मय सिवान के चोली-चूनर धानी लेके

ए. बी.हॉस्टल, कमच्छा, वाराणसी में रहत समय अकसरहां सांझ के कवनो ना कवनो टॉपिक प चरचा छिड़िए जात रहे। सारंग भाई (स्व. सुरेंद्र कुमार सारंग) एह चरचा के सूत्रधार होत रहलें। एही तरे एक दिन चरचा होये लागल भोजपुरी के कवि जगदीश पंथी के एगो गीत प। ऊ गीत रहे- ‘रुनुक झुनुक बाजे पायल तोहरे पंउवा/ बड़ा नीक लागे ननद तोहरे गंउवा।’ सारंग भाई ऊ गीत सुनवलें आ ओकर तारीफ कइलें। सारंग खुद बढ़िया गीत लिखत रहलें। जगदीश पंथी के नांव पहिल बेर हम ओहिजे सुनलें रहीं। गीत में गांव के लोग आ प्रकृति के सहज निष्कलुष जीवन के वर्णन बा।
बाद में, जगदीश पंथी के एगो गीत ‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’ के एगो अंक में पढ़े के मिलल, पुरान अंक देखत समय। इयाद नइखे आवत कि ऊ कवन अंक रहे। ऊ गीत बहुत नीक लागल। गीत एह तरे शुरू होत बा –
” गंउवा हमरे बादर अइले पानी लेके
मय सिवान के चोली-चूनर धानी लेके।”
बदरा से बरिसे के निहोरा त खूब देखे सुने के मिलेला, बदरा के अइला के खबर सगरो सुनावे के बात एह में बा, आ इहे खास बा। किसान के हथजोरी सुन बादर आ गइल, आके बरस गइल। खेत मेड़, परती धरती सब हरियर हो उठल। बदरा जइसे कि बहरवांसू होखे, आ आइल त ‘चोली-चूनर धानी’ लेके आइल। बादर धरती के पुकार सुन लेले बा।
बादर आइल, जीवन में हरियरी के पुरहर संभावना लेके। बादर के आवते किसान मनई के मन जाग उठेला। सक्रिय हो जालें। केहू हर फार ठीक करत बा, केहू खेत में सालभर बटोराइल घूर डाले के उतजोग करत बा।
केहू बइठल नइखे। बादर अतना तत्परता लेके आवत बा। ई बात एह गीत में देखे के मिलत बा।
अब ई साइते कतो देखे के मिली। झारखंड के धरती प अबहियो ई तत्परता देखे के मिल जात बा। नइखे कहल जा सकत कि कब तक देखे के मिली। काहे कि सब कुछ बदल गइल बा। बूनी पड़ते धान के बीया डाले के तत्परता, रहर, मंडुआ, मूंग, भिरंगी बोए के शुरू हो जात रहे। अब त बीया राखे के सिस्टम खतम बा, हर-बैल गायब बा। बीया कीन के ले आवल जात बा। बेहिसाब महंगा। बीया अइसन कि दुबारा नइखे बोअल जा सकत। घूर के त बाते खतम बा। एकरे जगह प खूब महंगा रासायनिक खाद अंधाधुंध डला रहल बा। पेस्टीसाइड के बेहिसाब इस्तेमाल से पर्यावरण प खतरा बढ़त जा रहल बा।
ई गीत हमनी के खेती किसानी के निकट अतीत के प्रकाश में ले आ रहल बा। गांव,बादर आ सिवान के आपसी रिश्ता के व्याख्या करत बा।
  • डॉ बलभद्र
गिरीडीह कालेज,गिरीडीह

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