विध्वंस आ सिरजन एह सृष्टि रूपी सिक्का के दू गो पहलू लेखा बा। एक के दोसरा अलगा राख़ के देखल मोसकिल ह। मने अलगा-अलगा राखल भा देखल संभव नइखे। अब जवन कुछ संभवे नइखे,ओह पर कवनो बतकही बेमानी बा। बाक़िर एह घरी त पत्थर पर दूब्बा उगावे के पुरजोर परयास हो रहल बा। परयास देखउकी भर के बा भा साँचों ओकर छाया जमीन पर उतर रहल बा, ई त समय के ऊपर छोडल जा सकेला। एह छोड़लको पर लोगन के नजरिया अलग-अलग हो सकेले,बाक़िर दोसर कवनो रासतो त नइखे। दुनिया आग के भट्ठी पर बइठ के तमासा देख रहल बा। भट्ठी कबों भसा सकेले, एह सोच से परे हटके लोग गाल बजा रहल बा।आपुसे में नुक्ता-चीनी आ आपुसे झाँझ बन्हउवल आ हाथे लागता बाबाजी के ठुल्लू। बाक़िर लोग एही कुल में खुस हो रहल बा, त होखो। जब लोगन के साँच दोदे में देरी नइखे लागत त फेर अइसन लोगकतना गरहा तक उतर जाई, कहल मोसकिल बा। दुनिया के का बड़का, का छोटका सभे आपुसे में लत्ता फारे में अझुराइल होखे, ओइसने में सिरजन के रसता अख़्तियार कइल ढेर दुरूह कारज़ होला। बाक़िर जब सभे अपना-अपना राग अलापे में लगल होखे , त विनास के नदी-नार बहे में कतना देर लागे के बा। जब जनमतुआ घर लाख के बनल होखे, तबआगि लागे में जरिको सक-सुबहा होइये ना सकत।
दुनियाँ गवें-गवें तीसरके विश्व युद्ध का ओर डेग बढ़ावत दिखाई दे रहल बा। कुछ लोग एहू में आपन सोवारथ साधे में प्राण-पन से लागल बा। चाहे हथियार बेचला के परयास होखे भा जमीन कब्जियवला के, दूनों युद्ध के समिधा बा। दुनिया के पहिलहूँ दू धुरी रहे , अजुवो बा , बस जरिका केंद्र बदल गइल बा। दूनों धुरी के पुरजोर परयास आपन सोवारथ साधले ह, मानवीयता के ताख पर राख़ के होखे भा कुचिल के, दूनों में से कवनो के ई कुल्हि करे में इचिकों सरम नइखे।एह कुल्हि से मनई के हित कबों ना होई। मनई के हित के बात करे के बा, त सिरजन के बात करे के होखी। सिरजन जवन मनई से मनई के जोड़े। धरती के कन-कन ला ओह में नेह होखे। मने युद्ध के भट्ठी खातिर सिरजना के नेह लेप होखे।
साहित्यकार हर घरी मनई के हित चिंतन में लागि के सिरजन रत रहेलें। कहलो गइल बा कि सिरजन अमर होला। मने जबले ई दुनिया रही, राउर सिरजन मनई के राह देखावत रही, नेह के लेप लगावत रही। मनई के मनई बनावे खातिर राह देखावत रही। एही मूल मंत्र का संगे ‘भोजपुरी साहित्य सरिता’ सिरजन के सम्मान करत सिरजलका के मनई समाज के बीचे परोसे ला लागल बा। भलही एकरा के गिलहरी परयास मानल जाव,बाक़िर मानल जरूर जाई ।
- जयशंकर प्रसाद द्विवेदी