एक ठे बनारस इहो ह गुरु

‘का गुरु आज ई कुल चमचम ,दमदम काँहे खातिर हो ,केहू आवत ह का ‘? प्रश्न पूछने वाला दतुअन करता लगभग चार फुट ऊँची चारदीवारी पर बैठा आने -जाने वालों से पूछ रहा था।
”काहें मोदी आवत हउअन ,तोहके पता ना ह ?” पता ना ह ‘ ऐसे गुर्राते हुए बोला गया कि यदि पूछने वाला पहुँच में होता तो दो तीन लप्पड़ कही गए नहीं थे। पर पूछने वाला भी अजब ढीठ ,तुनक कर बोला -“जा जा ढेर गरमा मत….. .” कहता हुआ वह ‘ कोई नृप होहुँ हमहि का हानी ‘ कूद पड़ा अपने उस घर में जिसे हम आप झोपड़पट्टी कह सकते हैं। यह वह बनारस है जो सुबह -सुबह लोटा लिए रेलवे लाइन की पटरियों पर ,सड़क के किनारे ,झाड़ियों के पीछे अपने लाज -शर्म को कछुए की तरह छुपाये आपको भोर के झुटपुटे में या कभी पूरे -पूरे प्रकाश में कुल्ला -दतुअन करता हुआ मिल जाएगा। यह बनारस उठउआ चूल्हा है ,विकास की जब -जब अकस्मात् रिमझिम फुहार पड़ने लगती है यह ठौर -ठिकाने बदल लेता है।उस गन्दी,अँधेरी जगह जा बसता है जहाँ सबकी निगाह पड़ती है लेकिन ठहरती नहीं। लोकतंत्र का चौथा खम्भा माने जाने वाले पत्रकारिता की भी नहीं। विकास की योजनाओं के शिल्पियों की भी नहीं। यह जो बनारस है इसकी स्त्रियों का शील -भंग नहीं होता ? इनके बरसाती के दरवाजे पर पड़ा टाट का पर्दा किस तरह बचा ले जाता है इनकी अस्मत। कभी मीडिया की सुर्ख़ियों में इनकी तंगी ,बदहाली को आते -छाते आपने देखा है ?
उस दिन भी इन्हे किसी नहीं देखा था जब ये सरकार चुनवाने ठूंस -ठांस कर मतदान के लिए ले जाई जा रही थी। आज जब बनारस उन्नति के सपने लिए ऊँघ रहा है तब भी क्या उसकी उनीदी आँखे इन्हे देख पाएंगी ?

  • डॉ सुमन सिंह

 

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