गीत

मन सून-सून मनसून बिना।
अबले ताले कमल खिलल ना
तन लागेला खून बिना।
एक तऽ अदिमी अइसे जरना
हिया भरल अंगार
ऊपर से सूरुज दहकावे
हो के माथ सवार
भाव बिना सूनी कविताई
खत सूना मजमून बिना।
नदी मात के छाती सूखल
भूखे शिशु छपटाय
पेड़ लता के बाँचल ठठरी
कब जाने भहराय
जोजन भर उड़ि गइली चिरई
भहरइली जलबून बिना।
बेना लिहले बइठल के ना?
हँउकत हाथ पिराय
तबहूँ टपटप चुवे पसेना
गगरी भरि-भरि जाय
बुढ़िया दादी अटपट बोले
तन अँइठाइल नून बिना।
उमख उड़ावे ईत्तर जइसन
नींनि आँखि से दूर
पंखा कूलर चलते-चलते
भइल थाकि के चूर
का ‘संगीत’ मनोरम लागी
तनिको कहीं सकून बिना।
  • सुभाष पाण्डेय
गोपाल गंज

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