विध्वंस आ सिरजन एह सृष्टि रूपी सिक्का के दू गो पहलू लेखा बा। एक के दोसरा अलगा राख़ के देखल मोसकिल ह। मने अलगा-अलगा राखल भा देखल संभव नइखे। अब जवन कुछ संभवे नइखे,ओह पर कवनो बतकही बेमानी बा। बाक़िर एह घरी त पत्थर पर दूब्बा उगावे के पुरजोर परयास हो रहल बा। परयास देखउकी भर के बा भा साँचों ओकर छाया जमीन पर उतर रहल बा, ई त समय के ऊपर छोडल जा सकेला। एह छोड़लको पर लोगन के नजरिया अलग-अलग हो सकेले,बाक़िर दोसर कवनो रासतो त नइखे। दुनिया…
Read MoreTag: जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
अउवल दरजे वाली बकलोली
का जमाना आ गयो भाया,इहवाँ त बेगार नीति आ बाउर नियत वाला लो सबहरे ‘अँधेर नगरी’ का ओर धकियावे खातिर बेकल बुझात बा। का घरे का दुअरे , का गाँवे का बहरे सभे कुछ ‘टका सेर’ बेंचे आ कीने क हाँक लगावे में प्रान-पन से जुट गइल बा। अइसन लोगन का पाछे गवें-गवें ढेर लोग घुरिया रहल बा। अपना सोवारथ का चलते ओह लोगन के सुर में आपन सुरो मिला रहल बा। मने ‘मिले सुर मेरा- तुम्हारा’ क धुन खूब बज रहल बा। अउर त अउर धुन उहो लो टेर…
Read Moreमंगरुआ के मौसी
मंगरुआ के मौसी मुँहझौसी ! कतों मुँह खोल गइल। ढेरे कुछ नु बोल गइल। नाड़ा के बाति भाड़ा के बाति उजरकी कोठी आ कलफ लागल कुरता दूनों के तोल गइल। ढेरे कुछ नु बोल गइल। कहाँ, के खोलल टटोलल ! कहाँ कतना मोल भइल। ढेरे कुछ नु बोल गइल। आजु मेजबान फेरु बेजुबान घर घर घरनी के अदला-बदली तक टटोल गइल। ढेरे कुछ नु बोल गइल। कंकरीट के जंगल में लहलहात कैक्टस लेवरन अस साटल मुसुकी से परम्परा के सुनुगत बोरसी तक अचके झकोल गइल। ढेरे…
Read Moreअब ना जगबा, त ओरा जइबा
सिकुरत सिकुरत बचला मुट्ठी भर अब ना जगबा, त ओरा जइबा। पुरबुजन के नाँव हँसा जइबा॥ जे जे कांपत रहल नाँव से ओहन से अब कांपत हउवा। बीपत जब सोझा घहराइल भागत भागत हांफत हउवा॥ कतों बिलइला आ भाग परइला साँच बाति के कब पतिअइबा॥ अब … कवन डर पइसल बा भीतरी जवना से घबराइल हउवा। लालच के लत लागल तहरा बेगर बाति क घाहिल हउवा। जहाँ धरइला आ उहें छंटइला केकरा सोझा दुखड़ा गइबा॥ अब… ईरान क, का हाल छिपल बा अफगानिस्तान पुरा सफाया। दहाई में…
Read Moreजीरो माइल बा
गाँव घरे क बात करीं जनि, रिस्ता-रिस्ता घाहिल बा। सब कुछ जीरो माइल बा॥ पुस्तैनी पेसा ना भावत कहाँ गवैया नीमन गावत गीतकार क बात करीं जनि, इहाँ जमाते जाहिल बा। सब कुछ जीरो माइल बा॥ छोड़ि के आपन घर-गिरहस्ती बहरे हेरत फिरत हौ मस्ती मेहनत के बात करीं जनि, असकत सिरे समाइल बा। सब कुछ जीरो माइल बा॥ ईमानदार से डर लागै मोलाजिम करतब से भागै घुसख़ोरी क बात करीं जनि उहाँ भिरी देखाइल बा। सब कुछ जीरो माइल बा॥ जहाँ बेबस मरीज कटत हौ डागदरन में माल बटत…
Read Moreसुधि के मोटरी से कुछ-कुछ
रउवा सभे के मालूम होखबे करी कि जिनगी के जतरा लइकई से गवें गवें आगु, बढ़त, जवानी के जीयत, अधेड़पन के संवारत बुढ़ापा के काटत एक दिन अंतिम जतरा पर निकल जाला। मनई के जिनगी में ढेर पल –छिन अइसन जरूर आवेला जवना के उ जोगा के राखलों चाहेला। भा ई कहल जाव के कुछ गुजरत पल मनई के स्मृति में आपन पक्का ठेहा बना लेवेलन सन। अइसने स्मृतियन के आधार पर कवनो विषय भा बेकती पर जवन कुछ लिखल जाला, ओकरा के संस्मरण भा स्मृति आलेख कहल जाला। भा…
Read Moreअति का भला न बोलना —–
का जमाना आ गयो भाया,सभे बेगर आगा–पाछा सोच के भोंपू पर नरियाये में जरिको कोर-कसर नइखे उठा राखत। मने कतों, कबों, कुछो जबरिये फेंक रहल बा। एह ममिला में सावन से भादों दुब्बरो नइखे। सुननिहारन के कत्तई अहमके बूझ रहल बा लोग । एहनी के केहू बतावहूँ वाला नइखे कि- ‘ उ जमाना लद गइल जवना में गदहो पकौड़ी खात रहले सन। समय बदल रहल बा। सोच बदल रहल बा आ मनई उत्तर देवे क तरीको बदल रहल बाड़न। अब दोसरो लोगन के अपना काम-काज के तौर-तरीका बदले के पड़ी,…
Read Moreचैता आ चुनाव
गज़ब हाल बा भाई! एक त चइत चहचहाइल बाटे आ मन,मनई,मेहरारू संजोग वियोग के चकरी में चकरघिन्नी भइल बाड़ें, ओही में ई चुनाव के घोषणा, मने धधकत आगि में घीव डला गइल। दूनों ओर जी हजूरी के तड़का, अब उ नीमन लागे भा बाउर। जिये के दूनों के पड़ी, मन से भा बेमन से। जब लोग बाग खेती-किसानी से दूरी बनावे लागल बा, त ओहमें ई राँड रोवने नु कहाई कि अब ढोलक के थाप आ झाल के झंकार सुनात नइखे। खेती-गिरहस्थी से थाकल लोगन खातिर फगुआ आ चइता टानिक…
Read Moreचइता गीतन पर एगो दीठी
चइता, चैता भा चैती पुरवी उत्तर प्रदेश, बिहार आ झारखंड में चइत महीना में गावल जाये वाली एगो लोकगीत भा लोक शैली हवे। चइत महीना के हिन्दू पंचांग (कैलेंडर) से हिंदू लोग पहिल महीना मानल गइल ह अउर फागुन के अंतिम महीना। भगवान राम के जनम चइत महीना में भइल रहे। कहल त इहाँ ले जाला कि चइता गावे के चलन त्रेता जुग से चालू हो गइल रहल,काहें से कि चैती भा चैता में ‘हो रामा’ के टेक का संगे गावे के चलन बाटे। एह में राम जन्म, राम सीता…
Read Moreबिलारी के भागे क सिकहर
का जमाना आ गयो भाया,अजबे खुसुर-फुसुर ससर ससर के कान के भीरी आ रहल बा आ कान बा कि अपना के बचावत फिरत बा। एह घरी के खुसुर-फुसुर सुनला पर ओठ चुपे ना रह पावेलन स। ढेर थोर उकेरही लागेलन स। एह घरी के ई उकेरलका कब गर के फांस बन जाई, एह पर एह घरी कुछो कहल मोसकिल बा। रउवा सभे जानते होखब कि इहवाँ जेकर जेकर कतरनी ढेर चलत रहल ह, सभे एह घरी मौन बरती हो गइल बा। अब काहें, ई बाति हमरा से मति पूछीं, खुदही…
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