नीति

तिन्हकर घर सुख चैन रहे
जहँ धी सुधिया, तिअई सुमुखी।
भृत्य भरोसी, इच्छित वित्त,
धनी अपनी सबरंग सखी।
अतिथि सेव, देव पूजन नित,
मधुर अन्न-रस की जिवनारी,
बितत नित्य साध के संगति
जीवन धन्य उहे घरुआरी।

जवनि हाथ दान नहिं जाने
स्रवन सहे नहिं सुक्ति उदेसा।
दरस साध आँखि अनजानल,
पैर भ्रमे ना तीरिथ देसा।
धन अकूत अरजे अनरीत,
भरल पेट सिर तुंग गुमाना
रे नर लोमड़ सहसा त्याग
नीच देह अघ के पैमाना।

करइल गाछ न लागे पात
दोखी का मधुमास रामजी!
दिन चढ़ते उरुआ चुँधियाय
का सूरज उपहास रामजी!
चातक चोंच परत ना बून
का मेहा बदमास रामजी!
बिधि लिखले अगते जे माथ
ऊ कइसे टरियास रामजी!

‘के एहि नगरी बड़ ह बाबा!’
‘तरबन्ना के तार बटोही।’
‘दाता के?’
‘धोबी। ले भोर
दे पट रैन अँधार बटोही।’
‘के पटु?’
‘परधन तिय के चोर।
ए में सभ हुसियार बटोही।’
‘कइसे अबले जिअनीं राम!’
‘बिखकीरी अनुहार बटोही।’

अबिबेकी खरचे बिन देखि
बिन तागत जे रार बिसाही।
अति आतुर सगरो सभ काज
अइसन नर के तुरत तबाही।
***

 

  • दिनेश पाण्डेय

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