भोजपुरी साहित्य में प्रेम अउर सद्भावना

लोक में रचल-बसल भोजपुरी भाषा आ ओह भोजपुरी भाषा के मधुरता आ मिठास, अपना जड़ से मजबूती से जुड़ल समाज आ ओह समाज में पसरल रीति-नीति के आपन अलग विशेषता बाटे। अपने एही विशेषता के संगे अलग- अलग सोपान गढ़त, ओके सजावत-सँवारत, ओकरे भीतरि के सुगंध के  अलग-अलग तरीका से अलग-अलग जगह बिखेरत भोजपुरी भाषा सदियन से गतिशील रहल बा आ अजुवो ले बा। अपना रसता में आवे वाला कवनो झंझावत से उपरियात, समय के मार के किनारे लगावत

अपने भीतरि के ऊष्मा जस के तस अपने में समुआ के रखले बिया। भोजपुरी माटी अपने इहाँ के पलायन के पीड़ा के भलहीं महसूस कइलस, ओकरा दुख से दुखियो भइल बाकि ओहसे कबों ना दबाइल। सुन के त इहे लागेला कि एह माटी के लोग जहवाँ गइल , अपने संगे आपन भाषा, रीति-रेवाज़,तीज-त्योहार के जोगा के रखलस । भोजपुरिया समाज में मेल-मिलाप आ सहज संवाद के गहिराह परंपरा रहल बाटे। अपना जनम भूमि से दूर भइला का बाद आपन भाषा बचावल आ संस्कार जोगावल आसान त नाहिए होला बाकि भोजपुरिया लोग अपना भाषा आ संस्कार के कबों ना भुलाइल भा कबों अपना से दूर ना कइलस। एकरा पाछे कारन त इहे बुझाला कि भोजपुरी, साहित्य के संगही संस्कार के भाषा पहिलहूँ रहल आ अजुवो बाटे।  अपने एही विशेषता का चलते भोजपुरी दिन दूना रात चौगुना का हिसाब से तरक्की करत अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में आपन पहिचान बना चुकल बा। आजु ई भाषा 14 गो देसन में बोलल जा रहल बा, कई देसन के राजकीय भाषा बन चुकल बा। लिङ्ग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डेवी जी एकरा के दुनिया में सभेले तेजी से बढ़त भाषा का रूप में दर्जा देले बाड़ें।

सभे के मालूम बा कि जवना साहित्य में हित के भावना होले ओकरे के साहित्य कहल जाला। अब जवना भाषा के साहित्य हित के बात करत होखे,उहाँ परेम आ सद्भाव त होखबे करी। अपना एह बाति के पक्ष में हम गद्य अउर पद्य दूनों के जब देखे लगनी त हमरा परेम अउर सद्भाव के हजारन उदाहरन भेंटल। भोजपुरी के बाति बेगर गीत, संगीत आ साहित्य के कइल बेमानी लागी, एही से पहिले एकरे पर दीठि डारल उचित रही। सामाजिक सद्भाव के बात होखे आ भोजपुरी के आदि कवि कबीर के जिकिर न होखे, भला अइसन कबों हो सकेला। रूढ़िवादिता आ धर्मांधता के लमहर बिरोध कबीर के काव्य में भेंटाला। कुछ उदाहरन देखे जोग बा –

निगुरा बाभन ना भला गुरुमुख भला चमार

इ देवतन से कुत्ता भला नित उठ भोंके द्वार।

 

कांकर पाथर ज़ोर के मस्जिद लियो बनाय

ता चढ़ी मुल्ला बांग दे का बहरा हुआ खुदाय।

समाज में सद्भाव के जोगावे ला कबीर बाबा कहले बानी-

एक जोत से सब उत्पन्ना का बाभन का शूद्र ।

परेम अउर सद्भाव के लमहर जिकिर बाबा गोरख नाथ के साहित्यों में भेंटाला। उहाँ के एगो रचना के बानगी देखे जोग बा-

 

हसिबा बेलिबा रहिबा रंग। काम क्रोध न करिबा संग।।
हसिबा षेलिबा गाइबा गीत। दिढ़ करि राषिबा अपना चीत।।
हसिबा षेलिबा धरिबा ध्यान। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियान।।
हसै षेलै न करै मत भंग। ते निहचल सदा नाथ के संग।।
हबकि न बोलिबा ढबकि न चलिबा धीरे धरिबा पांव।
गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरष रांव।।
धाये न षाइबा भूषे न मरिबा अहनिसि लैब ब्रह्म अगिनि का भेवं
हठ न करिबा पड़या न रहिबा यूँ बोल्या गोरष देवं।।

एहु घरी भोजपुरी में जवन साहित्य के सिरजना हो रहल बा, ओहू में परेम आ सद्भाव खुबे भेंटात बा। नवहा कवि नुरैन अंसारी के इ गजल देखीं सभे-

 

दौर नफ़रत के एक दिन ठहरबे करीं!
प्रेम पावन ह, घर-घर पसरबे करीं!

रिश्ता कीना-कपट से कहाँ ले चली,
जे छल करीं , उ दिल से उतरबे करीं!

कबले जिनगी के रतिया अनहारे रहीं,
जोत मन में , पिरितया के ज़रबे करीं!

उहें भोजपुरी के युवा तुर्क केशव मोहन पाण्डेय एगो अलगे अंदाज में प्रेम के परिभाषा गढ़ रहल बाड़ें-

 

“हमहूँ ते तहरे पर लुभा गइनी, बेली अस फुला गइनी

अपना के भुला गइनी हो।

ए सँवरो! चाँन- सुरूज जइसन अँखिया से

हम भकुआ गइनी हो

प्रेम अउर सद्भाव के भोजपुरिया तुलसीदास राम जियावन दास ‘बावला’  के नजर से देखल जाव-

“प्रेम सद्भाव रहे सभसे लगाव रहे कहीं न दुराव न त कहीं हड़ताल हो

न्याय हो कचहरी में पहरी विकास करै एक रस डहरी न कहीं ऊंच खाल हो

एकता अखंडता क दियरी जरत रहे पियरी पहिर के सिवान खुसहाल हो

देश क विकास होय गली गली रास होय यहि विधि शुभ शुभ शुभ नया साल हो”

प्रेम अउर सद्भाव के, आपुसी लगाव-जुड़ाव के बाति आनंद संधिदूत के नजर में त अइसन बा कि पढ़ते आँखि लोरा जाले-

“गोरुओ गोड़वा रोकैला बछरुओ गोड़वा रोकैला

कइसे जाईं जात खानि गोड़वो गोड़वा रोकैला

गेंदा आ गुलाब गोड़वा रोकैला त रोकैला

गाँव गइले गाँव के धतुरवो गोड़वा रोकैला”

 

भा एकरा के देखीं-

 

“रात, फूल छितरउए

तोहार सपना

हँसि-हँसि मुसुकउए

तोहार सपना।

ओठँघल जानि के सरिरिया के अतमा

मन अभिलाख बन तरई चनरमा

भरि नभ उधिअउए, तोहार सपना। रात0″

 

प्रेम न बाड़ी उपजै में चन्दा के कहनाम-

आदमी कमर कस के प्यार के मैदान में ना उतरेला, प्यार हो जाला ।

भोजपुरी साहित्य प्रेम के कविता आ गीतन से भरल-पूरल आ हुलसात सोझा आवेले। एगो इहो रचना देखीं सभे-

कूक गइल कोइलिया, बेध गइल हियरा

दीप गइल अंतर में  सांचल ऊ दियरा

अचके में राधा के याद उमड़ि आइल

मोहन से दूर, तबो मोहन के नियरा।

समाज के एगो लमहर बेमारी दहेज से बिलगाव आ एक दोसरा से जोड़े के बाति भोजपुरी साहित्य में खूब मिलेला । एगो पारंपरिक गीत में देखीं सभे-

“किया समधी लूटबि गइया से भैंसिया

किया समधी बखरी हमार

नाही समधी लूटबि गइया से भैंसिया

नाही समधी बखरी तोहार

हम त लूटबि ओही सुहवा कवन देई

भर जइहें बखरी हमार।”

 

मानवीय प्रेम गीत के जबर उदाहरण भोजपुरी अस्मिता के प्रतीक माने जाये वाले महेंदर मिसिर जी के लगे भरमार बा-

“पटना से बैदा बोलाई द, नजरा गइली गुइयाँ

छोटकी ननदिया बनेली सौतिनिया

ननदो के गवना कराई द, नजरा गइली गुइयाँ।”

 

“होत परात चल जाइहों मोरे राजा

तनिक भर बोल बतिया ल मोरे राजा”

 

“आधी आधी रतिया के पिहिके पपीहरा

से बैरनिया भइलें ना

मोरा अँखिया के निनियाँ

से बैरनिया भइलें ना”

 

“अंगुरी में डसले बिया नगिनिया रे ननदी, दियरा जरा दे। “

 

रामजी सिंह  के प्रेम क एगो रंग –

 

“बार उज्जर भइल बा मरद के

लट करिया मेहरिया के बाटे।

आँखि उनुका मिरिग माति देले

दोस उनुका नजरिया के बाटे॥”   

 

भिखारी ठाकुर जी रस सिद्ध कवि रहसु । उनहूँ के इहाँ प्रेम कमतर नइखे-

जनकपुर के नारी लोग के मन के बात उकेरत भिखारी बाबा खुल्ला परेम के घोसना कइले बारन-

 “एक मन करेला अकेले बतियइतीं, हाय रे जियरा

क़हत भिखारी परदा खोल, हाय रे जियरा। “

 

“कांचे नीन दिहलन जगाई हो, ननदी तोहार भइया।”

 

“अतना सुनत धनी, खोललीं केवरिया से

दुअरा पर देखे पिया ठाढ़ रे साँवरिया।”

 

“पिया गइलें कलकतवा, ए  सजनी।

गोड़वा में जूता नइखे,सिरवा पर छतवा ए सजनी  

कइसे चलीहें रहतवा, ए  सजनी।”     

 

“पिया निपट नदनवा, ए सजनी

हमरा घोंटात नइखे कनवाँ भर अनवा, ए सजनी

चाभत होईहें मगही पनवाँ, ए सजनी।”

 

मांसल परेम राधा कृष्ण के परेम में बदल जाला भा निरगुनिया हो जाला

 

“क़हत भिखारी मनवाँ करेला हर घरिया हो उमरिया भरिया ना

देखत रहतीं भर नजरिया हो, उमरिया भरिया ना।”     

 

सामाजिक सद्भाव के संगे समाज के जगावे के कामो भोजपुरी साहित्य में खूब भेंटाला। गोरख पाण्डेय जी के ई रचना देखीं-

“समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई

हाथी से आई /घोड़ा से आई

अंगरेजी बाजा बजाई। समाजवाद बबुआ… ।”

 

प्रेम आ श्रिंगार एगो सिक्का के दू  गो पहलू बाड़न। फेर अलगा कइल मोसकिल होखबे करी। आईं देखल जाव कैलास गौतम जी कविता –

“आँख न ठहरै रूप के आगे

रूप देख बिछिलाय

जिनिगिया लहर लहर लहराय

 

खेत भरल खरिहान भरल हौ

भरल-भरल हौ अँगना

नई नई हौ देह सुहागिन

नया नया हौ कंगना

रितु आवै रितु जाय, रहनियाँ

सौ-सौ झोंका खाय।” 

भोजपुरी के चर्चित पत्रिका ‘पाती’ प्रेम कविता  के विशेषांक लेके आइल रहे। ओह अंक पत्रिका के संपादक साहित्य अकादमी के भाषा सम्मान से सम्मानित साहित्यकार डॉ अशोक द्विवेदी जी क अपने संपादकीय में   लिखले बाड़न-

” लोग या त प्रेम के गलत माने निकललस या एकरा के वर्जित आ उपहास जोग मानल। ओह लोगन के साइत पता ना रहे कि ‘प्रेम’ माइयो-बाप , भाइयो-बहिन, पति-पत्नी आ नाती-पोता क होला। एह जुग में प्रेम आदमी से बेसी धन, बल , कुरसी , घर-दुआर का संगही ताबर-तोर लिखल आ छपलको से होला।

लोक भाषा भा बोली में श्रेष्ठ काव्य लिखे वाला मैथिली के विद्यापति, भोजपुरी के अनगढ़ कबीर,अवधी के जायसी,तुलसी , ब्रज के सूरदास,मीरा,रसखान आ घनानन्द जइसन लोगन के लगावल प्रेम छुटे वाला रहे कि आजु का कवियन से छूटी(आदत) अभिव्यक्ति के लकम ?

‘छिनहिं चढ़ै छिन उतरै’ वाला प्रेम त बोखार हउवे । कबीर एही से ‘अघट प्रेम पिंजर बसै,प्रेम कहावै सोय’ क़हत रहलें। उनुका प्रेम में ‘ रोम रोम पिउ पिउ करै’ आ  उनके ‘ रोम रोम पिउ रमि रहा’ के परतीति होखे। एही से उनके हरमेसे ‘जित देखूँ तित तूँ’ नजर आवे। उनका आँखि में जवन सुघरई वाली छवि एक बेर समा गइल, तवने रही, ओमे कजरो के रेखि लगावे के गुंजाइस नइखे – ‘ कबीर काजर  रेखहूँ अब त दई न जाय, नैनन प्रीतम रमि रहा दूजा कहाँ समाय’। ‘प्रेम’ कबीर का लेखे खाली जिये वाला तत्व ना बलुक सार तत्व आ परम तत्व बन गइल रहे। ई प्रेम लौकिक धरातल से उठि के अलौकिक हो गइल रहे।

धरीक्षन मिश्र, मोती बी. ए., अनिरुद्ध, हरेन्द्र देव नारायण, भोलानाथ गहमरी, ‘बावला’, सुंदर, राम नाथ पाठक ‘प्रणयी’, प्रभुनाथ मिश्र, परमेश्वर शाहाबादी आदि कवियन का चलते विकसत गीत-चेतना बदलत समय में रागात्मक संवेदना के प्रवाह निरंतर निखरत गइल। नया नया भाव बोध का साथ विविधता में प्रगट भइल बा ओमे निजता का संगे स्वतन्त्रता , प्रेम आ समानता के सामाजिक भाव बोध बा। ”

भोजपुरी के गजल के जनक ‘जगन्नाथ जी के एह गजल से प्रेम के देखल जा सकत बा-

“प्रीति से आँखि चार हो जाई।

प्रीति छन में लखार हो जाई।

 

आगि नेहियाँ क झवाँइल नइखे

जबे खोरीं अँगार हो जाई।”

पाण्डेय कपिल प्रेम के परिभाषित करत कह रहल बाड़ें –

“भइल प्यार के ई असर धीरे-धीरे

मिलत जब नजर से नजर धीरे-धीरे

 

लगावत रहस ऊ भले मुँह प ताला

नजर सब बता दी मगर धीरे-धीरे”

 

उहें सतीश प्रसाद सिन्हा के ई गीत कइसे भुला सकत बा-

“मितवा सनेही के आइल हऽ पाती

हमरा अंगनवा में धरि गइल बाती

तन-मन पिरितिया में अइसन नहाइल

नेहिया में गीत सराबोर हो गइल।”

 

प्रेम कविता आ गीत के बात होखे आ गीत पुरुष हरिराम द्विवेदी के पातरि पीर के चरचा बिना पूरा कइसे हो सकत बा। उहें के कुछ पांती देखीं-

निरमल नेहिया रहली बड़ टहकार

कउने कारन नहकै भइल अन्हार।

इहै सोचि के हियरा होय अधीर

गहिरी होतइ जाले पातरि पीर।

परेम के बाति गजल, कविता भा गीते भर में कहल गइल होखे, इहों बात नइखे । पारंपरिक कजरी के रूप में खुबे गवाइलो बा। जयशंकर प्रसाद द्विवेदी के आजु के एगो चर्चित कजरी में प्रेम के बाति नीमन से कहल आ बूझल गइल बा। जवना के जरूर देखीं सभे-

“बरसेला मेघ जलधार हो कि

सावन में फुहार परे बलमू॥2॥

फुहार परे बलमू,फुहार परे बलमू 2

सावन मे फुहार परे बलमू॥

 

तोहरे ही  नेहिया में उठेला हिलोरवा 2

आवे जब  सुधिया तोहार हो कि

सावन मे फुहार परे बलमू॥

 

राति भर सेजिया पे निदियों न आवेला 2

अइबा तबे होई गुलजार हो कि

सावन मे फुहार परे बलमू॥

 

पोरे पोर बिरहा में मातल देहिया 2

बूझा तनि बतिया हमार हो कि

सावन मे फुहार परे बलमू॥ ”

नेह का आ कइसन होला, एकरा के जाने आ बूझे खातिर भोलानाथ गहमरी के ई रचना के समुझल बहुते जरूरी लागता। रउवो पढ़ीं –

 

“कींचड़ से नील कमल दियना से कजरा

चिटुकी भर नेह से सँवरि जाला जियरा !

 

जब जब किरिनिया अगिन बरिसावे

धरती के तप से सागर उठि धावे

बूँद बूँद बनि के बरसि जाला बदरा !

 

तनिकी भर तेल से धधाइ जरे बाती

छन भर में माँग भरे रात अहिबाती

बिहँसि उठे भीतर के रूप-रंग चेहरा !

 

जिनिगी के साध पले मन में हर ढंग के

काँटन के बीच जइसे फूल कइ रंग के

जे पावल गंध भइल गरवा के गजरा !

चिटुकी भर नेह से सँवरि जाला जियरा !!  ”

 

उहें डॉ अशोक द्विवेदी क प्रेम के देखे आ देखावे के अलगे नजर बा। उहाँ के पाती के प्रेम कविता विशेषांक में आपन बात बड़ बेबाक ढंग से रखले बानी। उहाँ के एगो रचना देखीं-

“पिहिके फेरू पपिहरा

चीन्हल-जानल पीर लगे

तहरा सुधि में छटपटात मन

आज अधीर लगे।

जिभिया चाटि दुलारत बछरू

गइया जब हुलसे

नेह के आँच बरफ पघिले

बन परबत नदी हँसे

छछनल जिया जंतु जुड़वावत

नदिया-नीर लगे।”

भोजपुरी साहित्य में प्रेम पर प्रबंध काव्य तक लिखाइल बा। मार्कन्डेय शारदेय के ‘दीपशलभ’ अइसने एगो एकांगी प्रेम पर आधारित प्रबंध काव्य बाटे। ई काम भोजपुरी में पहिलहुं भइल बा। बाकि एहर ढेर दिन के बाद भोजपुरी में ऐतिहासिक प्रसंग पर  कवनो प्रबंध काव्य आइल बा,जवने के भाषा संस्कृतनिष्ठ बा आ उ अपने में भारतीय सांस्कृतिक अवधारणा के नीमन से समेटले बा। ई प्रबंध काव्य कुल सात खंड में बा।नायक सुरनाथ शर्मा आ नायिका मेहरुन्निसा के चरित्र के भारतीयता के चासनी में सउन के परोसल एह प्रबंध काब्य के रचनाकार बाड़ें आदरणीय मार्कन्डेय शारदेय जी। रचनाकार के रूप में आदरणीय शारदेय जी एह प्रबंध काव्य के नायक सुरनाथ शर्मा आ नायिका मेहरुन्निसा के संगे भरपूर न्याय कइले बाड़ें। काव्य धारा बहुते सरसता के संगे बहल बा। एह प्रबंध काव्य के नायक सुरनाथ शर्मा नायिका  मेहरुन्निसा से एकांगी प्रेम करे लागत बाड़ें । उ अपना प्रेम में सफल नइखे हो पावत बाकि आजु के समय लेखा उ नायिका के कवनो पीड़ा नइखे पहुंचावत आ ना त उनुका कवनो कृत्य से समाज में कवनो बाउर सनेस जाता। नायक अंतिम में पश्चाताप के आगि में जरत आध्यात्म के ओर चल देत तारें, मने उ अपना  प्रेम के त्याग करत एगो आदर्श के स्थापित करे के प्रयास करत बाड़ें,जवन एह भारतीय संस्कृति के सारभौमिक साँच बा।

        भोजपुरिया समाज अपने रीति-रेवाजन के जी भर जियेला,बरतेला आ ओहमे सउनाइल रहेला। जब भोजपुरिया समाज में मनोरंजन के कवनो साधन ना रहे त लइकन-बचवन के बझावे-मनावे खाति जवन सभे ले कारगर उपाय रहल, उ कहनी सुनल-सुनावल रहल।  ओह चिजुइयन के जोगावे, सइहार के राखे आ परोसे के जिमवारी दादी-नानी के पिटारा के रहे।मने कहनी के बात होखे त दादी-नानी के इयाद टटका हो जात रहे। कहनी सुने-सुनावे के एगो खास रवायत रहे जेहमें कहवइया सुनवइयन से हुंकारी परवावत रहे। भोजपुरी साहित्य जगत एह हूब के खूब महसूसबों करेले आ अपने ओह सुघरई के लोगन के सोझा परोसबों करेले। ‘भोजपुरी जनपद’ – एगो भोजपुरी के पाक्षिक पत्रिका 1969 में प्रेमकथा विशेषांक राधा मोहन राधेश जी के सम्पादन में लेके आइल रहे। जवना में प्रेम से सराबोर 12 गो कहानियन के रसधार बहल रहे। एकरा इतर भोजपुरी साहित्य के पत्रिका ‘पाती’ प्रेम कथा विशेषांक निकाल चुकल बा। हाल-फिलहाल में परेम आ सद्भाव पर कई गो लेखक आ लेखिका लोगन के किताबों आइल बा। जवना में डॉ सुमन सिंह के ‘हूक-हुंकारी’ , डॉ  प्रेमशीला शुक्ल के ‘जाये के बेरिया’ , डॉ रजनी रंजन के ‘अकथ प्रेम’ आ मधुबाला सिन्हा के ‘अंखुआइल शब्द’ पढे आ बूझे जोग बा।

गंगा प्रसाद ‘अरुण’ के “प्रेम न बाड़ी उपजै” जइसन किताबि जवन प्रेम पत्र के संग्रह बा,रचाइल आ भोजपुरी साहित्य जगत के परोसाइल बा।

भोजपुरी साहित्य में प्रेम आ सद्भाव के बाति एह भाषा में लिखाइल उपन्यासों में उपन्याकर लोग खूब दिल खोल के आपन विषय बनवले बा। उदाहरन खातिर कुछेक के बात राखल जरूरी बुझाता। भोजपुरी के पहिलका उपन्यासकार पं रामनाथ पाण्डेय के उपन्यास ‘बिंदिया’ पूरे का पूरा सामाजिक सद्भाव आ नारी विमर्श के बात उठवले बा। ई उपन्यास 1956 में प्रकाशित भइल रहे, तब कउनों अउर साहित्य में नारी विमर्श के बाति सुगबुगातो ना रहे। प्रेम के विषय बना के लिखाइल पाण्डेय कपिल के उपन्यास ‘फूलसुंघी’ आ पं रामनाथ पाण्डेय के उपन्यास  ‘महेंदर मिसिर’ सराहे जोग उपन्यास बाड़ें सन। उहें डॉ अशोक द्विवेदी के उपन्यास ‘बनचरी’ भावपूर्ण प्रेम कथा के बहाने मानव मूल्य आ सामाजिक सद्भाव के जोगावत सोझा आइल बा। डॉ अशोक लव के एगो चर्चित उपन्यास ‘शिखरों से आगे’ के भोजपुरी अनूदित संस्करण ‘शिखरन से आगे’ जवना के अनूदित केशव मोहन पाण्डेय जी कइले बानी, एहु  उपन्यास में आजु के जुग के  प्रेम के अपना रंग-ढंग से परोसल गइल बा, जवन पढ़े जोग बा।

भोजपुरी साहित्य के लमहर कैनवास से प्रेम आ सद्भाव पर आधारित कुछ रंग बटोरे के परयास भर हमरा से हो पवले बा। सगरे के बटोर के परोसे खातिर लमहर समय आ गम्हीराह शोध के जरूरत बाटे, जवन अतना हाली हो पावल संभव नइखे।तबो जवन बटोराइल बा उहो कम नइखे। एकरा के भोजपुरी साहित्य में प्रेम आ सद्भाव के बानगी त मानले जा सकेला।

 

  • जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

संपादक

भोजपुरी साहित्य सरिता

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