गिरगिट

सोझ हराई में साजिश के
बुनत रहल बिखबेली जे,
काहे दुन कुछ दिन ले भइया,
बाँट रहल गुर भेली से।
ढलल बयस तबहूँ ना जानसि
अंतर मुरई गाजर के,
रँहचट में सोना के सपना
आन्हर काढ़सि काजर के।
जेकर बगली फाटल रहुवे
हाथे रखल अधेली से।
जे बघरी में फेंकत रहुवे
सँझहीं से कंकर पत्थल,
अन्हियारे के मत्थे काने
सबद पसारल अनकत्थल।
आजु-काल्हु ना जाने काहे
उलुटे बाँस बरेली से।
जुर्जोधन के मत भरमइलसि
ठकुरसुहतियन के टोली,
जरल जुबाँ कइसे कस माने
भनत फिरस माहुर बोली।
गांधारी के आँखे झोंपा
नीमिया गाछि करेली के।

  • दिनेश पाण्डेय,
    पटना

 

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