“बनचरी”: भाव भरल प्रेम कथा के बहाने मानव मूल्य के कृति

आपन भाषा, आपन बोली भोजपुरी के संगे-संगे, अपना माती के सोन्हपने से भरल-पूरल कवि डॉ अशोक द्विवेदी के लेखनी से सिरजित भइल ‘बनचरी’ एगो अइसन कथा विन्यास ह, जवन पढ़निहार के अपना कथारस अउर रंग में सउन के पात्रन के संगे लिया के ठाढ़ क देवेला। एह उपन्यास के लिखनिहार के दीठि एह कृति के नाँवे से बुझाये लागत बा। जवन लेखक के भाषा शिल्प, गियान अउर लेखन के सुघरई से पढ़निहार लोग से सोझे मिलवा रहल बा। लालित्य से भरल सरल भाषा, जगह-जगह उकेरल गइल बिम्ब मन के मोहे…

Read More

बसंत-फागुन

धुन से सुनगुन मिलल बा भँवरन के रंग सातों खिलल तितलियन के लौट आइल चहक, चिरइयन के! फिर बगइचन के मन, मोजरियाइल अउर फसलन के देह गदराइल बन हँसल नदिया के कछार हँसल दिन तनी, अउर तनी उजराइल कुनमुनाइल मिजाज मौसम के दिन फिरल खेत केम खरिहानन के! मन के गुदरा दे, ऊ नजर लउकल या नया साल के असर लउकल जइसे उभरल पियास अँखियन में वइसे मुस्कान ऊ रसगर लउकल ओने आइलबसन्त बन ठन के एने फागुन खनन खनन खनके! उनसे का बइठि के बतियाइबि हम पहिले रूसब आ…

Read More

भोजपुरी गीत के भाव-भंगिमा

कविता के बारे में साहित्य शास्त्र के आचार्य लोगन के कहनाम बा कि कविता शब्द-अर्थ के आपुसी तनाव, संगति आ सुघराई से भरल अभिव्यक्ति हऽ। कवि अपना संवेदना आ अनुभव के अपना कल्पना-शक्ति से भाषा का जरिये कविता के रूप देला। कवनो भाषा आ ओकरा काव्य-रूपन के एगो परंपरा होला। भोजपुरी लोक में ‘गीत’ सर्वाधिक प्रचलित आ पुरान काव्य-रूप हऽ। जेंतरे हर काव्य-रूप (फार्म) के आपन-आपन रचना-विधान, सीमा आ अनुशासन होला, ‘गीतो’ के बा। दरअसल गीत एगो भाव भरल सांकेतिक काव्य-रूप हऽ, जवना में लय, गेयता आ संगीतात्मकता कलात्मक रूप…

Read More

हँसि हँसि अँजुरी भरे !

रतिया झरेले जलबुनियाँ, फजीरे बनि झालर, झरे फेरू उतरेले भुइयाँ किरिनियाँ सरेहिया मे मोती चरे !   सिहरेला तन , मन बिहरे बेयरिया से पात हिले रात सितिया नहाइल कलियन क , रहि रहि ओठ खुले पंखुरिन अँटकल पनिया चुवत खानी दिप-दिप बरे !   चह-चह चहकत/ चिरइयन से सगरों जवार जगे- सुनि, अँगना से दुवरा ले तानल मन के सितार बजे छउंकत बोले बछरुआ मुंडेरवा पर कागा ररे !   सुति-उठि धवरेले नन्हकी उघारे गोड़े दादी धरे बुला एही रे नेहे हरसिंगरवा दुवरवा पर रोजे झरे बुची, चुनि-चुनि बीनेले…

Read More

मड़इया मोर झाँझर लागे

गरमी के तिखर किरिनिया मड़इया मोर झाँझर लागे ॥ दँवकेले पातर छन्हिया, मड़इया मोर झाँझर लागे ॥   खाँखर पतलो क खर ले , खरकि गइले सरल रसरिया क बान्हन सरकि गइले हरका से हिलि जाले थुन्हिया मड़इया मोर झाँझर लागे ॥ सावन – भदउवाँ क रतिया ओनइ परे सरवत छन्हिया के संगही नयन झरे बरे जब नाही चुल्हनिया मड़इया मोर झाँझर लागे ॥   जेठवा मे जइसे कि अगिया लवरि बरे लुहवा लहकि मोरा भितरा सुनुगि जरे अदहन बनि जाला पनिया मड़इया मोर झाँझर लागे ॥   रोपनी से…

Read More

कवन गीत हम गाईं बसन्ती

कठुआइल उछाह लोगन के, मेहराइल कन -कन कवन गीत हम गाईं बसन्ती पियरी रँगे न मन !!   हर मजहब के रंग निराला राजनीति के गरम मसाला खण्ड खण्ड पाखण्ड बसन्ती चटकल मन – दरपन !!   गठबन्धन के होय समागम तिहुआरी टोटरम के मौसम धुआँ -धूरि कोहराम मचावे धरती अउर गगन !!   गलत कलेण्डर के तिथि लागे जे देखs ,बउराइल भागे कोइलरि गइल बिदेस भँवरवा गड़ही – तीर मगन !!   हिम-तुसार-बदरी घिरि आइल जाय क बेरिया माघ ठठाइल चुभ-चुभ धँसे बरफ के टेकुआ सन् सन् चले पवन…

Read More

लोकमन आ लोकरंग के चतुर चितेरा भिखारी ठाकुर

लोकमन आ लोकरंग के चतुर चितेरा भिखारी ठाकुर आजुओ भोजपुरी के सबसे चर्चित व्यक्ति बाड़न. केहू उनके समय-संदर्भ के सर्वाधिक चर्चित नाटककार का रूप में, भोजपुरी के ‘शेक्सपियर’ मानल त केहू भोजपुरी भाषा-साहित्य के प्रचार-प्रसार खातिर ‘भारतेन्दु’ का नाँव से नवाजल. पुरबी राग के जनक महेन्दर मिसिर का बाद, बलुक उनहूँ ले ढेर भिखारी ठाकुर क नाँव चर्चा में रहल. साहित्य अकादमी उनके भारतीय साहित्य निर्माता का वर्ग में रेघरियावत “भिखारी ठाकुर” नाँव क ‘मोनोग्राफ’ प्रकाशित कइलस. भिखारी आखिरकार ई सिद्ध कइये दिहलन कि लोकप्रियता कवनो रचनाकार कलाकार के महान…

Read More

गजल

कम में गुजर-बसर रखिहऽ! घर के अपना, घर रखिहऽ! मुश्किल-दिन जब भी आवे दिल पर तूँ पाथर रखिहऽ. जब नफरत उफने सोझा तूँ ढाई आखर रखिहऽ. आपन बनि के जे आवे सब पर खास नजर रखिहऽ. दर्द न छलके ओठन पर हियरा के भीतर रखिहऽ. एह करिखाइल नगरी में दामन तूँ ऊजर रखिहऽ. डॉ अशोक द्विवेदी

Read More

रोज-रोज काका टहल ओरियइहें

भीरि पड़ी केतनो, न कबों सिहरइहें.. रोज-रोज काका टहल ओरियइहें! भोरहीं से संझा ले, हाड़ गली बहरी जरसी छेदहिया लड़ेले सितलहरी लागे जमराजो से, तनिक ना डेरइहें! रोज-रोज काका टहल ओरियइहें! गोरखुल गोड़वा क,रोज-रोज टभकी दुख से दुखाइ सुख, एने-ओने भटकी निनियों में अकर-बकर, रात भर बरइहें! रोज-रोज काका, टहल ओरियइहे! फूल-फर देख के, उतान होई छतिया छिन भर चमकी सुफल मेहनतिया फेरु सुख-सपना शहर चलि जइहें! रोज-रोज काका टहल ओरियइहें! छोटकी लउकिया, बथान चढ़ि बिहँसे बिटिया सयान, मन माई के निहँसे गउरा शिव कहिया ले भीरि निबुकइहें! रोज-रोज काका,…

Read More