सचहूँ; ‘फेर ना भेंटाई ऊ पचरुखिया’

संस्मरण हिन्दी साहित्य के एगो अइसन गद्य बिधा ह जवन अपनी स्मृति प
आधारित ह। कई बेर ई अत्यंत व्यक्तिगत भी होला आ सामाजिक चाहे राष्ट्र से
जुडल भी। बाकिर केतनो व्यक्तिगत संस्मरण होखे, ई गद्य साहित्य के बिधा
कहाला।
जदि देखल जा त हिन्दी के संस्मरण लेखक लोग के एतना नाँव बा जे लिखल जा त
एगो बड़हन सूची तैयार हो जाई। बाकिर भोजपुरी के ई पहिला संस्मरण से हमार
भेंट भइल ह ‘भोजपुरी साहित्यांगन’ पर।
‘फेर ना भेंटाई ऊ पचरुखिया’ किताब के ई शीर्षक अपनी ओर आकर्षित करता। ए
शीर्षक में ‘ऊ’ विशेष बा। ‘ऊ’ माने जवन चीज जइसन कबो रहे, अब ऊ ओइसन
नइखे। मने ‘ऊ’ पचरुखिया अब नइखे भेंटाए के। शीर्षक के ‘ऊ’ में कुच्छु
अइसन टीस बा कि ओके महसूसत घरी शैलेन्द्र के लिखल ‘तीसरी कसम’ फिलिम के
एगो गीत मन परे लागता, “चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया…।”
जइसे ई पिंजरे वाली मुनिया बरफी, कपड़ा आ बीड़ा के रस ले लिहले रहे ओसहीं
समय रूपी मुनिया जिनगी के दिन से रस ले के ऊड़ि जाले आ फेर ऊ दिन महिना
साल जिनगी में ओ रूप में लवटि के ना आवेला। हँ, ‘ऊ’ हमरी आपकी स्मृति की
मंजूषा में तहा के जरूर धरा जाला आ समय समय पर हमनीके ओ मंजूषा के खोलि
के अपनी स्मृतियन के झार पोंछि, घाम देखा के फेर से तहा के ध देनी जा।
एमें दुःख, सुख, निरासा, बिछोह, मिलन, जीवन के सगरो रंग रहेला। ई संपदा त
सभके लगे रहेला बाकिर जे कलम के घनी मनी बा ऊ एकरा के कागज पर उतार लेला
नाहीं त ई स्मृति के संपदा स्मृतिए में लोप हो जला चाहे चिता की अग्नि
में स्वाहा हो जाला।
खैर…! ‘फेर ना भेंटाई ऊ पचरुखिया’ ओही स्मृति के शब्द रूप ह जवना के
डॉ० रंजन विकास जी अपनी लेखनी के माध्यम से उकेरले बानी। एके पढ़त घरी
लेखक के बचपन से ले के भोजपुरी साहित्यांगन की स्थापना तक उनकी यात्रा ले
वर्णन बा। पूरा संस्मरण में लेखक के जीवन के बहुआयामी रूप देखे पढ़े के
मिलता। पचरूखी के सौन्दर्य वर्णन त अइसन भइल बा कि पढ़त-पढ़त पाठक के मन एक
बेर पचरूखी के देखे खातिर लहक उठता। पचरूखी गाँव, ओइजा के चीनी मिल,
बाजार, टीसन, इस्कूल, सब कुछ आँखी के आगे सोझा लउके लागता।

आत्म संस्मरण लिखत घरी विकास जी खाली अपनी माता-पिता, भाई-बहन, सखा ले
सीमित नइखीं रहत, आपन हर छोट बड़ रिश्ता, जैसे- ननिआउर, मौसीआउर फ़ुफ़ुआउर,
गाँव गिराँव, टोला जवार, हर हरवाह सबके साथे आपन नेह नाता के बड़ी
भावपूर्ण शब्द चित्र उकेरले बानी। दूनू फुआ वाला अध्याय स्त्री मन के ढेर
भाव समेटले बा।
अपनी बाति में आप लिखतानी कि “हमार आत्म संस्मरण’ फेर ना भेंटाई ऊ
पचरुखिया’ में मन के उपराजल कुच्छु ना ह बलुक जिनगी में जे हमार देखल
भोगल जथारथ बा ओकरे के उकेरे के कोसिस कयिलेबानी।” आगे पचरूखी के बारे
में उहाँ के कहतानी, “पचरूखी एगो छोटहन कस्बा भइला के बादो हमरा खातिर
बहुते मनोरम, रमणीक आ ख़ास रहल बा।” राउर ई बाति पढ़े वाला के खूब महसूस
होता विकास जी।
“पचरूखी मन्दिर के मठिया से सटल पोखरा के भिण्डा प के बाबूजी के आवास,
भिन्सहरे आ साँझ देर राति ले पाँड़ें जी के कसरत कईल, साँझ सवेरे मंदिर
में पूजा आरती भोला बाबा आ देवधारी बाबा के घंटी आ शंख बजवला के मधुर
आवाज बहुते दूर ले गूँजल………….क्यू मार्का बीड़ी कारखाना आजो ओसहिं
बा जइसे बचपन में रहे।” ई पैरा (पेज न० 19) पचरूखी के प्राकृतिक, आर्थिक
के साथे ओकरी आध्यात्मिकता आ संगीतमयता से भी परिचित करावता।
बिकास जी के भाषा निर्झरनी तरे कल कल बहतिया। बालपन के चुलबुलापन आगे चल
के गंभीरता में बदल जाता।अंग्रेजी के शब्दन से कवनो परहेज नइखे लेखक के।
ई पुस्तक पढ़त घरी गँवई तीज तियुहार, पहनावा ओढ़ाव, खान पान, सवाद. गुन ढंग
सब कुछ के जानकारी मिलता। किताब पढ़त पढ़त पाठक के आपन स्मृति जाग जाता आ
ओकर हाथ थामि के गाँवे की ओर ले जाता।
कुल मिला के ई किताब लेखक के अबतक के जीवन के एगो समृद्ध दस्तावेज बिया।
भूमिका में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी बड़ी सुघड़ता से पूरी किताब के
सार ले लेलेबानी। सचहूँ  में ई किताब ‘लोक संस्कृति के जियतार झाँकी बा।’
बिकाश जी अपनी माताजी के समर्पण से ई किताब के आरम्भ क के पिताजी की रचना
संसार पर इति कयिलेबानी।
ए किताब पर लिखे खातिर बहुत कुछ बा बाकिर रउरा सब पढ़ि के एकर आस्वादन
करीं।कीनि के चाहे भोजपुरी साहित्यांगन से डाउनलोड क के पढ़ीं लोग आ लेखक के ए
कृति खातिर बधाई दी सभे। हमरी ओर से भी अनघा बधाई पहुँचे।

किताब -‘फेर ना भेटाई ऊ पचरुखिया’

लेखक -डॉ० रंजन विकास जी।

प्रकाशक -सर्वभाषा ट्रस्ट।

मूल्य–  250/-  (पेपरबैक ) आ  400/- (हार्डबाउण्ड )

मीनाधर पाठक

Related posts

Leave a Comment