अब कहाँ ऊ फगुआ-बसंत!

जनम कानपुर में भइल बाकिर लइकायी के दिन गाँवें में बीतल। लमहर परिवार रहे। दूगो तीन गो फुआ लोग के ससुरा  जाए खातिर दिन धरा त दू तीन जनी के बोलावे खातिर। त हम लइका लोग के ठीक ठाक फ़ौज रहे। घर में जेतना लोग बहरा नोकरी करत रहे ओकर परिवार ढेर घरहीं रहत रहे। पिताजी कानपुर आर्डिनेंस फैक्ट्ररी में नोकरी करत रहनीं आ हमनीं के गाँव में। ढेर दिन हो जा त मामा जी मम्मी के बिदा करा ले जायीं। तब साल दू साल मामा जी की घरे बीते।…

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