भोजपुरी लोक में तरह-तरह के गीतन के विधा बा। एहि लोक के कंठ में रचल-बसल एगो विधा के नांव बा कजली अथवा कजरी। भोजपुरी लोक जीवन खेती बारी प आधारित बेवस्था ह, आ खेतीबारी के चक्र आधारित बा मौसम बा रितुअन प। सुरूज़ जब उत्तरायन होखला के बाद आपन ताप से एह क्षेत्र के दहकावत रहेले त मानव से ले के हर जीव जन्तु के मन में इहे रहेला कि कब आसाढ़ के महीना आवे आ सुरूज़ के ताप कम होखे। कब बरखा के फुहार से कब धरती सराबोर होखस, पत्तई-पत्तई हरियर होखे आ साथे हरियर होखे गाँव-घर के लइकी-दुलहिन लोगिन के मन, कब बगईचा में झूला पड़े आ कब कजरी झुलुवा के हर हिलोर के संगे लइकी आ नयका दुलहिन लोग गावे। अइसे त काहल जाएला कजरी गावल ना खेलल जाएला। कजरी एगो रितुगीत ह जवन बरखा के मौसम में गवाला। कजली अथवा कजरी लोकगायकी के एगो मजबूत विधा होखे के साथे साथे एगो साहित्यिको विधा ह।
गंगा माई के कल-कल बहत धार आ विंध्य परबत से घेराईल मिर्जापुर जनपद कजरी के उद्गम स्थान ह। मिर्जापुर से जनमल कजरी बनारस, शाहाबाद, मगध से बंगाल तक आ उत्तर में दिल्ली से राजस्थान तक विस्तार पवले बा बाक़िर ई ह मिर्जापुर क्षेत्र के विधा जहवाँ काहल जाएला कि एगो समय रहे जब कजली के सुर मिर्ज़ापुर के हर गली हर पोखरा प गूंजत रहे। मिर्ज़ापुर के कजली के नवो अखाड़ा अपना आप में कजरी के अलगा अलगा शैली के इसकुल रहे आ ओह अखाड़न में कजली के दंगल के आयोजन होखे जेकरा में कई गो गायक-गायिका भाग लेस।
कजली लोकगायिकी के प्रारम्भ कब आ कइसे भइल एकर बारे में तरह-तरह के कहानी बा बाक़िर एकरा में तनिकों शक नईखे कि कजरी सबसे पहिले कज्जला देबी विंध्यवासिनी माई जवन एह क्षेत्र के अधिष्ठात्री देवी हई उहाँ के प्रसन्न करे खातिर लिखल गइल रहे। एगो कथा बा कि कवनो मुसलमान शायर सबसे पहिले एकरा के रचले रहन जवना के सुन के माई प्रसन्न हो के वरदान दिहली कि जे एह शैली में गीत रच के हमरा के सुनाई ओकरा हमार भक्ति आसानी से मिल जाई। तब से ई परंपरा आजुवो चलल आ रहल बा कि जब कवनो गायक ऊ चाहे हिन्दू होखे भा मुसलमान कवनो अखाड़ा में शामिल होखेला त पहिला कजरी माई के नांवे लिखेला। कजरी गायकी के अखाड़ा में हिन्दू आ मुसलमान दुनो’ धरम के लोग के समान अधिकार रहल बा। ‘कजरी भा कजली’ शब्द काजल/काजर से निकलल बा। आजुओ माई कज्जला देवी के दर्शन पूजन में काजर के टीका लगावे के चलन बा। कजरी बरखा रितु के गीत ह जवन सावन चढ़ते चालू हो जाएला बाक़िर भादो महीना के अंहरिया के तृतीया तिथि से ले के बावन द्वादशी तक कजरी के माहौल चरम प रहेला। एह अवधि में पड़े वाला त्योहार जइसे जन्माष्टमी, ललही छठ, तीज आदि के अवसर प कजली के खास आयोजन आ झांकी निकाले के परंपरा रहल बा। विंध्याचल क्षेत्र में जेठ शुकुल पक्ष के पहिलका एतवार से अढ़ाई दिन के परावन अवधि शुरू होखेला। एगो समय रहे जब एह अवधि में मिर्ज़ापुर के बाज़ार नब्द रहत रहे आ कजरी के खलीफा भा उस्ताद लोग विंध्यवासिनी माई के बिसेस आराधना करे, ख़ंजरी पूजन करे आ सुमिरनी गा के कजली गायन के उत्सव मनावे। एही मवका प नया शिष्य लोगन के दीक्षा दियात रहे। एह महोत्सव के दु महीना बाद भादो कृष्ण पक्ष के तीसरका तिथि के भर रात कजरी गा के ‘जगरन’ के परंपरा रहे। मानल जाएला कि एही राते विंध्यवासिनी माई अवतरित भइल रही। एकर अगिला दिन कजरी मेला के शुरुआत होखत रहे। कजली गायन के परंपरा गुरु-शिष्य परंपरा के रूप में आगे बढ़त गइल जवना के ‘अखाड़ा’ परंपरा के नांव से जानल जाएला। अखाड़ा के नांव ओकर उस्ताद/गुरु भा खलीफा के नांव से मशहूर होखत रहे। हर अखाड़ा के आपन खासियत रहे आ सभ के विषयवस्तुओ में विविधता होखत रहे। मिर्ज़ापुर के चर्चित अखाड़न में कवि शिवदास के अखाड़ा, कवि छविराम के अखाड़ा, पंडित शिवदास, मतिराम, जहांगीर, बरकत, मूरत खलीफा, मन्नीलाल, शिवराम के अखाड़ा रहल बा। एकर अलावे कुछ हिन्दी कवियो लोग अलग से साहित्यिक आ राष्ट्रीय प्रेम वाला कजली के रचना कैले बा लोग। एह कवियन में पं बदरी नारायन उपाध्याया, चौधरी प्रेमधन, अंबिका दत्त व्यास, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, रसिक किशोरी आदि के नांव प्रमुख बा। कजली के अखाड़ान के अलावे सबसे जादे जोगदान प्रेमघन जी के रहल बा। उहाँ के हवेली के कजरी के हवेली कहल जात रहे, भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी के प्रेरणा स्रोत प्रेमघने जी रहीं।
कजली के उद्गम भले मिर्ज़ापुर होखे बाक़िर एकर विस्तार आ लोकप्रियता में बनारस, रीवा, जौनपुर आदि क्षेत्र के योगदान कम नईखे। खास कर के बनारस के गायक आ कवि लोग के योगदान कजली के प्रतिष्ठा बढ़ावे में बहुत रहल बा। कजली के प्रस्तुति अलग अलग ढंग से होखेला। मर्दानी आ अखाड़ा के कजली में गायक खड़ा होके गावेले आ सजिन्दा आउर सुर भरे वाला लोग मंच पर बईठल रहेला। जौनपुर के चौलर कजली में चार गो गायक के टोली रहेला। ठुनमुनिया कजली में लईकी लोग दु गो लिने आमने सामने खाड़ हो के झुकी झुकी के गावेला। कजली के प्रमुख ताल दादरा आ कहरवा ह बाक़िर लय के वजन में विविधता रहेला। कजली के शुरू के लिने अथवा आखिर में आवे वाला टेक शब्द अरे रामा, रे हरि, बलमु, ललना, सांवर गोरैया आदि होखेला।
कजली लोकगायकी के अलावे संगीत के एगो उपशास्त्रीय विधा के रूप में विकसित भइल बा। सिद्धेश्वरी देवी, पं हरिशंकर, पं छन्नु लाल मिश्र आदि कलाकार लोक के गायन में कजली के विधा शामिल बा।
कजली गायन के शुरुआत के सही कालखंड के बारे में अंतिम रूप से कुछ कहल ना जा सके। मान्यता बा कि कजली लिखाये के शुरुआत भविष्य पुराण लिखाये से पहिले के ह। बाकी आधुनिक कालखंड के देखल जाये त कजली के लोकप्रियता 1850 से 1970 तक रहल बा, ई पूरा कालखंड मे कजली के अखाड़न के लोकप्रियता दूर दूर तक पसरल। कजली के रचना में सामान्य रूप से लोकजीवन से जुड़ल प्रसंग रहेला बाक़िर एकर रचना प समकालीन परिस्थितीयन के प्रभाव रहल बा। नारी जागरण, अकाल, युद्ध, वीरता, महामारी, ग्रामीण जीवन त कजली के विषयवस्तु रहले बा खास बात ई बा कि कई गो कजली अईसनो लिखाइल जवना में राष्ट्रीय प्रेम के भावना, ब्रिटिश सरकार के जुलुम के वर्णन बा।
साहित्य समाज के दरपन ह। समाज के बदलाव के असर साहित्य प परबे करी। आज गाँव के माहौल बादल रहल बा, पारंपरिक जीवन मुली में बदलाव आइल बा, आपसी रिश्ता में बदलाव बा त ओकरा से कजलियो अछूता नईखे। अब पेड़ कटा रहल बा, रिश्ता बंटा रहल बा, अइसन में कजली जईसन विधा के जीवंतता बनल रहे, ईहे कामना बा।
- रवि प्रकाश सूरज
पूर्व सदस्य, मैथिली भोजुरी अकादमी, दिल्ली
शोधार्थी, भोजपुरी विभाग, वीर कुँवर सिंह विवि
मो- 9891087357