भोर के गद

मूठरी घाम गुलेट
खोंस गइल ह
जंगला के फाँक में
अखबारी टेल्हा सूरुज
कुछ अगिते।

एगो चिड़ा
ओरी त झूलत नसेनी प
पसार रहल बा प्रेम।
अनमुन्हे के फींचल गँड़तर
हरकऽता।
पाँख छितनार मूरुख चिड़ी
खोज रहली ह
गूलर के फूल।
फिजूल।

सकल कपट अघखानि सकल पँड़या
सरबजनिक नल प
बलटियन पानी छछरावत गावऽता
बेहया अस-
“रधिका औगुन चित न धरऽ।”

“ढकरचाँय-ढकरचाँय,
कील खिआ गइल साइद,
तेल डाल,
खोंट बा का काने?
कवन एकटंगे ठाड़ बिया होने घूघ तान,
बहरे से आके?
उजबक अस।
गड़ही का पानी सूख गइल का?
बेबस के पीर हरऽ हरिजी,
कुछ लमहर चीर करऽ हरिजी।
एक दुससना सोझे ठाड़े,
अनगिन आन्ह लुकाइल बाड़े।
अरे सकला भाग हुँहाँ से,
सभ पानी जिआन कइले बा सार।”
जी’धर बाबा आवाँ भइल बाड़े-
“तनी लउर धरइहऽ हो बिटेसर!”

मेहरारुन क एगो झूंड
गइल ह सिवाला ओरि तनिके पहिले।
उनुकर सहगीत के बोल छितरा गइल बा सगरे
सरसों के दाना अस।
एगो, दूगो, अनगिनित टुसिआइल सरसों,
देखते-देखत भर गइल आसमान
पियर-पियर फूल से।

बाँचल अखबार के हरफ पसरल जाता
खेते-खरिहाने, घरे-बगरे, ओरी-बँड़ेरी सब जगे’
मुँहेंमुँहीं।

 

  • दिनेश पाण्डेय

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