धनवा-मुलुक जनि बिआह हो रामा

भोजपुरी कविता में महिला कवि लोग के उपस्थिति आ ओह लोग के कविता पर विचार, आज के तारीख में एगो गंभीर आ चुनौतीपूर्ण काम बा। एह पर अब टाल-मटोल वाला रवैया ठीक ना मानल जाई। भोजपुरी के लोकगीत वाला पक्ष हमरा नजर में जरूर बा। लोकगीत के अधिकांश महिला लोग के रचना ह, भले केहू के नांव ओह में होखे भा ना होखे। एहिजा लोकगीतन के चरचा हमार मकसद नइखे। भोजपुरी कविता के जवन उपलब्ध भा अनुपलब्ध बिखरल इतिहास बा, ओह के गहन-गंभीर अध्ययन के जरिए ही एह विषय प विचार संभव बा।

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से छपल दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भोजपुरी के कवि और काव्य’ के एह लिहाजे जब पलटलीं त एह में जमा-जमा पांच गो महिला कवि के नांव हम देख पवलीं। कुल 194 – 195 गो कवियन में महिला कवि बस पांच गो। पहिल कवि सुवचन दासी (पृष्ठ116) बाड़ी। एकरा बाद ‘सुंदर’ (पृष्ठ 152)। दुर्गा बाबू सुंदर के नांव के संगे कोष्ठक में ‘वेश्या’ लिखले बाड़न आ उनकर खूब लोकप्रिय कजरी ‘नागर नइया जाला काला पनिया ए हरी ‘ पूरा के पूरा उद्धृत कइले बाड़न। ई बहुत प्रसिद्ध कजरी ह। एकरे बाद राजकुमारी सखी (पृष्ठ 215 ), विमला देवी रमा (पृष्ठ 242 ) आ विंध्यवासिनी देवी ( पृष्ठ 246 ) के नांव बा। सुवचन दासी आ सुंदर के उल्लेख ‘चौदहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी’ वाला कालखंड में बा, जबकि बाकी तीन लोग के जिक्र ‘बीसवीं सदी और आधुनिक काल’ वाला कालखंड में। सुंदर के नांव के संगे कोष्ठके में सही, जवन वेश्या लिखल गइल बा, ऊ ठीक नइखे। एह के ख्याल करत ‘समकालीन भोजपुरी साहित्य’ के कविता अंक में (अंक -16, 2001) उनकर ‘सुंदर’ नांव ही लिखल गइल बा। दुर्गाशंकर जी वाली एह किताब के पहिलका संस्करण 1958 आ दुसरका 2001 में छपल बा।

‘समकालीन भोजपुरी साहित्य’ के कविता अंक में कुल 178 कवियन में महज छव गो महिला कवि के कविता बा। ऊ नांव ई ह – सुवचन दासी, राधिका देवी श्रीवास्तव, विंध्यवासिनी देवी, उषा वर्मा, सविता सौरभ आ सुभद्रा वीरेंद्र। ई सचमुच भोजपुरी साहित्य प विचार करेवाला लोग खातिर चिंता आ चिंतन के विषय बा। सोचे के बात बा कि का सचमुच इहे कुछ नांव बा महिला कवि लोग में? आ कि हो सकेला कि अउर लोग होई जे कविता-गीत लिखत होई, जेकर नांव प्रकाश में आवे से रह गइल होई। हमरा समझ से बेशक कुछ अउर नांव बा। एह नयकी पीढ़ी में जइसे कि

दीप्ति, संध्या सिन्हा,गरिमा बंधु के नांव शामिल बा। ‘सूझ बूझ’ (संपादक : कृपाशंकर प्रसाद) के तीसरा अंक में गोरखपुर के अंजू शर्मा के गीत बा। ‘पाती’ में ऋचा के कविता देखे के मिल जाई। दीप्ति आ संध्या सिन्हा के त संग्रहो छप चुकल बा। दीप्ति के संग्रह ह ‘मन’ आ संध्या सिन्हा के ‘दोहमच’। बेशक कुछ अउर नांव बा।

ऋता शुक्ल, शारदा पांडे,उमा वर्मा, कुमारी प्रतिभा, सरिता शिवम, गजल झा, गीता श्रीवास्तव के नांव ‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’ के संदर्भ विशेषांक में बा।

पहिले त भोजपुरी कविता में महिला कवि लोग के उपस्थिति प बात जरूरी बा। तवना के साथे भा बाद में, कविता के विषय, विचार आ कलात्मक पहलू प भी बात होय के चाहीं। ई काम बहुते जरूरी बा।

एह बात के साथे एहिजा राजकुमारी सखी के एगो गीत साझा कइल चाहत बानी। ई गीत ‘भोजपुरी के कवि और काव्य’ में संकलित बा। एही ग्रंथ में इनका बारे में बतावल गइल बा कि ऊ शाहाबाद (पुराना जिला) के रही। उनकर समय अंदाजन बीसवीं सदी के अधपहिला (पूर्वार्द्ध) रहे।

एह गीत में स्त्री जीवन के एगो खास स्वर सुनाई देता। एगो बेटी अपना बाप से धान के देस में बियाह ना करे के निहोरा करत बिया। धान के देस में मेहरारुन के जिम्मे काम के बेहिसाब भीर होला। धान फुलावे, सुखावे से लेके कूटे आ फंटके तक के भीर। खायक पानी (किचेन के काम) के काम त रोज रहबे करेला। ताऊपर धान के समय ऊपर से भीर अउर बढ़ जाला। जाने के बात बा कि धान के पानी में भिंजावल, उसिनल, भरकावल, फेर सुखावल, फेर बटोरल, ढेंका में कूटल-छांटल, फटकल आसान ना होला। सुखावे में कम झंझट ना रहत रहे। बेर-बेर हाथ से चलावे परत रहे। चलावत समय धान के नोक चुभियो जाला। अतना कइला के बादो रोज ठोनहच के अगरासन। ई कुलि बात एह गीत में बहुते मार्मिक अंदाज में प्रस्तुत बा:

“गोड़ तोही लागिले बाबा हो बढ़इता से आहो रामा

धनवा-मुलुक जनि बियाह हो रामा।

सासु मोरा मरिहें गोतिनि गरिअइहें से आहो रामा

लहुरि ननदिया ताना मरिहें हो रामा।

राति फुलइहें रामा दिन उसिनइहें से आहो रामा

धनवा चलावत घामे तलफबि हो रामा।

चार महिना बाबा एहि तरे बितिहें से आहो रामा

खाये के माड़गिल भतवा हो रामा।

राजकुमारी सखी कहि समझावे आहो रामा

बिना सहुरे सब दुखवा हो रामा।”

एह गीत प विचार कइल जाए त पता चली कि धान के मुलुक (क्षेत्र) में जब गांवागाईं ढेंकी से धान कुटात रहे, तब का हाल होत रहे मेहरारुन के।

धान सुखवे आ कूटे के सज्जी काम मेहरारुन के जिम्मे होत रहे। आ इहो बेबुझइले ना रही कि खानपान के का तौर-तरीका रहे। कवना तरीका के जीवन रहे। धान कूटत सुखावत चार महीना बीत जात रहे, आ ओह टाइम मड़गिला भात ही दूनो जून के मुख्य भोजन होत रहे। जमींदार लोग के छोड़ देल जाए त देखे के मिलत रहे कि मिडिल क्लास के किसान के घर के इहे दशा रहे। गरीब-गुरबा लोग के हालत त बहुते खराब रहे। जइसे खेती सरग आसरे रहे असहीं गरीब लोग, मेहनत करे वाला, मालिक आसरे। रोज काटs, रोज कूटs तब जाके खा। एह गीत में धनहर इलाका के मध्यवर्गीय परिवेश के निकट अतीत के एगो खास पक्ष दिख जात बा।

  • डॉ बलभद्र

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