मजबूरी

कल्लूआ के उमर जब तीन साल के रहे तबे ओकरा बाबूजी के देहांत हो गईल। कल्लू के पूरा जिम्मेवारी अब ओकरा माई पर आ गईल। ओकर माई मेहनत-मजूरी क के पाले लगली, समय बीते लागल। कल्लूआ के एके गो काम रहे, खाईल-पीअल आ कसरत कईल। वक्त के साथे कल्लू एगो गबरू जवान के रूप में उभरल।
अब ऊ इलाका के दबंग साधू के सीधे-सीधे टक्कर देबे लागल, जूर्म के बिरोथ करे लागल। साधू के दसो आदमी पर कल्लूआ अकेले भारी परे ।
साधू के आपन रूतबा खतम होखे के डर सतावे लागल। ऊ अपना सबसे पुरान सागीर्द जीतन से कल्लूआ के ठेकाने लगावे खातिर कहले। जीतन बहुते सुलझल आ दूरदर्शी रहले, ऊ साधू के संगे कुछ अईसन ओईसन करे के बदले नोकरी पर राखे के प्रस्ताव रखले। साथू पूछले – ऊ तैयार हो जाई ?
जीतन कहले मजबूरी सब करावे ला।
ढेर दरमाहा देके कल्लू के नोकरी पर लगा दीहल गईल आ काम हाथी के देख रेख के मिलल। अब कल्लूआ चौबीसों घंटा हाथी के सेवा में चिंतीत रहे लागल आ साधू के चिंता आसानी से खतम हो गइल। मतलब सांप मारल गईल आ लाठीओ ना टूटल।

विनीता मिश्रा
कैमोर, कटनी ( म प्र )

 

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