भउजी देह अंइठली अउरी फागुन आय गइल

फगुआ! आहा! चांद-तारा से सजल बिसुध रात छुई-मुई लेखां सिहरता. सोनहुला भोर मुसुकाता. प्रकृति चिरइन के बोली बोलऽतिया. कोयल कुहुक के विरहिनी के जिया में आग लगावऽतिया. खेत में लदरल जौ-गेहूं के बाल बनिहारिन के गाल चूमऽता. ठूंठो में कली फूटऽता. पेड़ पीयर पतई छोड़ हरियर चोली पहिर लेले बा. आम के मोजर भंवरन के पास बोलावऽता. कटहर टहनी प लटक गइल बा. मन महुआ के पेड़ आ तन पलाश के फूल बन गइल बा. हमरा साथे-साथ भउजी के छोटकी सिस्टर भी बउरा गइल बाड़ी. माधो काका भांग पीके अल्ल-बल्ल बोलत बाड़न. ढोलक, झाल-मंजीरा के संगे सिन्हा चाचा के गोल दुआरे-दुआरे फगुआ गावऽता. बड़की भउजी हफ्ता भर पहिलहीं से जहां ना रंगे के ओहू जी रंग देत बाड़ी. माई माथा पऽ अबीर लगा के मुंह में गड़ी-छुहाड़ा डाल देत बिया आ जुम्मन चाचा सीना से लगा के होली के शुभकामना देत बाड़न.

तले भक्क से आँख खुल जाता. सपना टूट जाता, गाँव वाली होली के सपना.

 

हम दिल्ली में बानी आ हमरा आँखी का सोझा पसरल बा भोजपुरी के पचासन कवि के फगुआइल रचना. ओह में फागुन के किसिम किसिम के सीन लउकता.

 

हास्य-व्यंग्य के सिद्धहस्त रचनाकार डॉ. शंकरमुनि राय “गड़बड़” जी कहsतानी –

 

चलल बसंती फेंक दुपट्टा अमवां बउराइल

भउजी देह अंइठली भइया, फागुन आय गइल

 

प्रीत के पाहुन भंवरा बन करके लगले मंड़राये

याद परल बीतल जिनिगी, सासो लगली मुसुकाये

सरहज नैन चलवली, संउसे देह छुवाय गइल

भउजी देह अंइठली भइया, फागुन आय गइल

 

तले भक्क से हमरा आपन साली ईयाद पड़ गइली. हमार एगो फागुनी दोहा बा –

 

साली मोर बनारसी, होठे लाली पान

फागुन में अइसन लगे जस बदरी में चान

बनारस (चंदौली) ससुराल ह हमार. बनारस के बात चलल त बनारसे के एगो कवयित्री हईं सरोज त्यागी. जनकवि कैलाश गौतम जी के बेटी हईं. उनकर फगुआइल कविता हव कि –

 

सनन सनन बोलै पुरवाई, हँस-हँस खीचै अंचरा

माथ टिकुलिया, गाल पे लाली आंखिन सोहै कजरा

जे जे देखलस रूप लोभावन ऊहे घायल हौ

गावा फाग जोगीड़ा गावा फागुन आयल हौ  

 

बनारसे के एगो कवयित्री हईं मंजरी पांडेय. राष्ट्रपति से सम्मानित हईं. फाग के बारे में कहत हईं कि –

 

मद से मातलि ह एकर नजरिया

बचै पावै नाही एको गुजरिया

अँचरा खींचे रस भींजे मञ्जरी के

मन लुभावेला  बसंत कंत ई बटोहिया।

रहि रहि मोरि रहिया रोके ई बटोहिया

फूलगेनवा से हैं मारे ई बटोहिया

 

ओही बनारस के लोकप्रिय कवयित्री हईं डॉ. सविता सौरभ. सविता जी के मनवा में साध-सपना के गंगा फफाइल बाड़ी-

 

फगुनी बहेले बेयरिया हो,

           पिया ला द चुनरिया।

 

होरी के दिनवा नगीचे बा आइल

मनवा में सधिया के गंगा फफाइल

जयपुर के चाहीं लहरिया हो

            पिया ला द चुनरिया

 

 

छपरा के कवि प्रणव पराग मरद होइयो के नारिये मन के साध कहत बानी-

 

चढ़ते बसंत पिया बहरा से अइहs

फगुआ में ललकी चुनरिया ले अइहs

फेरु पीरीतिया फुलाई फगुनवा में

हम डालब रंगवा गुलाल तू लगइहs

सजना फगुनवा में जनि बिसरइहs…

 

देवरिया के कवयित्री आ हास्य कवि बादशाह प्रेमी के पत्नी माधुरी मधु के सुनीं –

 

फुलवा डाले डाल फुलाइल

भंवरा झूमि झूमि मंडराइल

पपिहा पी-पी करेला, पुकार सखिया

अबही अइले न सजना हमार सखिया   

 

हास्य कवि बादशाह प्रेमी अपना हिसाब से फागुन के परिभाषित करत बानी –

 

बिरहिन कवनो अँचरा खोले

जब मुंडेर पर कउवा बोले

जब परदेशी लवटे घरे,

जब देखनहरू खाहुन करें

जब धुरा में आग धरेला

गरमी जब छितिराइल बा

तब जनिहऽ भउजी मनमौजी

फागुन के दिन आइल बा

    

मुजफ्फरपुर के कवि आ फिल्म गीतकार  कुमार विरल जी प्रकृति आ फगुआ के समीकरण बतावत बानी-

 

सोना से सुनर देहिया धरती दुलारी।

सातो रंग घोरी केहू मारे पिचकारी।।

 

गेहुआँ गुमाने झूमे गदरल जवानी,

तिसिया के झुमका झुलावत बारी रानी,

सरसों के पियरी पहिर लेली सारी।।

 

चंपारण के कवि अखिलेश्वर मिश्रा फगुआ के मन से कनेक्शन मिलावत बानी-

 

ई मौसम ह प्रेम प्रीत के, ई मौसम ह राग गीत के

राग बसंती गूँज रहल बा, लेके अब उल्लास

प्रिये देखs आइल मधुमास…

 

युवा कवि संतोष भोजपुरिया दिल्ली-मुंबई के प्रवासियन के आवाज बनी के बोल रहल बाड़न –

 

फगुआ के लुटे के लहरवा हो, चलs यूपी बिहरवा

यूपी बिहरवा हो, यूपी बिहरवा

छुट्टी लेके चलल जाव घरवा हो

चलs यूपी बिहरवा

 

गाज़ियाबाद के कवि जेपी द्विवेदी बसंत के दुलहा बतावत कहत बानी –

 

मन के तार से छुवइलें, बसंत दुलहा

सखि मोरे दुअरे अइलें, बसंत दुलहा

 

वरिष्ठ गीतकार संगीत सुभाष बसंती आगमन के लक्षण बतावत बानी –

 

पसरल सरेहे हरियरी, बसंती आगम जनाता

गोरी बेसाहेली चुनरी, बसंती आगम जनाता

 

मोंजरि का अँचरे लुकाइल टिकोरा

तितली कुलाँचेले भँवरा का जोरा

मांगेली नगवाली मुनरी, बसंती आगम जनाता

 

वरिष्ठ, सशक्त अउर सुकंठ कवि भालचन्द त्रिपाठी के अद्भुत गीत बा –

 

सुधि के दियना जरा गइली फागुन में

पीर बाढ़लि डेरा गइली फागुन में

 

हमरे प हक सबकै जिउ सुनिके सुलगे

देवर के अलगे त बाबा के अलगे

हम त अइसे ओरा गइली फागुन में

 

चाहे एगो अउर गीत …

 

अंग अंग मोर अंगराइल हो

           जनो फागुन आइल

कंगना न मानेला खन खन खनके

असरा फुलाए लगल फिर मन के

भउजी क टिकुली हेराइल हो

                जनो फागुन आइल

 

बनारस में झगरू भईया के नाम से लोकप्रिय कवि लालजी यादव के कविता सुनीं –

 

आम में बउर टिकोरा लगी

    भलहीं महुआ महुआरी चुवाई।

पीपर ताली बजाई भले

    भलहीं बरगद ई बरोह झुलाई।

नंद के नंदन हे यदुनंदन

    चंदन भी त सुगंध लुटाई।।

जाना बसंत में अइबा न तूँ

    त परास हिये मोरे आगि लगाई।।

 

रेनुकूट, सोनभद्र के सुकंठ गीतकार मनमोहन मिश्र जी के चर्चित गीत बा –

 

नाहीं अइल लउटि भवनवा, फगुनवा आइल बा दुअरे

सून बाटे मन क अंगनवा,फगुनवा आइल बा दुअरे

जब जब बहेले इ पछुआ बयरिया,

कंगना की जइसन बाजेले रहरिया,

वीनवा स झनकेला मनवा,फगुनवा आइल बा दुअरे

 

गोपालगंज के कवि संजय मिश्र संजय भी विरहिनी के उपटल दरदे के बखान करत बानी –

 

बरसे मदन रस खेत खरिहान में,

झूमेला गांव सजी होरी के तान में,

बूढ बरगदवो के मन बउराइल

घरे आजा सजना कि फागुन आइल

 

हिंदी-भोजपुरी के वरिष्ठ गीतकार प्राचार्य सुभाष चंद्र यादव जी होली में का आलम होला अपना गीत में बतावत बानी –

 

माने एकहू ना बतिया होली में रसिया

कहे दिनवे के रतिया होली में रसिया

कबो चान कहे हमके चकोरी कहेला,

कबो कहे दिलजानी कबो गोरी कहेला।

कहे पनवां के पतिया होली में रसिया।।

माने एकहू ना …

 

युवा ग़ज़लकार मिथिलेश गहमरी के ‘’ अजब भइया होली गजब भइया होली’’ त साँचो अजबे-गजब बा. लोक मन के बात खोल के आ खुल के कहाइल बा.

 

लेकिन आज के समाज के कड़वी सच्चाई त चंपारण के चर्चित कवि गुलरेज़ शहजाद जी कहत बानी अपना कविता ‘’ घोघो रानी कतना पानी’’ में ..

आईं चलीं ढोल बजाईं / रास रचाईं / नाचीं गाईं / बाकिर कइसे …

 

मनवा में / उदबेग मचल बा / चकराता बुद्धि कि कइसे / फगुआ कटी

 

राग-रंग के खेल हेराइल / हो-हल्ला बा जात धरम के / सगरो लउके / राजनीति के खेल तमासा

/ मन के बा उत्साह कि जइसे / फूटल होखे गोंट बतासा

 

भोजपुरी के पहिला प्रोफ़ेसर डॉ. जयकांत सिंह ‘जय’ भी कुछ एही तरफ इशारा कर रहल बानी –

 

कइसे फाग गवाई, बाजी ढ़ोल-मजीरा गाँव में

भाई भाई के दुश्मन हो गइल, अबकी एह चुनाव में

 

मेल-जोल के परब ह होली, भेद भुलावल जाला,

बाकिर अब एकरे माथे हर बैर सधावल जाला।

केहू पर बिस्वास न ठहरे, जिहीं-मरीं अलगाव में

कइसे फाग गवाई, बाजी ढ़ोल-मजीरा गाँव में

 

पच्चीस साल पहिले हमहूँ एगो कविता लिखले रहनी जवन बाद में हमरा किताब चलनी में पानी में संकलित भइल-

 

रंगवा के एक दिन, खुनवा के सब दिन

होली होला चारदीवारी में

आ भाई के भाई भोंकेला खंजर

सोचीं ई कवना लाचारी में

 

त सवाल आ समस्या त बड़ले बा. अब जबाब भा समाधान केहू चाँद पर से आ के त दी ना. हमनिए के सब ठीक करे के बा. एह से हम इहे कहब कि होली होखे बाकिर खून के ना, रंग के.

रूस आ यूक्रेन के बीच जवन खून के होली होता उ बंद होखे के चाहीं.  

 

अहंकार, ऊंच-नीच, जाति-पात, बड़का-छोटका के देवाल ढाह के, सियासत के खोल से बहरी निकल के, झूठो के मर्यादा के बान्ह तूर के, मस्ती में डूब के, मुक्त कंठ से, दमदार स्वर में…आईं एक साथे गावल जाये – जोगीरा सारा रा रा रा रा रा. आईं होलिका जरावल जाय. ओह में गोंइठा, चइली, चिपरी, सिक्का, हरदी, नरियर, गुड़ डालीं  भा मत डालीं, आपन नफरत, इरिखा, कलंक, डर, डाह, हम-हमिता जरूर डालीं. नफरत के होलिका दहन होखे तबे सच्चा होली मनी.

 

अंत में अपना एगो दोहा से बात खतम करत बानी –

 

महुए पर उतरल सदा चाहे आदि या अंत

जिनिगी के बागान में उतरे कबो वसंत

 

  • मनोज भाउक

लेखक,समीक्षक,गजलकार

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