एगो चिरई गोहार लगावत रहत रहे

हमनी अइसन नगर में
बसे खातिर रहली जा
सरापित
जेहवाँ सलीका के ना
बाँचल रहे
केवनो पड़ोस
सिरमौर बनि के रहे
जिनगी में
तटस्थता
बिना केवनो काम के
प्रतिरोध एह घरी
खलिसा एगो
रूप मानल जात रहे
मूर्खता के
जेकरा किछुओ भेंटा जात रहे
ऊहे मानल जात रहे
रसूख़दार
पद पैरवी पुरस्कारे से
आँकल जात रहे
केवनो आदमी के
सरकारी संस्थानी
‘साहित्यभूषण’ के
उपाधिए
पहचान बनि गइल रहे
बड़हन साहित्यकार के
जे एक्को दिन क्लास में जाइ के
ना पढ़ावत रहे
ऊहे पावत रहे
शिक्षक शिरोमणि के
सम्मान
चरने चाँपल मानल जात रहे
केहू के सबसे बड़
काबिलियत
प्रतिभा पानी भरत रही स
नवहा कुबेरन के जाके
घरे-घरे
होइ के मज़बूर
डर समाइल रहत रहे
पुरान पंचनो के
नेयाव में
गेहुअन साँप बनि के
ईमान के बात रहे
बहुत दूर के कौड़ी
न्यायाधीशो
घबराइल रहत रहे लोग
फ़ैसला लिखे के पहिले
हिले लागत रहे
ओह लोग के क़लम के नीब
थरथराए लागत रहे
ओह लोग के मेज़
फ़ाइल हवा में उड़ि के
हो जात रही स
ग़ायब
रात-दिन एगो चिरई
लगावत रहत रहे
गोहार …… “खूँटा में मोर दाल बा!”
बाकी बढ़ई से ले के राजा तक
सभे चुप्पी मारि के
बइठल रहत रहे
ढेरखा ले पत्रकारो
भागत रहलन स
सच्चाई से
कोसहन दूर
घटना के असली तथ्यन से
केवनो मतलब ना रहि गइल रहे
ओहनी के
कतो केवनो सत्य के पच्छ में
ना देत रहे सुनाई
जय-जयकार
ऊ त कब के
चलि गइल रहे
खटिया उड़ास के कोमा में
केवनो हेठार के गाँव में
जहवाँ अब्बो सड़क
एगो सपना लेखा रहे
शहर के चौक बाज़ार में
खौफ़ त देखs
डोमा जी उस्ताद के
गजानन माधव मुक्तिबोध के कविता
‘अँधेरे में’ से निकलि के बहरी
दिने-दहाड़े मचावत रहे
गुंडई
ऊ एगो क़ायर समय रहे
जेवना घरी
केवनो गुंडा के गुंडा कहे से
बँचत रहे
शरीफ़ लोग
आ नवका रिवाज़ बनल जात रहे
केवनो ज्ञानिए-गुनी जन के
गुंडा कहे के
झूठ के डंका बाजत रहे
देश-दुनिया में
ओकरे तरफ़दारी में
निकलत रहे बैंडपार्टी
बाजत रहे शहनाई
जिनगी में यारी ना खलिसा
बाँचि गइल रहे दुश्मनी
भरोसा आ उम्मीद जइसन
सुन्नर शब्द बाँचल रहि गइल रहन स
खलिसा कवियन के
कविते में
आदमिए आदमी के
काट खाए खातिर
होखे लागत रहे
बेताब
दाग़दार होखे से
ना डरत रहे केहू
अब ईहे सब तs
अलंकरन बाँचल रहे
सभ्य कहाए वाला
लोगन खातिर
एह नयकी सभ्यता में !
  • चंद्रेश्वर

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