि गइल, आँख उनकर सवालन के परचा भइल। कवनो पूरुब – पच्छिम के कमाई बा का, जे रहे हाथ पर खरचा – वरचा भइल। मन के मंदिर में शंकर ना अइले कबो, रात भर गाँव में शिव- चरचा भइल। हाय! ‘ संजय’ के बोलल त काले भइल, कहले नीमन बदे बाकिर मरिचा भइल।   संजय मिश्रा ‘संजय’

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ग़ज़ल

चान अब त जहर तकले,निगलि जाता मानि लीं। रोज सूरुज एक रत्ती,पिघलि जाता मानि लीं।। हमरा जिनिगी में केहू के प्यार, शायद ना रहे। हरेक पल सभके मुखौटा,बदलि जाता मानि लीं।। एह शहर के आदिमिन्हि के,चाल क‌इसन हो ग‌इल? बहिनि-बेटिन्हि के करेजा,दहलि जाता मानि लीं।। जहां हर रिश्ता के एगो,मोल- मरजादा रहे। नेह-नाता ऊ पुरनका,ढहल जाता मानि लीं।। जाति पर,कुछु धरम पर,सभ आपुसे में बंटल बा। राष्ट्र सर्वोपरि के भावे,मिटल जाता मानि लीं।। चाह दिल में रहे हरदम,हम जिहीं,हंसि के जिहीं। अब त मन,बस रोइये के,बहलि जाता मानि लीं।। रोज…

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ग़ज़ल

प्यार नइखे गर जिया में, जिंदगानी डाँड़ बा । रौब झाड़े चढ़ उतानी, तब जवानी डाँड़ बा ।। लाज अउरी शान बाटे, आदमी में आब ही, बे-हायाई में मिलावल, यार पानी डाँड़ बा ।। दाग इज्ज़त में बिया, जिनके तनिक उनके बदे, लाल पीला या गुलाबी, रंग धानी डाँड़ बा ।। बाप आ भाई क पगिया, बोर दे जे चाल से, घर अँटारी में पलल, बिटिया सयानी डाँड़ बा ।। बाँट अँगना घर दुआरी, दुश्मनी भाई करें, आज बड़की गोतिनी, या देवरानी डाँड़ बा ।। शोर जवना घर मचे ना,…

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गजल

जिनिगी के जख्म, पीर, जमाना के घात बा हमरा गजल में आज के दुनिया के बात बा   कउअन के काँव-काँव बगइचा में भर गइल कोइल के कूक ना कबो कतहीं सुनात बा   अर्थी के साथ बाज रहल धुन बिआह के अब एह अनेति पर केहू कहँवाँ सिहात बा   भूखे टटात आदमी का आँख के जबान केहू से आज कहँवाँ, ए यारे, पढ़ात बा   संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा मालूम ना, ई लोग का कइसे सहात बा   ‘भावुक’ ना बा हुनर कि लिखीं…

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ग़ज़ल

आ गइल बा प्रेम के दिन, दिल भइल कचनार अब, फेर जनि आपन नजरिया, नैन कर तू चार अब। खेत में सरसों फुलाइल, रंग हरदी के लगल, लाज से धरती लजाइल, हो गइल बा प्यार अब। प्रीत-चुनरी ओढ़ के जे, डूब गइली प्यार में, गीत मस्ती के पवनवा, देत बा उपहार अब। आम के मोजर सुगंधी, दे गइल चहुँ ओर में, कूक कोयल के सुनींजा, बाग में गुंजार अब। राग सगरो ‘गूँज’ गइले, नेह के अनुराग के, छा गइल देखीं गुलाबी, फाग के झंकार अब।   गीता चौबे गूँज राँची…

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गजल

जादू बा सरकार , रउरी ऑखिन में, डूबल बा संसार , रउरी ऑखिन में, निरमल ताले कमल फुलाइल लागता, लाल- लाल चटकार , रउरी ऑखिन में। अमिय, हलाहल, मदिरा के प्याली हउवे, जिअल, मुअल, मॅझधार , रउरी ऑखिन में। उषा के लाली कि बारल दुइ दियरा, जगमग जोति पथार , रउरी ऑखिन में। सूरज, चंदा जोति जुगावे रउरे से, अइसन बा उजियार , रउरी ऑखिन में। छुरी, कटारी, तोप, मिसाइल, एटम बम, गजबे बा हथियार , रउरी ऑखिन में। बहत रहेला ऑसू अक्सर सुख दु:ख में, काहे पानी खार ,…

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गजल

अपन लड़की सयान हो गइल , रात जागल बिहान हो गइल  ।   आज माई बेमार का भइल , सून घर कऽ दलान हो गइल ।   हमरे सीना  में लागल दरद, छुटकी लड़की हरान हो गइल ।   भाई -भाई में नाहीं पटल आध-आधा चुहान हो गइल ।   जब सहारा न कोई रहल, तब बुढा़ई जवान हो गइल ।   कान बेटा कऽ भरलस बहू , कुल कमाई जियान हो गइल ।   अपने चीनी कऽ सून के बखान गुड़ के छाती उतान हो गइल ।    …

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गजल

बात जब बेबात के तब बात का? कटल जड़ तऽ भला बांची पात का?   ऊ मोटाइल बा रहस्ये ई अभी, का पता ऊ रहे छिपके खात का?   छली कपटी जब होई दुश्मन होई, मीत ऊ कइसे होई? हित-नात का?   कथ्थ आ करनी में जेकरा भेद बा, ठीक केवन वंश के भा जात का?   झूठ के महिमा रही दुइये घरी, एह से बेसी हो सकी औकात का?   अशोक कुमार तिवारी

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गजल

ई बीमारी बड़का भारी। सनमुख डंणवत, पीछे गारी।।   काटे भीतर घात लगाके, राम राम ई कइसन यारी?   कवन भरोसा केन्ने काटी? जेहके भइल सुभाव दुधारी।   ढेला भर औकात न जेकर, ऊहो मुँह से लादे लारी।   छेड़के ओके नीक न कइलऽ, बहुत पड़ी तोहरा के भारी।   कबहूँ जे सोझा आ गइलऽ, सात पुश्त ले ऊहो तारी।   निकलल बाटे फन त काढ़ी? राखल बाटे लाठी – कारी।   अशोक कुमार तिवारी

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गजल

पहिले रSहे सरल आ सहज आदमी आज नफरत से बाटे भराल आदमी ॥   गीत जिनगी के गावत – सुनावत रहे अब तs जिनगी के पीछे पर्ल आदमी ॥   आदमी जे रहित तs करित कुछ सही आदमी के जगह बा मरल आदमी  ॥   अपना वइभव के तिल भर खुसी ना भइल देख अनकर खुसी के जरल आदमी ॥   राण – बेवा भइल अब त इंसानियत माँग मे पाप कोइला दरल आदमी ॥   कब ले ढोइत वजन नीति के ज्ञान के फायदा जेने देखलस ढरल आदमी ॥…

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