बूड़ल बंस कबीर

1
तीन तिरिखा-
देह, मन के, तत्त्व के।
रूप-रस-धुनि-गंध-परसन
तीर रहलन सत्त्व सारा
देह के, आदिम समय से।
भटक जाला बेबसी में
अनवरत मन,
भाव के फैलाव-घन में।
चिर तरासा अस बयापल
तत्त्व के बुनियाद में,
कन परस्पर डूब रहलन
तिश्नगी में।

के कही कि के पियासल-
नदी-जल कि माछरी?
बेअरथ जनि हँस कबीरा।

2

छोटीमुटी गुड़ुही में
बुलुकेला पनिया,
छलछल गुड़ुही के कोर।
पनिए से उपजलि
नन्हींचुकी जीरिया,
जीरिया भइल सहजोर।
सातहूँ समुन्दर के
सोखेली मछरिया
मछरी में छुपल अकास।
अँखिया में मचलेली
नन्हीं-सी बुँदनिया,
बुँदनि के मिटे न पियास।

 

माघी भोर

 

चिलबिली के शाख पुरनम

जंगला के पार।

झीन-अस उजियार।

 

किरमिची बदरंग जइसन असमानी,

धूँध मे ह डूब रहलसि

भोर के सरबस निसानी।

आँख से ओझल कहीं पर

धूप के किरदार।

 

पात पर थथमल पड़ल कुछ कन बिलौरी,

कब रुकल संग्दिल हवा

कतिनों करीं मिन्नत-चिरौरी।

रेख में ढलते गइल ह

चंदपातरि धार।

 

दिनेश पाण्डेय

पटना

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