दुरजन पंथ

(1)

अकरुणत्वमकारणविग्रहः,परधने परयोषिति च स्पृहा।

सुजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता, प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम्।।

                                 – भर्तृहरि

गसल निठुरता

हद गहिरोर

पोरे-पोर।

पोंछ उठवले हरदम सगरी,

सींघ लड़ावे के तत्पर।

सकल उधामत चाहे करि लऽ

जीति ना पइब कबो समर।

अनकर माल-मवेसी, धनि पऽ

निरलज आँखि उठावे,

सुजन बंधु सन इरिखा पारे,

दुरजन जान सुभावे।

 

(2)

दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङकृतोऽपि सन्।

मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः।।

                           – भर्तृहरि

पढ़ल-लिखल भल सुकराचारी,

ताने रहे।

कतो बिछंछल मनियारा के

कवन गहे?

 

(3)

जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं

शूरे निर्घृनता मुनौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि।

तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे,

तत्को नाम गुणो भवेत्स गुणिनांयो दुर्जनैर्नाङ्कितः।।

                                 – भर्तृहरि

गने मंदमति धुर विनयी के

ब्रतधारी पाखंडी,

भलमानस के कपटी भाखे,

तेजसवंत घमंडी,

बीर बाँकुरा बड़ निरदइया,

मुनि सनकी घरनाँसी,

दीनहीन भोला मिठबोला,

बड़ बकता बकवासी,

धीर-गँहीर पुरुख अलचारी,

गुनवंता गुनहीना,

कवन सुजन नामी के जग में,

दूसे दुस्ट कभी ना।

 

(4)

लोभश्चेदगुणेन कि पिशुना यद्यस्ति किं पातकैः

सत्यं चेत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।

सौजन्य यदि किं निजैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः

सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।

                                 – भर्तृहरि

अउ अवगुन का लोभ भरल जब,

चुगली तब अधमाई का?

का तप, जब बा सत्यवादिता,

मन सुचि तिरिथ घुमाई का?

भलमनसी तऽ कवन आन गुन,

साज-सँवार सुनामा का?

सद् विद्या तब का धन चाहीं,

कवन मरन बदनामा का?

 

(5)

शशि दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी, सरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं स्वीकृतेः।

प्रभुर्धनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो, नृपाङ्गणगतः खलो मनसी सप्त शल्यानि मे।।

                                                       – भर्तृहरि

दिने धुँआइल चान,

ढलल बय सरम बिहूनी,

राँड़-तलैया जल बिन सूनी,

निपढ़ पुरुख सुन्नर सुभ भेखे,

धन संगरिहा राज हबेखे,

सज्जन लो’ बदहाली झेले,

उचरुंग, लंपट, बकवादी जन

राजसभा में खेले।

कइसे नीमन लागी हो,

कबले लोगवा जागी हो?

 

 

  • दिनेश पाण्डेय,

पटना।

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