टीस

“महतारी की कोखि से का जाने का भागि ले के जनमल रहनीं। नइहर में नाहीं ढेर त कुच्छु कम्मों त ना रहे। हमार बाबूजी कवनों चीज के कमी ना होखे देत रहलें। बड़ी देखि सुनि के भरल-पुरल घर में बिअहले रहलें कि हमार बबुनिया सुख से रही, बाकिर भागि के लेखा कि छौ भाइन में बर-बँटवारा के बाद जवन खेती-पाती मिलल ओसे गुजर-बसर भर हो जाउ, ऊहे ढेर!” बुधिया खेते की मेंड़े पर बइठि के घास छोलत मनेमन अपनी भागि के कोसत रहे।
“अरी बुधिया!”
सुनि के हाथ रुकि गइल बुधिया के। घूमि के देखलस त सरकारी स्कूल के मैडम जी रहली। बुधिया के हाथ खुरपी छोड़ि के अभिवादन में जुड़ि गइल। आजु उनके देखि के ओकर आँखि चकचोंहिया गइल रहे।
रोजे छुट्टी के बाद एही ओर से मैडम जी अपनी गाँवे जाली आ कब्बो कब्बो दूनू लोग से भेंट हो जाला। तनी बोल-बतिया के ऊ आगे बढ़ि जाली आ उनसे आपन कहि सुनि के बुधियो के मन हल्लुक हो जाला। आजुओ ऊहे भइल। स्कूल से लौटत बेरिया ऊ बिधिया से भेंटा गइली। बाकिर बुधिया देखत रहे कि मैडम जी रोज की तरे आजु कुम्हिलायिल ना रहली। आजु त उनकर मुखमण्डल अँढ़हुल जइसन फुलायिल रहे। साड़ियो टनटन रहे रोज की तरे लुजुर-पुजुर ना रहे। मूड़ी के बार एकदम करिया। लिलारे पर साड़िये के रंग के टिकुली आ ओठवा तनी ढेर लाल रहे। कान्हे पर बेग त देखेले ऊ बाकिर आजु उनकी हाथे में किताब-काँपी ना रहे बलुक झोंपा भर रंग-बेरंग के फूल रहे। ईहेकुल देखि के ओकर अँखि चकचोंहिआयिल रहे।
“ई एतना फूल! आजु कुच्छु हउए का?” बुधिया उनके ऊपर से नीचे ले देखि के पूछलस।
“हँ, आजु विद्यालय में अध्यापिका लोग के सम्मान भइल ह।” मैडम जी मुस्किया के कहली।
“का ह आजु?” बुधिया के अचरज कम ना भइल।
“आजु नाहीं, बिहने ह महिला दिवस। बाकिर रविवार छुट्टी के दिन ह एसे आजुए कार्यक्रम भइल ह।”
“अच्छा…!” कहि के ऊ एक टक्क उनहीं की ओर ताकत रहे। मैडम जी के बाति ओकरी समझ के बहरा रहे।
“अब रस्ता छोड़ु त हम जायीं।” ओके एंगा अपनी ओर ताकत देखि के मैडम जी मुस्किया के कहली।
“ई महिला दिवस का होला जी!” आखिर मन के अबूझपन ओकरी ओठे पर आइए गइल।
“महिला दिवस माने मेहरारू लोग के दिन।”
“हे भगवान् जी ! ई मरद मेहरारू के दिन कबसे बँटा गइल हे! ई त हम पहिली बेर सुनतानी।” अचरज से बुधिया के आँखि बड़हन हो गइल रहे।
“क बेर त कहनी हम कि दू अक्षर पढ़ लिहल कर हमसे पर गाय-गोरू, घास-गोबर में अझुराइल रहेले। कइसे जनबे कि महिला दिवस का होला?” मैडम जी तनी खिसिया के कहली।
“आ जाए दीं। का करे के बा पढ़ि के !” कहि के बुधिया अँचरा से मुँह दबा के खिस्स दे हँसि दिहलस।
“भगेलू ब रोज छुट्टी के बाद आ के पढ़ि जाले। ओकरा के पढ़ि के का करेके बा! ऊहो त ईहे सब करेले न! बाकिर अब रुपया पैसा गिनेले। अपनी नाती के किताब अक्षर मिला मिला पढ़ेले। आजु स्कूल में ओकरो सम्मान भइल ह। बाकिर ई सब तोसे कहला से कवनो फायदा नइखे।” अबकी बेर मैडम जी के तियुरी तनी चढ़ि गइल रहे।
एक त महिला दिवस, दुसरे भगेलू ब के पढ़ल सुनि के बुधिया सनाका खा गइल रहे। अकबकाइल मैडमजी के ताकत रहे। ओकरा के एंगा अपनी ओर देखत देखि के मैडम जी के तियुरी ढील भइल। ऊ बूझि गइली कि उनकर बाति बुधिया के पल्ले अबले ना पड़ल रहे।
“देखु, आजू ढेर के मेहरारू लोग अपनी अधिकार खातिर आवाज उठवले रहे। एहिसे आजु महिला दिवस मनावल जाला आ उनके काम खातिर उनके सम्मान कइल जाला। एही से आजु के दिन मेहरारू लोग खातिर बिशेष ह, बूझि कुछ ?” मैडम जी आपन मास्टरी बुधिया की भाषा में ओकरी पर उड़ेल दिहले रहली।
“त का आजु सबे मेहरुन के समान होला ?” बुधिया नासमझी के बोझा तरे दबाइल पूछि लिहलस।
“हँ बुधिया! सब स्त्री लोग के सम्मान के दिन ह आजु।”
“अच्छा…! हमरो जइसन के?” आँखि पसारि के पूछलस बुधिया।
“हँ, काहें ना! तू केहू से कम है का? खेत खरिहान, घर-दुआर केतना काम करेले! आ तोर हाथ के बीनल डलिया, मउनी त केतना सुन्दर होला। मूज रंग के केतना सुन्दर-सुन्दर बेल बूटा, फूल-पत्ती बनावेले ओपर! जानबो करेले कि ई सब के शहर में केतना मोल बा!” मैडम जी अपनी बोली में मिठास घोरले कहली।
जिनगी में पहिली बेर आपन एतना बड़ाई सुनि के बुधिया के साँवर सूरति पर सेनुर जइसन लालिमा पसरि गइल रहे। ओकरा बिसवास ना होत रहे कि ऊ एतना गुनगर हो सकेले। बाकिर मैडम जी कहताड़ी त साँचें होई। अबहिन मन में ख़ुशी बुलबुलाते रहे कि मैडम जी अपनी हाथे में लिहल पुष्पगुच्छ ओकरी ओर बढ़ा दिहली।
“ई का जी! ई त राउर समान ह न !” आपन दूनो हाथ अपनी गाले लगा के दू डेग पाछे हटत बुधिया कहलस।
“ले थाम, ई हमरी ओर से तोर समान नाहीं, सम्मान ह। बुझले ?”  हँसि के मैडम जी गुलदस्ता बुधिया की हाथे पकड़ा दिहली।
खुरपी,हँसुआ,कुदारी जइसन लोहा के खेतिहर औजार थामे वाला हाथ में जइसहीं फूल आइल, बुधिया के बुझाइल कि ओकरी चारू ओर रंग-रंग के फूल फुलाइल बा, आ ऊ तितली जइसन मंडरात बिया। हवा में सुगंध बा आ ओकर देहिं महक उठल बा।
“अब तें बताउ, अपनी मरद से काहें ना कहेले कि कुच्छु काम धाम ऊहो क लिहल करें। हम जब देखेनी तब तेहीं घास काटत देखाले।”
बुधिया मैडम जी के बाति सुनि के एके झटके में खेते की मेड़ पर आ गइल।
“हुंह! ऊ पी के ढिमिलाइल होइहें कहीं। दूगो बैल बाड़ेंसन दुआरे पर, जे ऊहो उनरी भरोसे छोड़ दीं हम त दू जून के रोटियो ना मिली आ भूख पियासि से बैलो मरि जइहेंसन।” मरद के नाव सुनते ओकरी देहिं से महक कहीं ऊड़ि गइल रहे आ सराब बस्साए लागल रहे।
“देखु बुधिया ! पीठ पाछे नाहीं, मरदे के मुँह पर बोलल सीखु। एने ओने घूमल करेलें खेलावन। कहु कि घर के काम में हाथ बटावें।”
“जे घर के कार करिहें त उनकर इज्जति ना घटि जाई ! मरद कहीं घर के कार करेलें !” कहि के बुधिया गुलदस्ता ओही मेड़ पर ध के खुरपी उठा लिहलस आ खच्च खच्च खच्च अपनी मने के सब कोप ओही दूभी पर उतारे लागल। मैडम जी जानि गइली की मरदे की नाव से बुधिया के बिखि चढ़ गइल रहे। ऊ मेड़ से तनी खेते में उतरि के ओकरी पाछे से निकल गइली। समनवे उनके गाँव देखात रहे। आजु बुधिया से बतिअवला में उनके देरी हो गइल रहे।
“काल्हि के दिन तोर ह, जनले। तोके जवन नीक लागे ऊ करिहे।” कहि के मैडम जी आगे बढ़ि गइली।
उनकी गइला के बाद बुधिया सोचे लागलि, “त का हम बिहाने अपनी मन के सब क सकेनी!” ओकरा के बुझाइल कि महिला दिवस दसहरा, दीया-दियारी आ फगुआ जयिसने कवनो तिउहार ह बाकिर अबले त हम ना सुनले रहनी इ तिउहार के बारे में!
“अरे! अब त अब सुनि लिहले न !” जइसे ओकरी भीतर से केहू कहल। बुधिया के मन के रिसी धीरे-धीरे उतरे लागल।
“भागल भूत के लंगोटिए सही। कम से कम जिनगी के एक दिन त अपनी मन मोताबिक जीए खातिर मिलल! एतने ढेर बा।” इहे सोचत ओकर खुरपी तेज हो गइल रहे।

आजु के साँझि कुच्छु अलगे रहे बुधिया के। ओकरा बुझात रहे कि केतना जल्दी आजु के दिन बीते आ बिहान होखे। मन खुश रहे त खेलावन के कोसल-गरिआवल छोड़ि के ऊ आपन मन पसंद गीति गावत छाँटी काटत रहे,
पान खाए सइयाँ हमारो
साँवर सूरतियाँ ओठ लाल लाल
आय-हाय मलमल के कूरता
मलमल की कुरता प छींट लाल लाल…!

गावत गावत ओकरी मन में सावन हरिआ आइल। जा के नादे में हरिअरी मिला दिहलस। भीतर आ के हाथ गोड़ धो के चूल्ही से राखी निकालि के लीपि पोंति के रसोई में जुटि गइल।
बगयिचा से जवन सूखल पतई बीनि के ले आइल रहे ओही से आगी जरा के रसोई बनवलस आ बहरा जा के खेलावन के खाए खातिर कहि अइलस। जल्दी से अंगना में पीढ़ा ध के एक लोटा पानी ध दिहलस। आ रसोई परोसे लागलि। खेलावन बहरा से आ के पीढ़ा पर बइठलें तबले बुधिया परोसल थरिया खेलावन की आगे ध दिहलस।
“इ रोज रोज का घास पात परोस देले रे! हमार पेट त देखिये के भरि गइल। तेहिं खो इ कुल। हमरी गंटई से ना सरकी।“ थरिया में साग रोटी देखि के खेलावन थरिया सरका के ऊठि गइलन।
आ छने भर में बुधिया के ख़ुशी धुआँ की तरे उड़ि गइल। अब त रिसि के मारे ओकरी देहीं आगि लागि गइल।
”अरे त काहें ना जा के तरकारी भाजी ले आवे ला! ‘घर में नाहीं आटा आ अम्मा भुजावे लाटा’ एतना खाए-पिए के सउक बा, त जा के कुच्छु काम-धाम करे के चाहीं नू ! जब दू पइसा हमरी हाथे धरता तब देखवता ई रोआब ! दिना भर एहंर ओहंर घूमि के हमके इ गरमी मति देखावा। खाए पीए आ सुत्ते खातिर हम मेहरारू, ओकरी बाद जिनावरो ले बढ़ि के गति हो जाला।” बुधिया रिसी में आपन खून सुखावत रहे बाकिर आज ओकर दिन निक रहे की एतना सुनले के बादो खेलावन चुपचाप बहरा निकल गइल रहलन।
खेलावन त पहिलहीं अपनी सँघतिया बेचन के साथे पी-खा के आइल रहलन। ऊ त सोचलन कि तनीमनी मुँह जुठिया लेब त बुधिया कुच्छु जानि नाहीं पायी बाकिर कहँवा ऊ मुर्गा की टंगरी आ कहँवा ई साग रोटी! ऊ जा के अपनी खटिया पर पसर के सुति गइलन। बिखिआयिल बुधिया सब खैका बैलन की आगे डारि के लोटाभर पानी गँटई के नीचे उतार लिहलस, आ जा के सुत्ति रहल।

पेड़ पालो पर बयिठल चिरई-चुरगुन आपन पाँखि पसारि-पसारि अँगरियात रहे। घर के पाछे पोखरा में जलमुर्गी अपने राग आलापत रहलीसन। गाँव की गली से ले के खेतन की मेड़ ले पदचाप गूँज उठल रहे। राति अपनी अंतिम पहर में वाचाल भइल रहे। बुधियो उठि के पहिले बैलन लगे धुँआरा कइलस आ झाड़ू बहारू क के नाँद में छाँटी लगा दिहलस। जवन थोर ढेर खेत बचल रहे ओपर एही कुल की भरोसे कुच्छु अनाज हो जात रहे। बैलन के खोलि के नादे पर बान्हि दिहलस बुधिया आ गोबर बटोरि के गोहरउरी में फेंकि के बारी की ओर निकलि गइल।
उजियार होत रहे बाकिर अबहिन ले खेलावन के ओंघी ना खुलल रहे। “ऊठीं न हे!” लवटि के खेलावन के जगावत बुधिया भीतर चलि गइल। राति के सब बाति भुला के आगे बढ़ल ओकर रोज के कार रहे। नहा धो के घर के देबी देवता पुजले के बाद बुधिया हँड़िया पतुकी टोवे लागल। एगो पतुकी में भेली मिल गइल आ दूसरकी में महकुआ चाउर। चउरा के फटकि बीनि के फूले खातिर भें दिहलस बुधिया आ भेली लोढ़ा से कूटि के लोटा की पानी में डाल दिहलस। तबले खेलावानो नहा धो के गमछा पहिनले अँगना में आ गइलन आ रेंगनी से बंडी उतार के पहिने लगलन।
“जा के बजारे से कवनो नीमन तियना तरकारी ले आयीं। आ तनी जल्दी आ जायिब।” बुधिया अपनी अँचरा से खूँट खोल के एगो गुड़मुड़ियाइल पचास रुपया के नोट निकाल के खेलावन की ओर बढ़ा के कहलस।
“आजु केहू आवता का रे ! कि कवनों तीज तियुहार ह!” रुपया लेत पुछ्लन ऊ।
“नाहीं त ! केहू नइखे आवत।”
सुनि के खेलावन सोचत रहलन कि “काल्हि हम खइले बिना सुत्ति गइनी एहिसे आजु आपन गाँठि खोलले बिया।“ ऊ मोछिए में मुस्किअयिलन।
“आजु हम घासि खातिर नाहीं जाएब। रउरे जाए के बा।“ बुधिया मुस्किया के अँचरा खोंसत कहलस।
“हम काहें जाएब घासि खातिर? तें का करबे ?” भृकुटी तना गइल खेलावन के।
“आरे आजु मेहरारू लोग के दिन ह नू ! ऊ का कहाला ! महिला दिवस !” उछाह में ओकरी मुँह से निकलि गइल।
ओकर जीउ हक्क दे हो गइल। फेरु ऊ मन में सोचे लागल कि “अब का करीं! निकलि गइल त निकलि गइल। ए आदमी से कवनो आस त बा ना। कम से कम एही बहाने एक दिन के छुट्टी त मिल जाई। केतना दिन से चोरऊँध एगो पचास के नोट धइले रहनी। ऊहो आजु निकल गइल। पेट ककोरता बाकिर का केरे के बा! अबकी बेर फसल ठीक भइल बा। अँखि बचा के अनाज बेच लेब त हो जाई। अनेरे ना नु एतना जाँगर जोतले रहेनी! ई कुल ना करीं त आँखि देखे भर के पइसा रुपया ना रहे देला ई आदमी। हाथ पर तनी कुच्छु रहेला त बूत बनल रहेला। नाहीं त रोजे कब्बो चना मटर, त कब्बो बथुआ मरसा त कब्बो चौराई पोइ! जवन मिल जाला खेते मेड़े, लेआ के धो बना लेनी बाकिर आपन गाँठि ना खोलनी। काहें से कि गाहे- बगाहे कवनो आकाज हो जाला त ए आदमी लगे कुच्छु ना रहेला। नेवता-हँकारी पानी उतर जा, जे चार पइसा ना रहे हमारी लगे त!” सोचते सोचत जा के ऊ दियरखा से ककही उठा के आपन बार झारे लागल। चोटी पूरि के सीसा के गर्दा अँचरा से पोंछि के मुँह देखलस। सीसा देखले ओकरा केतना दिन भ गइल रहे। टिकुली साटि के फेरू से अपना के निहरलस, आ सीसा ध के चूल्ही लगे आ के बइठि गइल। खेलावन कनखी से सब देखत रहलन।
“पहिले पानी दे हमके।” पैजामा चढ़ावत कहलें बाकिर मन में सोचत रहलें कि “ससुर ई मेहरारुन के दिन कबसे होखे लागल!”
बुधिया जल्दी से उठि के लोटाभर पानी खेलावन के थमा दिहलस। ऊ पानी पियलन आ लोटा बुधिया के थमा के रेंगनी पर से झोरा खींचि के निकल गइलन।
खेलावन के जाते ऊ गोंयिठा आ पतई लगा के चुल्हि बरलस। तसली में मीठा के रस छानि के चढ़ा दिहलस। तनिये देर में रस खदके लागल तबले चउरो पसा के ओही रसे में डालि दिहलस। चूल्हि में पतई चट्ट चट्ट जरत रहे। पतई के जरत देखि के बुधिया के बुझाइल कि ऊहो त एही तरे जिनगी भर जरते रहि गइल। मरदे के पियला से ऊ कहीं के ना रहि गइल रहे। ओकरा मन परे लागल कि कइसे पाँच बरिस के बेटा मंगरुआ खोंखत-खोंखत परलोक सिधार गइल बाकिर पियला की आगे ई मरद लइका के सुधि ना लिहलन। जेतना बेर रुपया ले के गइलन, पी अइलन आ कहि दिहलन कि बैद जी कहलें हँ, “आदी, तुलसी, पीपर आ मरीचि के काढ़ा बना के पिआ द। खोंखी ठीक हो जाई।“ ऊ काढ़ा पिआवते रहि गइल आ एक दिन अपनी खोंखी के साथे मंगरुओ चुपा गइल। सोचते सोचत आँखी से लोर चू गइल। बेटा खातिर ओकर करेजा फाटत रहे।
“जिनावर कहीं के !” एकदम से ओकरी मूँहे से निकल गइल।
तब्बे कुच्छू महकल। चिहुकि गइल बुधिया। देखलस कि चूल्हि पर रसिआव फफा-फफा के जरि गइल रहे आ तसली से धुआँ उठत रहे। झट दे तसली उतारि के नीचे ध दिहलस बाकिर छने भर में ओकर अँगुरी लेसा गइल रहे। अँगुरी के साथे ओकर करेजो लेसाइल रहे। आँखिन से झर-झर लोर बहे लागल। ऊ हाथ पानी में बोरि के सुसुके लागल। चूल्हि में गोइठा की राखी के भीतर अब्बो आगी दहकत रहे। कुच्छु पतई जरि के भहरा गइल रहे त कुच्छु जरला के बादो आपन आकार ना तजले रहे।

दिन चढ़त जात रहे। आलू कूँचि के बुधिया अपनी अँगुरी पर छापि लिहले रहे। ओसे तनी आराम त मिलल रहे बाकिर आत्मा पर ऊ का छापे! कवन मलहम लगावे कि ऊहो जुड़ा जाउ!
खेलावन के देखत देखत हारि गइल त ऊठि के काल्हि के काटल छाँटी बैलन के आगे डालि दिहलस आ सोचे लागल कि “अब साँझि के मेंलवनी का दिआई एकनी के? ऊ आदमी त अबले ना आइल!”
खरामे खरामे दुपहरिया घुसुकत जात रहे। बुधिया के कुच्छू बुझाते ना रहे कि का करे ऊ? अँगुरी में आगि फेकले रहे। केवाड़ी बंद क के सिकड़ि चढ़ा दिहलस आ खाँची, बोरी, खुरपी ले के बगयिचा की ओर चल दिहलस। रीसि में दूख बेयाधि भुला जाला आ का जाने कहँवा से हनुमंत के बल आ जाला। पहिले पतई बिनलस आ बोरी में भरि के बोरी पेड़े से लगा के ठाड़ क दिहलस। ओकरी बाद खाँची खुरपी ले के बगयिचा के ओ पार खेते की ओर जा के घासि गढ़े लागल। अब ना त ओकर अँगुरी दुखात रहे ना मन में महिला दिवस के कवनो उछाह बचल रहे।
साँझि होत रहे। ओकर खाँची भरि गइल रहे। खुरपी घाँसी से तोपि के खाँची लिहले ऊ बगयिचा में आ गइल आ एक हाथे पतई के बोरी घिसिआवत, भुनभुनात घरे ओर चल दिहलस। “हमरी जिनगी में एक्को दिन सुख चैन के नइखे। आगि लागो अइसन जिनगी में!”
घरे पहुँचि के फेरू से ऊहे सब कार! दूभि झारल, छाँटी काटल आ फेरू से चूल्ही लगे बइठि के सोचल कि का बनायीं आ का ना बनायीं! भूखि से पेट कुलबुलात रहे। बिहाने से मुँहे एगो दाना ना गइल रहे। एक लोटा पानी हरहरा के पी लिहलस बुधिया। तनी जीउ में जीउ  आइल त बहरा आ के खेलावन के राहि ताके लागल। ओसारा में बइठल-बइठल अन्हार होखे लागल रहे। “ई आदमी हमार जिनगी हेवान क के छोड़ दिहले बा!” सोचते रहे कि झोरा लटकवले खेलावन आवत देखा  गइलन। बुधिया ठाड़ हो गइल। जैसे खेलावन ओसारा में गोड़ धयिलें, ओकरी नाके जोर से भभक लागल। बीखि कपारे ले चढ़ि गइल।
“आजुओ ढकोरि अइला? एक दिन पिअला बेगर ना रहि सकेला? तरकारी खातिर रुपया दिहले रहनी हँ। ऊहो पी लिहला? हमार त भागिए फूटल रहे कि तोहरा अइसन मरद मिलल! एसे निक त बाबूजी हमके कवनो नदी नहर में धकेल दिहलें रहितें। ई कुल बिपति त ना भोगतीं हम !” बिखियात बुधिया खेलावन की हाथे से झोरा झटक के छिनलस आ भीतर जाए लागल।
खेलावन के सब नासा उतरि गइल रहे आ भीतर के मरद हउहा उठल रहे। लपकि के बुधिया के झोंटा से पकड़लन आ खींचत अँगना में ले जाए लगलन।
“रुक ससुरी! तोर ढेर मुँह चलता। कल्हिए से ढेर फड़फड़ाताड़े तें। ले, हम तोर दिन बना देतानी। आजु मेहरारुन के दिन ह न! ले, हई ले!” अँगना के आवाज दुआरे ले सुनात रहे आ महिला दिवस के करेजा टीसत रहे।

मीना धर द्विवेदी
मोब० 09140044021

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One Thought to “टीस

  1. Mrs Bimmi Singh

    बहुत नीक लागल कहानी।

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